मनमोहन कुमार आर्य,
हमारे शास्त्रों में दान की महिमा बताई गई है। मनुष्यों को अपना भविष्य सुधारने के लिये सुपात्रों को अवश्य दान करना चाहिये। यज्ञ के तीन अंग कहे जा सकते हैं। पहला देवपूजा, दूसरा संगतिकरण और तीसरा दान। यज्ञ में जड़ व चेतन दोनों प्रकार के देवताओं का यजन, पूजा, सत्कार व संगतिकरण होने के साथ दान भी होता है। यज्ञ में विद्वानों के सम्मान व प्रवचन होने से देवपूजा व संगतिकरण प्रत्यक्ष रूप में होता है। यदि यज्ञ से दान की बात पर विचार करें तो हम यज्ञ में जो यज्ञकुण्ड, समिधा, घृत, ओषधियों आदि सुगन्ध उत्पन्न करने व रोग नाशक एवं अन्य अनेक लाभों को देने वाली वस्तुओं को आहुतियों के रूप में देते हैं उनसे वायु के दुर्गन्ध नाश और रोगनाशक प्रभाव से अनेक मनुष्यों व वायुस्थ प्राणियों को लाभ मिलता है। यज्ञ की सामग्री, समय और धन का जो व्यय हम यज्ञ करने के लिए करते हैं वह दान कहा जा सकता है। दान की परिभाषा ही यह है कि सत्पात्रों को लाभ पहुंचाना जिससे हमारा परिवार, समाज व देश अज्ञान, अत्याचार, अन्याय, अभाव आदि से मुक्त हो सके। हमें दान करते हुए इन बातों पर अवश्य ध्यान देना चाहिये। यदि हम किसी ऐसे स्थान व व्यक्ति को दान देने हैं कि जहां दान का सदुपयोग व सामान्यजनों सहित समाज व देश का कल्याण न होता हो तो वह दान नहीं अपितु एक ऐसा कर्म है जिसके परिणामस्वरूप ईश्वर हमें दुःख भी दे सकता है। आज समाज में इतने धर्म गुरु व मत-मतान्तर उत्पन्न हो गये हैं जो अपने बड़े-बड़े भवन व सुख सुविधायें उत्पन्न करने सहित अपने अन्धभक्तों की संख्या में वृद्धि कर रहे हैं। किसी को पता नहीं चलता कि यह किससे कितना धन दक्षिणा के रूप में लेते हैं व उसका व्यय किन अच्छे व बुरे कार्यों में करते हैं? जनता से दान लेने वाली सभी संस्थाओं को चाहे वह आर्यसमाज ही क्यों न हो, दानदाता को अपने समस्त क्रियाकलापों सहित आयव्यय एवं अपनी सम्पत्तियों का विवरण देना चाहिये। ऋषि दयानन्द जी के जीवन में एक प्रसंग आता है कि जब उन्होंने मुरादाबाद के एक पौराणिक संस्कृत व उर्दू विद्वान द्वारा सनातन वैदिक धर्म द्वेषी लोगों द्वारा आर्य हिन्दुओं के विरुद्ध उनके निन्दात्मक ग्रन्थ के खण्डन में ग्रन्थ लिखने पर मुकदमा चलाया गया था। ऋषि के ज्ञान में यह बात आई तो उन्होंने अपने भक्तों से उस बन्धु की आर्थिक सहायता कराई और उन्हें देष मुक्त कराया था। उस हिन्दू पंडित को आर्य लोगों से जो सीधी धनराशि पहुंची थी, उन्होंने उसका हिसाब नहीं दिया तो स्वामी जी ने प्राप्त व व्यय की धनराशि का विवरण देने के अनेक अवसर दिये। इस बात से उसके विरोधी हो जाने व स्वामी जी ने उसी स्वार्थ भावना की आलोचना कर उससे सम्बन्ध विच्छेद कर लिये थे। ऐसा ही उन्होंने अपने कुछ कर्मचारियों के अर्थ शुचिता विरोधी कार्यों के कारण उन्हें भी हटा दिया था। इससे यह ज्ञात होता है कि जनता का धन अच्छे व जनता के हित के कार्यों में ही व्यय होना चाहिये और जनता को उसका हिसाब व आय-व्यय सूचित किया जाना चाहिये जो वर्तमान में हमारी सभी संस्थायें नहीं कर पा रही हैं।दान का उद्देश्य वैदिक धर्म व संस्कृति की रक्षा का मुख्य होना चाहिये। इसका कारण है कि वेद व ऋषियों के उपनिषद व दर्शन आदि ग्रन्थों में ही ईश्वर का सत्यस्वरूप, उसकी उपासना कर उसका प्रत्यक्ष व साक्षात्कार करने की विद्या व विधि, यज्ञ का स्वरूप व उसकी विधि तथा मनुष्यों के जन्म से मृत्यु पर्यन्त समस्त सत्य कर्तव्यों व परम्पराओं का विधान है। इसकी अवश्य रक्षा होनी चाहिये नहीं तो मानव मानव नहीं रहेगा। वस्तुतः श्रेष्ठ मानव बनता ही तब है जब वह वेद व वैदिक साहित्य का अध्ययन करें और उस पर शत प्रतिशत आचरण करें। यदि वह जानता तो सब कुछ है परन्तु उसके अनुरूप करता नहीं है तो उसका वह ज्ञान लाभकारी नहीं होता। ऋषि दयानन्द के जीवन पर दृष्टि डाले तो हम पाते हैं कि उन्होंने अपने जीवन मे अध्ययन व अनुसंधान करते हुए वेद के सत्य अर्थों को जाना जो उनके समय में किसी भी विद्वान को उपलब्ध नहीं थे। उन्होंने वेदों की शिक्षाओं का आचरण स्वयं भी किया व दूसरों से कराने का भी प्रशंसनीय उद्यम किया। विश्व के सभी लोगों का सर्वांगपूर्ण हित करने के उन्होंने व्याख्यान व लेखन के द्वारा वैदिक सिद्धान्तों का प्रचार-प्रसार किया तथा इस कार्य के लिये आर्यसमाज की स्थापना भी की। आज उसी के प्रभाव से देश में अज्ञानता, अन्धविश्वास, कुरीतियां, असमानता आदि कम हुए व दूर हुएं हैं। उनके सिद्धान्तों से ही देश व विश्व से इन्हें पूरी तरह से मुक्त किया जा सकता है।जीवन में सबसे अधिक महत्व ज्ञान का है। ज्ञान दो प्रकार का कह सकते हैं। एक आध्यात्मिक एवं दूसरा भौतिक ज्ञान। भौतिक ज्ञान की तो हमारे विश्व के वैज्ञानिकों ने पराकाष्ठा कर दी है जिसके लिये वह धन्यवाद के पात्र है। आध्यात्मिक ज्ञान के विषय में निष्पक्ष रूप से कहें तो यह निर्दोष ज्ञान आर्यसमाज व उनके विद्वानों के ही पास है। विश्व में वेद व वैदिक ग्रन्थों का सम्पूर्णता से सत्य ज्ञान नहीं है। जो है वह विषमिश्रित अन्न के समान दूषित व हानिकारक है। अन्य मत-मतान्तरों, स्वदेशी व विदेशी, किसी के पास सत्य वेद ज्ञान को प्राप्त करने के साधन ही नहीं हैं। हमारे पुराणी बन्धुओं ने तो वेदों से दूरी ही बना रखी है। वह उसका व उसके सत्य अर्था का अनुसंधान करते हुए नहीं दीखते। आर्यसमाज ही यह कार्य करता है और अपने गुरुकुलों को आर्ष शिक्षा प्रणाली, अष्टाध्यायी-महाभाष्य-निरुक्त-निघण्टु-उणादिकोष आदि की सहायता से सभी वेद मन्त्रों के सत्य अर्थों को प्रकाशित व सामान्य जनता तक सरल हिन्दी भाषा में संप्रेषित करता है। इस प्रकरण में हम आर्यसमाज के दो प्रकाशकों श्री प्रभाकरदेव आर्य, हिण्डोन सिटी तथा श्री अजय आर्य, दिल्ली का भी उल्लेख कर धन्यवाद करना चाहते हैं जिन्होंने प्रायः सभी प्रकार के प्राचीन व अर्वाचीन वेदानुकूल ग्रन्थों का प्रकाशन करके देश व विश्व की वेद प्रेमी जनता का उपकार किया है।विश्व में आर्यसमाज के आर्ष प्रणाली पर संचालित गुरुकुल ही वैदिक शिक्षा का अध्ययन कराकर वेदों व वैदिक साहित्य के विद्वान तैयार कर रहे हैं जिनसे हमारा सनातन वैदिक धर्म व संस्कृति सुरक्षित है। सबसे पुण्य का कार्य इन संस्थाओं की आवश्यकता पूर्ति हेतु दान करके ही किया जा सकता है। महाराज मनु ने भी ईश्वर व वेद के प्रचार व प्रसार में दिया जाने वाला दान ही सबसे श्रेष्ठ दान माना है। जिस बन्धु को भी दान करना हो वह देश के सभी गुरुकुलों की सूची प्राप्त कर जो सबसे अधिक अभाव ग्रस्त हो और जहां वैदिक शिक्षा का स्तर अच्छा हो, वहां दान देना चाहिये। इसके साथ ही हमें अपने आसपास के निर्धन, रोगी, अभावग्रस्त, असहाय, कृपण, निर्बल लोगों की भी आर्थिक सहित वस्त्र व अन्न आदि से सहायता करनी चाहिये जिससे वह भी अपने जीवन में सुख के कुछ पल अनुभव कर सकें। ऐसा करेंगे तो इसका लाभ इस जन्म में व परजन्म में भी अवश्य होगा इसकी गारण्टी है। यदि अविद्या व मत-मतान्तरों व तथाकथित वेद विद्या विहिन गुरुओं के दुष्चक्र में फंसकर ऐसा नहीं कर पाये तो इससे होने वाले जन्म-जन्मान्तरों के सुख से भी वंचित हो जायेंगे। यह भी उल्लेख कर दें कि अपने जीवन को वर्तमान व परजन्म में भी सुखी बनाने के लिये हमें भ्रष्ट आचरण से बचना चाहिये। हमारा एक भी कर्म यदि खराब हो गया तो उसका परिणाम इस सम्पूर्ण जीवन व परजन्मों में भोगना पड़ सकता है। इस पर ध्यान देने व विचार करने की आवश्यकता है।हम प्रसंगान्तर जाकर एक बात यह भी कहना चाहते हैं कि आर्यसमाज में अपनी आय का शतांश सदस्यता शुल्क के रूप में देने का विधान है। यह सबको दान में देना चाहिये परन्तु इसके साथ ही यह भी ध्यान में रखना चाहिये कि वहां गुटबाजी न हो। सभी अधिकारी व सदस्य प्रेमपूर्वक सदस्य की योग्यता के अनुसार शान्तिपूर्वक निर्वाचन सम्पन्न करते-कराते हों और सभी एक दूसरे को सहयोग देते हों। दूसरी बात यह भी कहनी है कि सभी आर्यसमाजों में एक अतिथि निवास अवश्य होना चाहिये जहां न्यूनतम शुल्क पर अतिथियों को आवास की सुविधा देनी चाहिये। केवल सरकारी पहचान पत्र के आधार पर निवास करने की सुविधा देनी चाहिये। सभी समाजों में एक रसोईयां भी होना चाहिये जो चाय, काफी, प्रातराश, दिन व रात्रि का भोजन बनाये। हमें आज के युग में किसी आर्य बन्धु के दूरस्थ स्थानों पर जाने पर वहां के आर्यसमाज के अधिकारियों द्वारा उसका अपने समाज के अधिकारियों का अनुमति पत्र मांगना अनुचित लगता है। जो ऐसा करते हैं वहां दान देने से पहले अवश्य सोचना चाहिये। इसका कारण है कि आज हमारे आर्यबन्धु ही आर्यसमाजों में नहीं जाते। वह होटल में रहते हैं जहां उन्हें आवास, भोजन व शौच आदि की उपयुक्त सुविधायें मिलती हैं। हम कुछ वर्ष पूर्व अपने पूरे परिवार के साथ अंडमान से लौटते हुए कलकत्ता के एक आर्यसमाज में गये। पहले तो जान पहचान होने पर भी वह हमें स्थान नहीं दे रहे थे। वहां के प्रमुख अधिकारियों से निकट संबंध होने के कारण स्थान दिया गया। कमरे में एक ही बैड था जिस पर हम पांच लोगों ने शयन किया। चादर पर धूल थी और कमरे मकड़ी के जाले लग थे। चूहे भी इधर उधर दौड़ रहे थे। शौचालय पुरानी पद्धति का बना था जिसमें लाइट भी नहीं थी। दुर्गन्ध इतनी की उसमें बैठ ही नहीं सकते थे। अभी बैठे ही थे कि वहां के पुरोहित जी आ गये कि रसीद कटवाईये। उन्होंने जो मांगा हमने दे दिया परन्तु हम व हमारे परिवार के सदस्य उनके व्यवहार व वहां की व्यवस्था से सन्तुष्ट नहीं हुए। हम अनुभव करते हैं कि आर्यसमाज की अधिकांश संस्थाओं में इसी प्रकार की व्यवस्था है। यह आर्यसमाज के प्रचार में साधक नहीं अपितु बाधक है। हमें सिखों से इस विषय में मार्ग दर्शन लेना चाहिये। इससे पूर्व हम पं. सत्पाल पथिक जी का पटना के एक गुरुद्वारे का संस्मरण प्रस्तुत कर चुके हैं जहां रात्रि देर से पहुंचे पर पूरी स्पेशल ट्रेन के यात्रियों को भोजन व निवास की सुविधा दी गई थी। क्या आर्यसमाज ऐसा नहीं कर सकता? क्या इस परिप्रेक्ष्य में आर्यसमाज को श्रेष्ठ समाज कह सकते हैं?हमने दान के बारे में संक्षिप्त चर्चा की है। हमारी कुछ बातें हमारे कुछ मित्रों को बुरी भी लग सकती हैं। हमने अपने विचारों को जो हमारे मन में उठे और जो आर्यसमाज के लिए हितकर हैं, प्रस्तुत किया है। हमारे पास इन बातों को कहने का दूसरा कोई मंच भी नहीं है। अतः जिसी किसी को कुछ बुरा लगे तो हम उससे क्षमा चाहते हैं।