नशे के शिकंजे में छत्तीसगढ़ का आदिवासी समाज

गिरजा मानकर

बीते साल केंद्र सरकार की अनुशंसा के बाद कई राज्यों ने गुटखा पर प्रतिबंध लगा दिया है। क्योंकि इसके सेवन से आम आदमी विशेषकर युवा वर्ग कैंसर जैसी गंभीर बीमारी का शिकार हो रहा था। हालांकि प्रतिबंध के बाद भी कई राज्यों में चोरी छुपे इसे बेचे देखा जा सकता है। गुटखा और इसके जैसे अन्य नशीले पदार्थ युवाओं को अपनी ओर तेज़ी से आकर्षित करते हैं। कहीं न कहीं यह युवाओं में स्टेटस सिंबल के रूप में देखा जाता है। लेकिन यही सेवन धीरे धीरे उन्हें इसका आदी बना देता है। दूसरी ओर शराब भी ऐसा ही नशीला पदार्थ है जो हमारे देश के युवाओं में तेजी से पनप रहा है। जबकि युवा शक्ति का लोहा दुनिया भर में माना जाता है। किसी भी राष्ट्री की मूल शक्ति युवा वर्ग में ही निहित है। भारत की युवाशक्ति ने भी विष्व मंच पर अपना लोहा मनवाया है। दुनिया के कई देशों में भारतीय युवा अपने कौशल से उसे सजाने सवांरने का कार्य कर रहे हैं। विश्वे की महाशक्ति अमेरिका की प्रगति में भी भारतीय युवा शक्ति अपना बहुमूल्य योगदान दे रही है। इसी के बल पर ही हम 2020 तक विश्व आर्थिक महाशक्ति बनने और विकास की दौड़ में चीन को पीछे छोड़ने का दम भरते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि युवा उर्जावान होते हैं जिनमें समाज परिवर्तन की क्षमता होती है। यदि इसकी क्षमता को उचित दिशा में मोड़ दिया जाए तो कई सृजनात्मक संरचना को बल मिल सकता है।

मगर सच्चाई यह भी है कि आज का युवा भारत नषे की चुंगल में फंसता जा रहा है। बड़े-बड़े महानगरों की बात तो छोड़ दें अब तो लखनउ, पटना, रायपुर, भुवनेश्वहर जैसे शहरों में भी युवा आबादी शराब और अन्य नशे की लत में जकड़ती जा रही है। नशे की यह गलत प्रवृति गांव तक पहुंच चुकी है। शराब के बढ़ते कारोबार के कारण इसे संचालित करने वाले असामाजिक तत्व कई बार जहरीली शराब तक बनाकर बेचते हैं। जिसका शरीर पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है और कई बार इसका सेवन करने वालों की मौत तक हो जाती है। हालांकि भारतीय समाज में कुछ समुदाय और जाति में नशे का सेवन उनकी संस्कृति का अभिन्न अंग है। आदिवासी बहुल राज्य छत्तीसगढ़ में भी शराब का सेवन समुदाय की संस्कृति की पहचान है। शादी-ब्याह और पर्व-त्यौहारों में इसका सेवन आम तौर पर होता है। वस्तुतः शराब के नाम पर आदिवासी समाज में महुआ का सेवन किया जाता है। जो प्राकृतिक रूप से तैयार होता है। इसके सेवन से शरीर पर बहुत ही कम नकारात्मक प्रभाव देखने को मिलता है। परंतु धीरे धीरे अब यहां के गांवों में भी महुआ के नाम पर आम शराबें बिकने लगी हैं। जिसका सबसे अधिक सेवन युवा पीढ़ी कर रही है। राज्य के बस्तर क्षेत्र के कई गांवों में अवैध रूप से शराब बेचने का कारोबार हो रहा है। एक आंकड़े के मुताबिक अकेले इस इलाके में प्रति वर्ष पांच करोड़ रूपए की शराब गटक ली जाती है। गांव में शराब के कारोबार का एक उदाहरण कांकेर जिला के बैजनपुरी गांव भी है। जहां धड़ल्ले से शराब का व्यापारिक रूप से प्रयोग किया जा रहा है। सप्ताह में लगने वाले बाज़ार में इसे खुलेआम बेचा जाता है। महुआ के नाम पर देसी शराब के धंधे को आगे बढ़ाया जा रहा है।

शराब के बढ़ते कारोबार के पीछे वास्तव में राज्य सरकार की नीति भी बहुत हद तक जिम्मेदार है। छत्तीसगढ़ में राज्य सरकार की ओर से आदिवासियों को पीने के लिए पांच लीटर शराब बनाने की छूट दी गई है और कई जगह इसे जनवितरण प्रणाली के तहत भी बेचा जा रहा है। सरकार द्वारा मिले छूट का गलत फायदा उठाते हुए इसे कारोबार का रूप दिया जाने लगा है। फलस्वरूप ग्रामीण परिवेश में इसका कुप्रभाव पड़ रहा है। कई लोग अपनी आजीविका चलाने के लिए शराब बेचने का काम करने लगे हैं। चैंकाने वाली बात यह है कि इस कारोबार में बड़ी संख्या में महिलाएं भी शामिल हैं। परंतु जैसे जैसे जागरूकता बढ़ रही है इसका विरोध भी किया जा रहा है। गांव में इसके खिलाफ आवाजें बुलंद होने लगी हैं। विरोध करने वालों की सबसे बड़ी चिंता जवान होती पीढ़ी में इसकी बढ़ती लत को लेकर है।

समस्या की जड़ गहरी अवश्य है परंतु इसका हल संभव है। सर्वप्रथम हमें यह सोचना होगा कि आखिर हमारे युवाओं में शराब के प्रति रूझान क्यों बढ़ा है? यदि हम इस पर गौर करें तो कई बातें सामने आती हैं। 90 के दशक में भारत में ग्लोबलाइजेशन की शुरूआत ने देश में मुक्त बाजार की संभावनाओं को खोलकर रख दिया। इस बाजारी व्यवस्था ने हमारी अर्थव्यवस्था के साथ साथ समाज के विभिन्न क्षेत्रों को भी प्रभावित किया है। इसी बाजारी संस्कृति ने नषे की प्रवृति विशेषकर युवाओं में इसके आकर्षण को बढ़ाने में बहुत बड़ा रोल अदा किया है। उदारीकरण अथवा ग्लोबलाइजेशन के तेजी से बढ़ते युग ने भारतीय संस्कृति की जगह मिश्रित संस्कृति को जन्म दिया। बहुत हद तक इसने हमारे सामाजिक ताने-बाने को भी छिन्न भिन्न किया है। जिस आदिवासी समुदाय में प्राकृतिक रूप से तैयार नशे का सेवन किया जाता था, वहीं अब विदेशी संस्करण और महंगे ब्रांड ने इसकी जगह ले ली है। नषे के बढ़ते लत के कारण आदिवासी समाज में भी अपराध और यौन शोषण जैसी बुराईयां आम होती जा रही हैं। ऐसे में हमें विकास के मॉडल पर बात करने से पहले इस विशय पर भी गंभीरता से विचार करना होगा। हमें आधुनिकता के नाम पर गंदगी को कभी स्वीकार नहीं करना चाहिए। आज हमारे युवाओं पर हर क्षेत्र में आगे बढ़ने का दबाब है। जाहिर है सीमित विकल्प होने के कारण हर युवा सफल नहीं हो सकता है ऐसे में वह अपने तनावों से उबरने के लिए नशा का ही सहारा लेता है। सरकार को सोचना होगा कि इससे कैसे उभरा जाए। कठिनाई तो यह है कि सरकार एक तरफ शराब को गलत मानती है वहीं दूसरी तरफ इसी विभाग से उसे सबसे ज्यादा आय भी प्राप्त होता है। कहा भी गया है कि कभी-कभी पांच कदम आगे चलने के लिए दो कदम पीछे भी हटना पड़ता है। विकास की पटरी पर दौड़ते भारत को जरूरत है पक्के इरादे और उन्नति की आकांक्षा रखने वाले युवाओं की, न कि नषे की नकारात्मक उर्जा से संचालित नौजवानों की।

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