शिक्षा की दर को बढ़ाने की कवायद

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शिक्षा
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-ललित गर्ग –
इस वर्ष स्वतंत्रता दिवस की 75वीं वर्षगांठ को भारत सरकार ’आजादी का अमृत महोत्सव’ के तौर पर मना रही है। एक नये आजादी के परिवेश में आगेे बढ़ते हुए हमें शिक्षा के स्तर एवं शिक्षा की दर को बढ़ाने की आवश्यकता है। क्योंकि आज भी भारत में हर चैथा बच्चा स्कूली शिक्षा से वंचित है। जब हमें आजादी मिली उस समय 19 फीसदी आबादी साक्षर थी। आजादी के 75 साल बाद, साक्षर आबादी का आंकड़ा अस्सी फीसदी तक पहुंच गया हैं, लेकिन बीस प्रतिशत आबादी यानी लगभग 25 करोड़ अभी भी साक्षर नहीं है। देश में शिक्षा की दर बढ़ाने का अंतरराष्ट्रीय दबाव लगातार बना रहता है, जिसके लिये सरकारें समय-समय पर कुछ प्रोत्साहन योजनाएं भी घोषित करती रहती हैं। फिर भी उनसे अपेक्षित परिणाम नहीं निकल पा रहे, तो निश्चित रूप से इसमें नीति एवं नियत में कुछ बुनियादी खामियां हैं।
पचहतर सालों में शिक्षा का शत-प्रतिशत आंकडा प्राप्त न करना शासन की नाकामी है। क्योंकि राजनीति करने वाले एवं सत्ता पर काबिज होने वाले सामाजिक उत्थान यानी शिक्षा एवं चिकित्सा के लिए काम नहीं करते बल्कि उनके सामने बहुत संकीर्ण मंजिल है, ”वोटों की“। ऐसी रणनीति अपनानी, जो उन्हें बार-बार सत्ता दिलवा सके, ही सर्वोपरि है। वोट की राजनीति और सही रूप में शिक्षा एवं चिकित्सा की नीति, दोनों विपरीत ध्रुव हैं। एक राष्ट्र को जोड़ती है, शक्तिशाली बनाती है, दूसरी विघटित एवं कमजोर करती है। अपनी सब नाकामयाबियों, बुराइयों, कमियों को व्यवस्था प्रणाली की बुराइयां, कमजोरियां बताकर पल्ला झाड़ लो और साफ बच निकलो। सच तो यह है कि बुराई लोकतांत्रिक व्यवस्था में नहीं, बुरी तो राजनीतिक प्रणाली एवं सोच हैं।
लम्बे समय बाद देश में सकारात्मक बदलाव आ रहे हैं, इसी दिशा में एक अनूठी पहल है नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति का घोषित होना। नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति स्वतंत्रता के 100 साल पूरे होने तक यानी 25 वर्ष में कुछ लक्ष्यों को प्राप्त करने का रोडमैप है।
भले ही खुद केंद्रीय शिक्षामंत्री धर्मेन्द्र प्रधान ने माना है कि देश के करीब पंद्रह करोड़ बच्चे और युवा औपचारिक शिक्षा से वंचित है। करीब पच्चीस करोड़ आबादी अब भी साक्षर नहीं हो पाई है। यह स्थिति तब है, जब शिक्षा का अधिकार कानून को लागू हुए ग्यारह साल हो चुके हैं। इस कानून के तहत चैदह साल तक की उम्र के सभी बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा देने का वादा है।
अनिवार्य शिक्षा का तात्पर्य है कि सभी बच्चों को औपचारिक स्कूलों में दाखिला दिलाया जाए। यह दायित्व सरकारी, निजी और सभी धर्मादा संस्थाओं के तहत चलने वाले स्कूलों पर डाला गया है कि वे इस कानून के तह बच्चों को शिक्षा प्रदान करें। केन्द्र सरकार एवं राज्य सरकारें इसके लिये प्रयास कर रही हैं, लेकिन उनके प्रयासों में कमी है। यह व्यवस्थागत खामियों का ही नतीजा कहा जा सकता है। भारतीय शिक्षा व्यवस्था में निजी शिक्षण संस्थाओं का वर्चस्व बढ़ता जा रहा है, शिक्षा उनके लिये व्यवसाय है, मिशन नहीं। महंगी होती शिक्षा भी हर नागरिक को साक्षर बनाने एवं शिक्षा की दर की गिरावट का बड़ा कारण है। यों बहुत सारे मां-बाप गरीबी की वजह से अपने बच्चों को स्कूल नहीं भेज पाते, कम उम्र में ही वे उनको किसी कामकाज में लगा देते हैं। इससे पार पाने के मकसद से स्कूलों में दोपहर का भोजन योजना शुरू की गई थी, ताकि बच्चों को पढ़ाई की जगह भोजन के लिए न भटकना पड़े। इसके पीछे उन्हें उचित पोषण उपलब्ध कराने की मंशा भी थी। कई राज्य सरकारों ने ऐसे बच्चों को पढ़ाई के प्रति प्रेरित करने के उद्देश्य से कुछ नकदी देने की योजना भी चला रखी है। लेकिन इन सब प्रयोगों, प्रयासों एवं योजनाओं में भ्रष्टाचार बड़ी बाधा है।
आखिर क्या वजह है कि तमाम सरकारी सुविधाएं मुहैया कराने के बावजूद गरीब परिवार अपने बच्चों को स्कूल नहीं भेज पा रहे हंै, इन स्थितियों एवं कारणों पर गंभीरता से विचार करने एवं कठोर कदम उठाने की अपेक्षा है। इसमें केवल भूख उनकी समस्या नहीं है। सरकारी स्कूलों की कमी, उनमें संसाधनों का अभाव और जाति के आधार पर भेदभाव जैसी समस्याएं जड़ जमाएं बैठी हैं। आबादी के अनुपात में अब भी पर्याप्त सरकारी स्कूल नहीं हैं। जो स्कूल हैं भी, उनमें अध्यापकों की भर्ती सालों से नहीं हो पाई है। ठेके या अस्थायी तौर पर अध्यापक रखकर काम चलाया जाता है। जो अध्यापक हैं, वे स्कूलों में कम ही उपस्थित रहते हैं। कई जगह एक ही अध्यापक सभी कक्षाओं के बच्चों को संभालता पाया जाता है। इन विसंगतिपूर्ण स्थितियों में कैसे हम शिक्षा की दर को बढ़ा पायेंगे?
आजादी का अमृत महोत्सव मनाते हुए हमें यह भलीभांति समझना होगा कि मनुष्य की मानसिक शक्ति के विस्तार हेतु शिक्षा एक अनिवार्य प्रक्रिया है। स्त्री हो या पुरुष, किसी को भी शिक्षा से वंचित रखना उसकी मानसिक क्षमता विकसित होने से रोक देना है। पूर्ण व सुचारू शिक्षा ना मिलने से महिला या पुरुष बाहर के उत्तरदायित्वपूर्ण कार्यों का भार उठाने में असमर्थ होते हैं। शिक्षा के माध्यम से अर्जित किए गए ज्ञान, कौशल और जीवन के मूल्यों के बल पर लोग समाज में परिवर्तन ला सकते हैं। इससे आने वाली पीढ़ियों का पथ प्रदर्शन प्रभावशाली ढंग से किया जा सकता है।
 शिक्षित बच्चे एवं संपूर्ण पीढ़ी ही किसी भी राष्ट्र के भावी जीवन की आधारशिला होती हैं मगर ध्यान रहे, विवेकहीन शिक्षा और ज्ञान मनुष्य को पतन की ओर अग्रसर करती है। अतः जब हम विवेकपूर्ण व मानवीय मूल्यों से युक्त शिक्षा की बात करके अपने समाज पर दृष्टि डालते हैं, तो केवल साक्षर ही असहायों के दुःख-दर्द को महसूस कर यथा सामथ्र्य उनका निदान करते हैं। वहीं, समाज के संभ्रांत लोग उच्च शिक्षित डिग्री से उपाधित होकर भी अपनी आंखें मूंदकर चलते हैं। परमार्थ तो दूर की बात, वे अपने व्यंगपूर्ण तिरस्कृत शब्दों से पीड़ितांे, अभावग्रस्तों की पीड़ा को बढ़ाने का काम करते हैं। एक संकल्प लाखों संकल्पों का उजाला बांट सकता है यदि दृढ़-संकल्प लेने का साहसिक प्रयत्न कोई शुरु करे। शिक्षा जैसी बुनियादी अपेक्षा के अंधेरों, अवरोधों एवं अक्षमताओं से संघर्ष करने की एक सार्थक मुहिम आजादी के अमृत महोत्सव मनाते हुए प्रारंभ हो, यह अपेक्षित है।
हम महसूस कर रहे हैं कि निराशाओं के बीच आशाओं के दीप जलने लगे हैं, यह शुभ संकेत प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सरकार लगातार दे रही हैं। एक नई सभ्यता और एक नई संस्कृति को आकार देने के लिये शिक्षा की दर को शत-प्रतिशत करना हमारी प्राथमिकता होनी ही चाहिए। शिक्षा ही वह माध्यम है जिससे नये राजनीतिक मूल्यों, नये विचारों, नये इंसानी रिश्तों, नये सामाजिक संगठनों, नये रीति-रिवाजों और नयी जिंदगी को आकार दिया जा सकेगा। इसी से राष्ट्रीय चरित्र बनेगा, राष्ट्र सशक्त होगा।

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