हिन्दी की आर्थिक पत्रकारिता : पहचान बनाने की जद्दोजहद – संजय द्विवेदी

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mediaeduवैश्वीकरण के इस दौर में ‘माया’ अब ‘महागठिनी’ नहीं रही। ऐसे में पूंजी, बाजार, व्यवसाय, शेयर मार्केट से लेकर कारपोरेट की विस्तार पाती दुनिया अब मीडिया में बड़ी जगह घेर रही है। हिन्दी के अखबार और न्यूज चैनल भी इन चीजों की अहमियत समझ रहे हैं। दुनिया के एक बड़े बाजार को जीतने की जंग में आर्थिक पत्रकारिता एक साधन बनी है। इससे जहां बाजार में उत्साह है वहीं उसके उपभोक्ता वर्ग में भी चेतना की संचार हुआ है। आम भारतीय में आर्थिक गतिविधियों के प्रति उदासीनता के भाव बहुत गहरे रहे हैं। देश के गुजराती समाज को इस दृष्टि से अलग करके देखा जा सकता है क्योंकि वे आर्थिक संदर्भों में गहरी रूचि लेते हैं। बाकी समुदाय अपनी व्यावसायिक गतिविधियों के बावजूद परंपरागत व्यवसायों में ही रहे हैं। ये चीजें अब बदलती दिख रही हैं। शायद यही कारण है कि आर्थिक संदर्भों पर सामग्री के लिए हम आज भी आर्थिक मुद्दों तथा बाजार की सूचनाओं को बहुत महत्व देते हैं। हिन्दी क्षेत्र में अभी यह क्रांति अब शुरू हो गयी है।

 

     ‘अमर उजाला’ समूह के ‘कारोबार’ तथा ‘नई दुनिया’ समूह के ‘भाव-ताव’ जैसे समाचार पत्रों की अकाल मृत्यु ने हिन्दी में आर्थिक पत्रों के भविष्य पर ग्रहण लगा दिए थे किंतु अब समय बदल रहा है इकोनामिक टाइम्स, बिजनेस स्टैंडर्ड और बिजनेस भास्कर का हिंदी में प्रकाशन यह साबित करता हैं कि हिंदी क्षेत्र में आर्थिक पत्रकारिता का एक नया युग प्रारंभ हो रहा है। जाहिर है हमारी निर्भरता अंग्रेजी के इकानामिक टाइम्स, बिजनेस लाइन, बिजनेस स्टैंडर्ड, फाइनेंसियल एक्सप्रेस जैसे अखबारों तथा बड़े पत्र समूहों द्वारा निकाली जा रही बिजनेस टुडे और मनी जैसे पत्रिकाओं पर उतनी नहीं रहेगी। देखें तो हिन्दी समाज आरंभ से ही अपने आर्थिक संदर्भों की पाठकीयता के मामले में अंग्रेजी पत्रों पर ही निर्भर रहा है, पर नया समय अच्छी खबरें लेकर आ रहा।

 

     भारत में आर्थिक पत्रकारिता का आरंभ ब्रिटिश मैनेजिंग एजेंसियों की प्रेरणा से ही हुआ है। देश में पहली आर्थिक संदर्भों की पत्रिका कैपिटल’ नाम से 1886 में कोलकाता से निकली। इसके बाद लगभग 50 वर्षों के अंतराल में मुंबई तेजी से आर्थिक गतिविधियों का केन्द्र बना। इस दौर में मुंबई से निकले कामर्स’ साप्ताहिक ने अपनी खास पहचान बनाई। इस पत्रिका का 1910 में प्रकाशन कोलकाता से भी प्रारंभ हुआ। 1928 में कोलकाता से इंडियन फाइनेंस’ का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। दिल्ली से 1943 में इस्टर्न इकानामिक्स और फाइनेंसियल एक्सप्रेस का प्रकाशन हुआ। आजादी के बाद भी गुजराती भाषा को छोड़कर हिंदी सहित अन्य भारतीय भाषाओं में आर्थिक पत्रकारिता के क्षेत्र में कोई बहुत महत्वपूर्ण प्रयास नहीं हुए। गुजराती में व्यापार’ का प्रकाशन 1949 में मासिक पत्रिका के रूप में प्रारंभ हुआ। आज यह पत्र प्रादेशिक भाषा में छपने के बावजूद देश के आर्थिक जगत की समग्र गतिविधियों का आइना बना हुआ है। फिलहाल इसका संस्करण हिन्दी में भी साप्ताहिक के रूप में प्रकाशित हो रहा है। इसके साथ ही सभी प्रमुख चैनलों में अनिवार्यतः बिजनेस की खबरें तथा कार्यक्रम प्रस्तुत किए जा रहे हैं। इतना ही नहीं लगभग दर्जन भर बिजनेस चैनलों की शुरूआत को भी एक नई नजर से देखा जाना चाहिए। जी बिजनेस, सीएनबीसी आवाज, एनडीटीवी प्राफिट आदि।

 

    वैश्वीकरण और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आगमन से पैदा हुई स्पर्धा ने इस क्षेत्र में क्रांति-सी ला दी है। बड़े महानगरों में बिजनेस रिपोर्टर को बहुत सम्मान के साथ देखा जाता है। इसकी तरह हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं में वेबसाइट पर काफी सामग्री उपलब्ध है। अंग्रेजी में तमाम समृद्ध वेबसाइट्स हैं, जिनमें सिर्फ आर्थिक विषयों की इफरात सामग्री उपलब्ध हैं। हिन्दी क्षेत्र में आर्थिक पत्रकारिता की दयनीय स्थिति को देखकर ही वरिष्ट पत्रकार वासुदेव झा ने कभी कहा था कि हिन्दी पत्रों के आर्थिक पृष्ठ ‘हरिजन वर्गीय पृष्ट’ हैं। उनके शब्दों में – ‘भारतीय पत्रों के इस हरिजन वर्गीय पृष्ठ को अभी लंबा सफर तय करना है। हमारे बड़े-बड़े पत्र वाणिज्य समाचारों के बारे में एक प्रकार की हीन भावना से ग्रस्त दिखते हैं, अंग्रेजी पत्रों में पिछलग्गू होने के कारण हिन्दी पत्रों की मानसिकता दयनीय है। श्री झा की पीड़ा को समझा जा सकता है, लेकिन हालात अब बदल रहे हैं। बिजनेस रिपोर्टर तथा बिजनेस एडीटर की मान्यता और सम्मान हर पत्र में बढ़ा है। उन्हें बेहद सम्मान के साथ देखा जा रहा है। पत्र की व्यावसायिक गतिविधियों में भी उन्हें सहयोगी के रूप में स्वीकारा जा रहा है। समाचार पत्रों में जिस तरह पूंजी की आवश्यकता बढ़ी है, आर्थिक पत्रकारिता का प्रभाव भी बढ़ रहा है। व्यापारी वर्ग में ही नहीं समाज जीवन में आर्थिक मुद्दों पर जागरूकता बढ़ी है। खासकर शेयर मार्केट तथा निवेश संबंधी जानकारियों को लेकर लोगों में एक खास उत्सुकता रहती है।

 

    ऐसे में हिन्दी क्षेत्र में आर्थिक पत्रकारिता की जिम्मेदारी बहुत बढ़ जाती है, उसे न सिर्फ व्यापारिक नजरिए को पेश करना है, बल्कि विशाल उपभोक्ता वर्ग में भी चेतना जगानी है। उनके सामने बाजार के संदर्भों की सूचनाएं सही रूप में प्रस्तुत करने की चुनौती है। ताकि उपभोक्ता और व्यापारी वर्ग तमाम प्रलोभनों और आकर्षणों के बीच सही चुनाव कर सके। आर्थिक पत्रकारिता का एक सिरा सत्ता, प्रशासन और उत्पादक से जुड़ा है तो दूसरा विक्रेता और ग्राहक से। ऐसे में आर्थिक पत्रकारिता की जिम्मेदारी तथा दायरा बहुत बढ़ गया है। हिन्दी क्षेत्र में एक स्वस्थ औद्योगिक वातावरण, व्यावसायिक विमर्श, प्रकाशनिक सहकार और उपभोक्ता जागृति का माहौल बने तभी उसकी सार्थकता है। हिन्दी ज्ञान विज्ञान के हर अनुशासन के साथ व्यापार, वाणिज्य और कारर्पोरेट की भी भाषा बने। यह चुनौती आर्थिक क्षेत्र के पत्रकारों और चिंतकों को स्वीकारनी होगी। इससे भी भाषायी आर्थिक पत्रकारिता को मान-सम्मान और व्यापक पाठकीय समर्थन मिलेगा।

3 COMMENTS

  1. University of Massachusetts (इंजीनियरिंग ) का कहना है :मैं अहिंदी भाषी हूं ,(इंजिनियरिंग प्रो. हूं, अंग्रेजी में पढाता हूं) किंतु, हिंदी के पक्ष में हूं ?(संस्कृतकी सहायता लेकर हिंदी सीखता हूं।) ३० वर्ष के अनुभव से यह बात कह रहा हूं। हमारी गलती दोहरायी ना जाए। बहुत चिंतन के बाद जो 20 वर्ष पहले, नहीं मानता था, वह भारत के हित में आज मानता हूं। यदि बैसाखी पर चढकर सबसे आगे दौड़ा जा सकता है, या उधारके धनसे धनी हुआ जा सकता है, तो पराए माध्यमसे भारत दौड़ में सबसे आगे जा सकता है। अंग्रेजी ६२ सालों से सीखाने के बाद भी हमारी उन्नति एक गुट तकहि सीमित है; और सामान्य जनता इस उन्नतिसे अछूत है।नेतृत्वके निर्णय समाजपर दीर्घ काल तक फलदायी होते हैं। जो हो गया, सो हो गया। एक युगांतरकारी संधिकाल शायद हमारे सामने है। समस्त भारतको उपर उठाने के लिए गंभीरता से सामुहिक चिंतन की आवश्यकता है। ( न. भा. टा. मे यह टिप्पणी डाली थी,सुधारकर उद्धृत कर रहा हूं।)

  2. द्विवेदी जी ने बहुत अच्छा विषय उठाया है कि हिन्दी सिर्फ लिखने पॄने की ही नहीं नहीं बल्कि आर्थिक पत्रकारिता पचहान भी बने।

    वाकई पिछले कुछ सालों में हिन्दी ने सभी क्षेत्रों में अपनी पहुंच बनाई है और आज अंग्रेजी के अच्छे जानकार भी हिन्दी में ब्लागिंग कर रहे हैं। हमारे देश का दुर्भाग्य रहा है कि (मैं किसी के उपर व्यक्तिगत आक्षेप नहीं कर रहा हूं किन्तु सामान्य बात कहा हूं) हिन्दी का बहुत बड़ा विद्घान अगर अंग्रेजी का सामान्य जानकार भी बन जाता है तो वह चार लोगो के सामने अंग्रेजी में बोलकर अपने आप को बहुत बड़ा विद्वान मानता हैं। इसी के कारण हिन्दी सभी क्षेत्रों में अपनी जगह नहीं बना पाई है।

    हिन्दी के बड़े विद्वानों ने अपनी भूमिका ठीक से नहीं निभाई है। स्कूलों की किताबो को छोड़कर साहित्य के नाम पर हिन्दी में जन सामान्य को पॄने को कुछ मिला ही नहीं। मासिक पत्रिकाओं में किस्से कहानिया, मनोरंजन, नावल, क्रिकेट के अलावा कुछ होता नहीं था। और ब़े विद्वान जो लिखते थे वह महंगी महंगी किताओं (रू 300400 से ज्यादा) में छपता थो जो जन समान्य की खरीद के बाहर होता था। आज लोगो को अगर वास्तविक इतिहास हिन्दी भाषा में मिल रहा है तो वह इन्टरनेट, ब्लागिंग के द्वारा मिल रहा है।

    आज दृष्टिकोण बदल रहा है और हिन्दी एवं अंगे्रजी बोलने वाले मंच पर हिन्दी में बोलकर अपने को गोरवांवित महसूस कर रहे हैं। आज महिलाएं भी सास बहू के सीरियलों से समय निकालकर जी बिजनेस, समाचार, मुद्दा चर्चा, डिस्कवरी चैनल, आदी देख रहीं हैं। बहुत जल्द ही हिन्दी अंग्रजी को कासों पीछ छोड़कर सभी जगह अपनी जगह बना लेगी।

  3. हिन्दी के पत्रकारों को हीन भावना के बजाय यह भावना रखनी चाहिये कि भारत की अंग्रेजी पत्रकारिता को उसकी असली औकात बताना है। हिन्दी के अखबार देश के सभी भागों मे पढ़े जाँय; सभी आयु-वर्ग और सभी बौद्धिक-सतरों के देशवासी उसे सराहें, ऐसी सामग्री (मिश्रित सामग्री) तैयार करनी होगी। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिये आर्थिक समाचार, औद्योगिक समाचार, वैज्ञानिक समाचार, प्रौद्योगिकी समाचार, रोजगार समाचार, शैक्षिक सामग्री आदि का समुचित उपलब्धता सुनिश्चित की जाय।

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