देश में प्रकृति और विकास के बीच संतुलन बनाते हुए ही आर्थिक प्रगति हो

 

कोरोना वायरस महामारी के चलते लगभग 2 माह के लॉक डाउन के बाद भारत सहित विश्व के लगभग 75 प्रतिशत देश अपनी अर्थव्यवस्थाएँ धीरे धीरे खोलते जा रहे हैं। अब आर्थिक गतिविधियाँ पुनः तेज़ी से आगे बढ़ेंगी। परंतु लॉक डाउन के दौरान जब विनिर्माण सहित समस्त प्रकार की आर्थिक गतिविधियाँ बंद रहीं तब हम सभी ने यह पाया कि वायु  प्रदूषण एवं नदियों में प्रदूषण का स्तर बहुत कम हो गया है। देश के कई भागों में तो आसमान इतना साफ़ दृष्टिगोचर हो रहा है कि लगभग 100 किलोमीटर दूर स्थित पहाड़ भी साफ़ दिखाई देने लगे हैं, कई लोगों ने अपनी ज़िंदगी में इतना साफ़ आसमान पहले कभी नहीं देखा था। इसका आश्य तो यही है कि यदि हम आर्थिक गतिविधियों को व्यवस्थित तरीक़े से संचालित करें तो प्रकृति के साथ संतुलन बनाए रखा जा सकता है।   

 

हर देश में सामाजिक और आर्थिक स्थितियाँ भिन्न-भिन्न होती हैं। इन्हीं परिस्थितियों के अनुरूप आर्थिक या पर्यावरण की समस्याओं के समाधान की योजना भी बनती है। आज विश्व में कई ऐसे देश हैं जिनकी ऊर्जा की खपत जीवाश्म ऊर्जा पर निर्भर है। इससे पर्यावरण दूषित होता है। हमारे अपने देश, भारत में भी अभी तक हम ऊर्जा की पूर्ति हेतु आयातित तेल एवं कोयले के उपयोग पर ही निर्भर रहे हैं। कोरोना वायरस महामारी के दौरान हम सभी को एक बहुत बड़ा सबक़ यह भी मिला कि यदि हम इसी प्रकार व्यवसाय जारी रखेंगे तो पूरे विश्व में पर्यावरण की दृष्टि से बहुत बड़ी विपदा आ सकती है।

 

भारत विश्व में भू-भाग की दृष्टि से सांतवा सबसे बड़ा देश है जबकि भारत में, चीन के बाद, सबसे अधिक आबादी निवास करती है। इसके परिणाम स्वरूप भारत में प्रति किलोमीटर अधिक लोग निवास करते हैं और देश में ज़मीन पर बहुत अधिक दबाव है। हमारे देश में विकास के मॉडल को सुधारना होगा। सबसे पहिले तो हमें यह तय करना होगा कि देश के आर्थिक विकास के साथ-साथ प्रकृति के साथ संतुलन बनाए रखना भी अब बहुत ज़रूरी है। यदि हाल ही के समय में केंद्र सरकार द्वारा उठाए गए कुछ क़दमों को छोड़ दें तो अन्यथा पर्यावरण के प्रति हम उदासीन ही रहे हैं। अभी हाल ही में प्रकृति के साथ संतुलन बनाए रखने के उद्देश्य से केंद्र सरकार ने बहुत सारे ऐसे क़दम उठाए गए हैं जिनमें न केवल जन भागीदारी सुनिश्चित करने का प्रयास किया गया है बल्कि इन्हें क़ानूनी रूप से सक्षम बनाए जाने का प्रयास भी किया गया है। जैसे ग्रीन इंडिया की पहल हो, वन संरक्षण के बारे में की गई पहल हो अथवा वॉटर शेड के संरक्षण के लिए उठाए गए क़दम हों। यह इन्हीं क़दमों का नतीजा है कि देश पर जनसंख्या का इतना दबाव होने के बावजूद भी भारत में अभी हाल में वन सम्पदा बढ़ी है और देश में वन जीवन बचा हुआ है।

 

पूर्व में, देश में, कुछ ऐसे निर्णय लिए गए थे, जिनका पर्यावरण पर विपरीत प्रभाव पड़ा है। जैसे 1970 के दशक में यह निर्णय लिया गया था कि भवनों के निर्माण में लकड़ी के इस्तेमाल को कम किया जाय। लकड़ी के स्थान पर लोहे अथवा ऐल्यूमिनीयम के इस्तेमाल को बढ़ावा दिया जाय। दरअसल लकड़ी एक अक्षय संसाधन है और इसको रीसाइकल   किया जा सकता है। इसको बनाने में लोहे की तुलना में बहुत कम ऊर्जा की खपत होती है। इसके अलावा, लकड़ी को कार्बन को नियंत्रित करने के लिए भी इस्तेमाल किया जाता है जिससे पर्यावरण को फ़ायदा पहुँचता है। जबकि दूसरी ओर लोहे अथवा ऐल्यूमिनीयम के निर्माण में अत्यधिक ऊर्जा की खपत होती है जो पर्यावरण पर घातक प्रभाव डालती है। इस प्रकार देश में लकड़ी के उत्पादन को बढ़ावा दिया जाना ही चाहिए ताकि पर्यावरण को सहयोग मिल सके। कृषि वानिकी के रूप में लकड़ी को अधिकतम मात्रा में उगाया जा सकता है जिसे भवनों के निर्माण हेतु उद्योगों को उपलब्ध कराया जा सकता है।

 

अब देश में इमारती लकड़ी के उत्पादन बढ़ाने पर ज़ोर दिया जा रहा है। इसमें इमारती लकड़ी का उत्पादन वनों से बाहर किस प्रकार बढ़ाया जाय, विषय पर भी पर विचार हो रहा है। इसके अंतर्गत अब हमें देश में ख़ाली पड़ी ज़मीन पर पेड़ लगाने होंगे। विकास और पर्यावरण दोनो साथ-साथ चल सकते हैं। विकास के आयाम को ग्रीन दिशा की ओर मोड़ना होगा। जिन उद्योगों में गैसों का उत्सर्जन अधिक हो रहा है उनकी उत्पादन प्रक्रिया को बदलकर ग्रीन करना होगा। इसके लिए बहुत अधिक निवेश की आवश्यकता होगी परंतु यदि देश के पर्यावरण को बचाना है तो यह निवेश करना ही होगा। दो धुरीयों पर यह कार्य चलाना होगा। एक तो वनों का क्षेत्रफल बढ़ाना होगा ताकि वे कार्बन को सोख लें और दूसरे  उद्योगों द्वारा किए जा रहे गैसों के उत्सर्जन को कम करना होगा। इस प्रकार विकास की दिशा को बदलकर उसे ग्रीन पथ पर ले जाया जा सकता है। इसके लिए नवीन तकनीक के उपयोग को बढ़ावा देना भी आवश्यक होगा। देश में वन तितर बितर हो रहे हैं, उन्हें रोकना होगा।

 

देश में अब केंद्र सरकार नवी ऊर्जा के उपयोग को अधिकतम करने के उद्देश्य से कई प्रकार के प्रयास कर रही है। हमारे देश में नवी ऊर्जा के उत्पादन की बहुत अधिक सम्भावनाएँ हैं।  इस प्रकार इस क्षेत्र में बहुत अच्छा काम होने भी लगा है। बड़े ही हर्ष का विषय है कि अभी हाल में केंद्र सरकार द्वारा सौर ऊर्जा निर्माण हेतु की गई नीलामियों में सौर ऊर्जा के दाम घटकर 2.75 रुपए प्रति यूनिट के आस पास आ गए हैं। यदि इसमें हस्तांतरण लागत भी जोड़ दिया जाय तो भी यह कोयला पर आधारित उत्पादन इकाई द्वारा उत्पादित ऊर्जा की प्रति यूनिट लागत से बहुत ही कम पड़ती हैं। अतः सौर ऊर्जा न केवल ग्रीन ऊर्जा है बल्कि इसकी लागत भी तुलनात्मक रूप से बहुत कम है। अतः देश में सौर ऊर्जा के अधिक से अधिक उत्पादन को प्रोत्साहन देना ही होगा। हालाँकि देश इस देश में बहुत तेज़ी से आगे बढ़ रहा है। अक्षय ऊर्जा के क्षेत्र में हमारे देश में हाल ही में क्रांति हुई है। भारतीय रेल्वे ने अक्षय ऊर्जा को अपना लिया है। कुछ वर्षों पूर्व तक देश में कुल ऊर्जा के उत्पादन में थर्मल पावर का योगदान 80/90 प्रतिशत तक था। परंतु अब कोयला उपयोग आधारिक इकाईयों का योगदान घटकर क़रीब 60 प्रतिशत हो गया है। हाइड्रो पावर एवं सोलर आधारित पावर प्लांट आ गए है। इस क्षेत्र में काम तो बहुत तेज़ी से हो रहा है। अभी हाल ही में इस क्षेत्र में काफ़ी क़दम उठाए गए हैं। पिछले 10 वर्षों में नवी ऊर्जा के उत्पादन के क्षेत्र में हम क़रीब 10 गुना आगे बढ़े हैं।

 

देश में यातायात सुविधाएँ एवं विमानन उद्योग भी लगभग पूरी तरह तेल के उपयोग पर ही निर्भर है, जिससे गैसों का उत्सर्जन बहुत भारी मात्रा में होता है। अभी तो तुरंत में तेल को बदलकर किसी और ऊर्जा का उपयोग करने का उपाय नहीं है। अक्षय ऊर्जा का उपयोग इस क्षेत्र में अभी बहुत बड़ी मात्रा में नहीं हो पा रहा है, चूँकि अभी यह व्यावसायिक रूप से व्यवहार्य नहीं है। परंतु, हमें जैव ईंधन के उपयोग को ज़रूर तुरंत ही बढ़ाना होगा।

हमारे देश में कृषि क्षेत्र में पानी का उपयोग बहुत अधिक होता है। विशेष रूप से गन्ना, धान एवं गेहूँ के उत्पादन में पानी की प्रति टन खपत बहुत ज़्यादा है। कृषि क्षेत्र में पानी की इस खपत को कम करके भी पर्यावरण की रक्षा की जा सकती है। उद्योगों में भी पानी बहुत बेकार होता है। विभिन उद्योगों के उत्पादन को रीसाइकल किया जा सकता है एवं इससे भी 25 से 30 प्रतिशत ऊर्जा बचाई जा सकती है। कुल मिलाकर विभिन्न संसाधनों की न केवल लागत घटानी होगी बल्कि इनका उपयोग भी दक्षता से करना होगा। कुल मिलाकर बदलाव की यह ब्यार हमारे सोच में भी लानी होगी।

 विकास एवं प्रकृति के बीच संतुलन बिठाने के लिए देश के नागरिकों की भूमिका बहुत अहम होने वाली है। सरकार की नीतियों के साथ साथ लोगों की मानसिकता को बदलना भी बहुत ज़रूरी हैं। जैसे यातायात के साधनों में नागरिकों द्वारा पब्लिक ट्रांसपोर्ट के उपयोग को बढ़ाया जा सकता है। देश में यदि सामाजिक यातायात की सुविधाएँ ठीक तरीक़े से उपलब्ध होने लगें तो शायद नागरिक ज़रूर इस ओर आकर्षित होंगें। देश के नागरिकों को अब इस ओर ध्यान देना होगा कि किस प्रकार पर्यावरण की रक्षा करें, जल का संरक्षण करें, ऊर्जा का उपयोग कम करें, आवश्यकता से अधिक संसाधनों का उपयोग नहीं करें, जीवन शैली में बदलाव लाएँ, कई ज़रूरतें ग़ैर ज़रूरी हैं उन्हें कम करें। ताकि अंततः विकास और प्रकृति के बीच संतुलन बिठाया जा सके।

 

ग्रीन विकास के लिए नई तकनीक का उपयोग तो बढ़ाना ही होगा। परंतु, साथ ही देश के ग्रामीण इलाक़ों में लघु एवं कुटीर उद्योगों की स्थापना को भी प्रोत्साहन देना होगा ताकि रोज़गार के अवसर इन्हीं इलाक़ों में निर्मित हो सकें एवं ग्रामीण इलाक़ों से लोगों के शहरों की ओर पलायन को रोका जा सके। ग्रामीण इलाक़ों में लघु एवं कुटीर उद्योंगों द्वारा निर्मित उत्पादों की खपत भी इन्हीं क्षेत्रों में सुनिश्चित करनी होगी ताकि इन उत्पादों के लिए स्थानीय स्तर पर ही बाज़ार विकसित किये जा सकें। इसके लिए 50-60 गावों के समूह निर्मित किये जा सकते हैं, जहाँ इन लघु एवं कुटीर उद्योगों द्वारा निर्मित उत्पादों की बिक्री की जा सके।

 

 

प्रह्लाद सबनानी

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