कार्पोरेट के लिए नहीं बल्कि जनता के लिए आर्थिक सुधारों की जरूरत

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                             शिवाजी सरकार

साल 2019 आशा का संदेश लेकर आया है, लेकिन आगे का रास्ता स्पष्ट नहीं है। अर्थव्यवस्था को नया रास्ता, पुनर्जीवन और जनोन्मुखी नीतियों की जरूरत है। 

यह पुनर्विचार का समय है। ‘मनमोहनॉमिक्स’- उदारीकरण की मनमोहन सिंह की नीति- ने सरकारों को असफल साबित किया है, इससे जनता का भला भी नहीं हो सका। मनमोहनॉमिक्स को अपनाने वाली  भारतीय जनता पार्टी अब सोचने को विवश है कि कहीं वह रास्ता तो नहीं भटक गई है। दूसरी ओर, आर्थिक नीतियों को लेकर कांग्रेस कोई राय ही नहीं बना पा रही है।   

दरअसल, कोई भी राजनीतिक दल नई आर्थिक दृष्टि देने में सक्षम  नहीं है, न ही किसी के पास अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने की कोई योजना है। टीएमसी, टीडीपी, बीएसपी, एसपी जैसे क्षेत्रीय दल हों या वामदल- ये सभी सिर्फ अपने अस्तित्व की लड़ाई में व्यस्त हैं। किसी के पास कोई आर्थिक विचारधारा नहीं रह गई है।   

कोई भी दल जनता और किसानों के लिए किसी योजना के साथ सामने नहीं आ रहा है। उनके पास उत्पादन और क्रयक्षमता बढ़ाने, रुपया को मजबूत करने और जब पेट्रोल की अंतर्राष्ट्रीय कीमतें कम हो रही हों तो पेट्रोल के दाम को कम करने को लेकर कोई कार्यक्रम नहीं है।  देश के लोगों में इस स्थिति को लेकर असमंजस का माहौल है। 

जनता को नहीं मालूम कि आखिर किसानों की बदहाली को दूर करने के लिए कौन पहल करेगा। उन्हें यह भी जानकारी नहीं है कि बैंकिंग सिस्टम को बर्बाद कर देने वाले और इस वजह से कीमतों में होने वाली बढ़ोतरी के जिम्मेदार कॉरपोरेट के दखल को कैसे कम किया जाए।

शिक्षा रोज-ब-रोज महंगी होती जा रही है। इस कारण, युवाओं में अनिश्चितता और गंभीर नकारात्मकता पैदा हो रही है। नौकरियां उनसे दूर भाग रही हैं। शिक्षा व्यवस्था को साफ-सुथरा करने के लिए कोई ठोस योजना नहीं है। 

बढ़ते कोचिंग-ट्यूशन शुल्क और निजी विश्वविद्यालयों द्वारा आर्थिक तौर पर विद्यार्थियों को निचोड़ लेना स्वाभाविक प्रक्रिया बन गई है।

 कुछ विश्वविद्यालय या संस्थान विद्यार्थियों पर अनुचित आर्थिक दंड लगाते हैं, जो कई बार तो कुल ट्यूशन शुल्क का कम से कम आधा होता है।      

आगामी लोकसभा चुनाव के पहले सिर्फ अंतरिम बजट लाया जाएगा। लोगों को आंकड़े तो मालूम हो सकते हैं, लेकिन उन्हें यह पता नहीं होगा कि ये आंकड़े किस तरह लागू किए जाएंगे।

देशवासी इस ऊहापोह में हैं कि अर्थव्यवस्था को मुक्त किया जा रहा है या यह सरकार के नियंत्रण में है, जैसा कि आरबीआई के नए गर्वनर शक्तिकांत दास मानते हैं। लोग यह नहीं समझ पा रहे हैं कि सरकार को आरबीआई की परिसंपत्तियों में से हिस्सा लेने की जरूरत क्यों पड़ गई। जबकि, आरबीआई के रिजर्व धन पर किसी भी सरकार का कोई हक नहीं है।  

अब लोग यह सवाल करने लगे हैं कि बैंकों से सरकार को कोई लाभांश क्यों लेना चाहिए, जबकि सरकार तो बैंकों में जमा जनता के पैसे की महज चौकीदार है। एक अच्छे बैंकिंग सिस्टम में आय का निवेश जमाकर्ताओं को लाभ पहुंचाने के इरादे से होना चाहिए, यह पैसा किसी और को नहीं दिया जाना चाहिए। 

जीएसटी को घटाए जाने के बावजूद टैक्स की दरें अभी भी ज्यादा हैं। कम आय वाले नौकरीपेशा लोगों और छोटे व्यवसायियों से भी टैक्स लिया जा रहा है। टैक्स की ऊंची दरें और ‘टैक्स टेरर’ यानी टैक्स के आतंक से आर्थिक गतिविधियों में गतिरोध बना हुआ है।

यह भी पूछा जाने लगा है कि मूर्तियों के लिए धन उपलब्ध कराना कॉरपोरेट के सामाजिक दायित्व के अंतर्गत कैसे आता है। एक ओर पेट्रोल की कीमतें और टैक्स बढ़ाई जा रही हैं, तो दूसरी ओर तेल कंपनियों का मुनाफा जबर्दस्त तरीके से बढ़ रहा है। तेल कंपनियां उन गतिविधियों के लिए कैसे पैसा दे रही हैं, जो न तो व्यापार से जुड़ा है और न ही किसी सामाजिक हित से ? 

कुलमिलाकर, जीवन स्तर में गिरावट आ रही है। सितंबर 2018 में किए गए एक ‘गैलप सर्वे’ यानी जनमत निर्धारित करने के लिए किए जाने वाले मतदान के मुताबिक, देश भर में भारतीयों के वर्तमान जीवन की रेटिंग पिछले कुछ समय की तुलना में सबसे खराब है। 0 से 10 के पैमाने पर 2014 में 4.4 के मुकाबले यह साल 2017 में 4.0 पर थी।

गैलप सर्वे के मुताबिक अपने जीवनस्तर को बेहतर मानने वाले भारतीयों के प्रतिशत में भी गिरावट आई है। साल 2014 में 14 प्रतिशत के मुकाबले साल 2017 में सिर्फ 3 प्रतिशत भारतीय ही अपने को समृद्ध मानते हैं। अर्धकुशल मजदूरों का वेतन जहां 2014 में 13300 रुपये प्रति माह था, वहीं वर्ष 2018 में यह घटकर 10300 रुपये रह गया।  

ग्रामीण इलाकों में भी खाद्य सामग्रियां महंगी हुई हैं। गैलप सर्वे कहता है, “साल 2015 की शुरुआत में ही देश के ग्रामीण इलाकों में लोगों को खाद्य सामग्रियां खरीदने में कठिनाई होने लगी।” बताया गया कि 28 प्रतिशत से ज्यादा ग्रामीण लोगों के पास 2015 में कई मौकों पर भोजन के लिए पर्याप्त पैसे नहीं थे। 18 प्रतिशत शहरी लोगों को भी ऐसी ही समस्या का सामना करना पड़ा। यह स्थिति हर साल बदतर होती गई। ग्रामीण इलाके के 41 प्रतिशत लोगों और शहरी इलाकों के 26 प्रतिशत लोगों ने माना कि साल 2017 में भोजन का खर्च उठाने में वे असमर्थ रहे।      

गैलप सर्वे ने ग्रामीण इलाकों में व्याप्त बेचैनी को स्वीकार किया है। किसानों की आत्महत्या निरंतर जारी है। कर्जमाफी के बावजूद कर्ज का स्तर अभी भी बहुत ज्यादा है। किसानों को उनकी फसल का उचित मूल्य दिए जाने के लिए किसी भी व्यवस्था को विकसित नहीं किया गया है। एमएसपी और वास्तविक कीमतों के बीच अंतर, जिसे मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में ‘भावांतर’ कहा जा रहा था, की स्थिति में किसानों की शिकायतें कम नहीं हो पा रही हैं।    

नोटबंदी के बाद नकदी की किल्लत ने गंभीर असंतोष पैदा किया। लेकिन, आधिकारिक रूप से विकास होता हुआ दिख रहा है। विश्व मुद्रा कोष के ‘वर्ल्ड इकोनॉमिक आउटलुक’ ने भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर के साल 2017 के 6.7 प्रतिशत के मुकाबले 2018 और 2019 में क्रमशः 7.3 प्रतिशत और 7.4 प्रतिशत रहने की उम्मीद जतायी है। दूसरी ओर, चीन की अर्थव्यवस्था की विकास दर के 2018 में 6.6 और 2019 में 6.2 प्रतिशत रहने की उम्मीद जतायी गई है, जो साल 2017 में 6.9 प्रतिशत थी। लेकिन, यह भी सत्य है कि चीन की अर्थव्यवस्था भारत की अर्थव्यवस्था की तुलना में कई गुना ज्यादा बड़ी है।     

लोकसभा चुनाव का परिणाम कुछ भी हो, नए साल में देश के परिदृश्य में ज्यादा बदलाव होने की संभावना नहीं दिखती है। देश इस उलझन की स्थिति से बाहर निकलने का रास्ता तलाश रहा है। क्या 2019 में लोकसभा चुनाव के पहले या बाद में देश उस सुनहरे रास्ते को ढूंढ पाएगा? दरअसल, यह आसान नहीं है। अफगानिस्तान और सीरिया से अमेरिका की वापसी नई चुनौतियों को जन्म देगी।       

देश को वाकपटुता की नहीं, बल्कि एक राजनीतिक-सामाजिक दृष्टि की जरूरत है। दरअसल, नए जमाने के किसी भी दल के राजनेताओं में हालात से निपटने की बुद्धिमत्ता और कुशलता नहीं है। हाल ही में संपन्न हुए विधानसभा चुनावों में बड़ी संख्या में पड़े‘नोटा’ वोटों ने नेताओं के प्रति जनता के असंतोष को जाहिर किया है। नोटा को वोट देने वाले मतदाता या तो किसी दल को पसंद नहीं करते हैं या वे मानते हैं कि सभी दल समान रूप से देश की समस्याओं से निपटने में अक्षम हैं।    

राजनीतिक पटल पर दूरदर्शिता का अभाव दुर्भाग्यपूर्ण है। अगर लोगों का झुकाव किसी विपक्षी गठबंधन की ओर हो रहा है तो यह किसी पार्टी की विशेषता को नहीं बल्कि विकल्पहीनता को दर्शाता है।     

लोगों को पसंद आने वाले वैचारिक रूप से समृद्ध किसी विकल्प का अभाव है।

यह एक महत्वपूर्ण मुद्दा है। चुनावों में अभी भी दो महीने से ज्यादा का वक्त बचा है। क्या इस अवधि में कोई बदलाव संभव है ?लेकिन, अगर 2014 के घोषणापत्रों पर गौर किया जाए,तो ऐसा लगता है कि इनका कोई अर्थ नहीं है और ये सिर्फ ‘जुमले’ हैं। घोषणापत्र में किए गए वादों पर अमल नहीं किया गया। आर्थिक सुधार जनता नहीं बल्कि कार्पोरेट को ध्यान में रखकर किए गए।         

इसे विडंबना ही कहेंगे कि निरंतर आर्थिक सुधारों और ‘मेक इन इंडिया’ के नारों के बीच देश के बाजार विदेशी सामानों से अटे पड़े हैं। इसके साथ ही, व्यापार घाटा बढ़ रहा है और नौकरियों में लगातार कमी आ रही है। सरकारी खर्चों में बढ़ोतरी के बावजूद आर्थिक तंत्र में आत्मविश्वास की कमी देखी जा रही है।   

‘नीति आयोग’ के पहले अस्तित्व मे रहे ‘योजना आयोग’ का तो अपना एक निश्चित रास्ता था, लेकिन ऐसा लगता है कि नीति आयोग अभी भी स्थितियों से पार पाने के लिए रास्ता तलाशने में ही जुटा है। फिलहाल, अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने का तरीका शायद ही किसी को मालूम हो। 

कहते हैं, उम्मीद पर दुनिया कायम है। भारतीय राजनीति में 2019 एक ऐतिहासिक साल साबित हो सकता है, और कौन जानता है कि निराश करने वाले हालात से ही कोई नया नेतृत्व और नई दृष्टि उभरकर सामने आ जाए। 

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