राम रूप सर्वत्र समाना। देखत रहत सदा हर्षाना।।
विधि शारदा सहित दिनराती। गावत कपि के गुन बहु भाँति।।
प्रभु श्रीराम के कृतित्व हेतु हनुमान जी का जो महत्त्व था वही महत्त्व स्वामी विवेकानंद के कृतित्व को प्रस्तुत करने हेतु एकनाथ जी रानाडे का रहा है. यद्दपि भगवान् श्रीराम व राम भक्त हनुमान जी समकालिक रहे हैं व एकनाथ जी का जन्म ही स्वामी विवेकानंद जी की मृत्यु के बारह वर्षों पश्चात हुआ था, तथापि, यह अकाट्य सत्य है कि जिस भांति भक्त हनुमान के बिना श्रीराम को सिद्ध नहीं किया जा सकता उसी भांति एकनाथ जी रानाडे के बिना स्वामी विवेकानंद जी को सिद्ध नहीं किया जा सकता. श्रीराम भक्त हनुमान से एकनाथ जी की तुलना का एक कारण यह भी है कि इन दोनों के ही जीवन के सर्वश्रेष्ठ कृतित्व का केंद्र सुदूर दक्षिण भारत स्थित समुद्र तट ही रहा. इस समुद्र तट पर जहां श्रीराम भक्त हनुमान ने समुद्र पार कर माँ सीता को श्रीराम की अंगूठी दिखाकर आश्वस्त किया और फिर रामसेतु बनाया वहीं एकनाथ जी रानाडे ने इसी समुद्र के मध्य विवेकानंद शिला के असंभव कार्य को संभव करके स्वामी विवेकानंद के विचार, कृतित्व, व जीवन चरित्र को विश्व के सम्मुख प्रस्तुत किया.
यूं तो एकनाथ जी ने विवेकानंद स्मारक का भौतिक, स्थूल व साकार निर्माण कार्य कराया है किंतु जो लोग विवेकानंद शिला पर गयें हैं व वहां जाकर जिन्होंने कुछ समय ध्यान लगाया है केवल वे ही व्यक्त कर सकते हैं कि इस विशालकाय स्थूल निर्माण की पृष्ठभूमि में आध्यात्मिकता का सम्पूर्ण समुद्र अपनी लहरों से ध्यानस्थ व्यक्ति को स्वर्गिक अनुभव करा देता है.
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के समर्पित, मूर्धन्य, एकनिष्ठ व श्रमसाध्य कार्यकर्ता एकनाथ जी का जन्म 19 नवम्बर 1914 को महाराष्ट्र के अमरावती में हुआ व वे बाद में पढ़ाई हेतु नागपुर आ गए थे. योगायोग ही था कि नागपुर में विवेकानंद के इस हनुमान का राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की शाखाओं में नियमित जाना होता रहा और वे प.पू. प्रथम संघचालक डा. हेडगेवार जी के सतत संपर्क में रहने लगे. बाद में वे संघ के प्रचारक बने व महाकौशल, छत्तीसगढ़, दिल्ली व पंजाब के प्रान्तों में कार्य किया. प. नेहरु द्वारा संघ पर लगाये गए प्रतिबंध के विरोध में संघ के सत्याग्रह का, भूमिगत रहते हुए, सबल विरोध एकनाथ जी ने किया था. संघ ने कोलकाता में “वास्तुहारा सहायता समिति” की स्थापना की थी जो कि पूर्वी पाकिस्तान से निर्वासित हिंदू बंधुओं के पुनर्वास का कार्य देखती थी, एकनाथ जी इस समिति के भी प्रमुख रहे.
विवेकानंद जन्म शताब्दी के समय प्रसिद्ध समाजसेवी श्री मन्नथ पद्मनाभन के नेतृत्व में केरल में बैठक हुई व “विवेकानन्द रॉक मेमोरियल समिति” की स्थापना की गई. आज तमिलनाडु के कन्याकुमारी स्थित जिस स्वामी विवेकानन्द शिला स्मारक को हम देखकर, स्पर्श करके, वहां ध्यान करके गौरान्वित होते हैं वह एकनाथ जी रानाडे के पुरुषार्थ का ही प्रतिफल है. 1892 में स्वामी विवेकानंद कन्याकुमारी आए थे तब उन्होंने एक दिन न जाने किस तरह विचारमग्नता व तन्मयता की स्थिति में समुद्र में डुबकी मार दी व तैरते हुए इस विशाल शिला पर पहुंच गए जिसे आज हम विवेकानंद शिला के नाम से जानते हैं. विवेकानंद रॉक मेमोरियल बनाने का काम स्वामी विवेकानंद की जन्मशती के अवसर पर 1963 में प्रारंभ हुआ था. लगभग सात वर्षों में तीस लाख लोगों के प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष योगदान से यह स्मारक आज स्वामी विवेकानंद के विचारों को दिग्दिगंत तक विस्तारित कर रहा है. स्वामी विवेकानंद जी के आध्यात्म, राष्ट्रवाद व मानवता से ओत प्रोत विचारों को साकार रूप देने के लिए 1970 में इस विशाल शिला पर एक भव्य स्मृति भवन का निर्माण किया गया था. इन चट्टानों पर स्वामी विवेकानन्द ने तीन दिनों तक ध्यानस्थ होकर साधना की थी और वहीं पर उनका सत्य से साक्षात्कार हुआ व उन्हें बोधज्ञान प्राप्त हुआ था. जब श्री पद्मनाभन ने इस समुद्र मध्य की इस चट्टान पर स्मारक के निर्माण हेतु संघ से सहयोग मांगा तब पू. गुरुजी ने इस भागीरथी कार्य हेतु भागीरथ जैसी ही संकल्पशक्ति वाले व्यक्तित्व एकनाथ जी रानडे को इस कार्य हेतु मनोनीत किया. एकनाथ जी की यह नियुक्ति उनकी अनथक कार्यशैली, उनके विस्तृत संपर्क व स्मारक निर्माण के मार्ग में आ रही विशाल बाधाओं के कारण किया गया था. जब विवेकानंद स्मारक निर्माण का प्रस्ताव देश भर में चर्चित हुआ तब ईसाई समुदाय ने इसका विरोध किया व इस कारण से स्थानीय प्रदेश सरकार भी इस स्मारक के विरोध में आ गई थी. इन सब विकराल अवरोधों, समस्याओं व विपरीत परिस्थितियों के पश्चात भी असंभव शब्द के अस्तित्व को ही नकारने वाले रानाडे जी अपने लक्ष्य के प्रति एकनिष्ठ रहे व स्मारक निर्माण के लिए प्रचण्ड धनराशि एकत्र की और स्वामी विवेकानन्द राष्ट्रीय स्मारक का स्वप्न साकार किया. प्रथमतः इस स्मारक हेतु केवल स्वामी विवेकानंद जी की प्रतिमा लगाने का विचार था व इस हेतु अपेक्षित राशि छः लाख रूपये मानी गई थी व इस छः लाख को एकत्रित करना भी बहुत बड़ा कार्य माना जा रहा था. एकनाथ जी ने जब इस निर्माण प्रकल्प को अपने हाथों में लिया तब वे इस बड़े काम से भी संतुष्ट नहीं हुए व उन्हें यह योजना स्वामी विवेकानंद के विचारों व व्यक्तित्व से छोटी व कमतर लगी फलस्वरूप उन्होंने उसे लगभग 20 गुना विस्तार दिया. रानाडे जी ने प्रतिमा स्थापना के साथ साथ विशाल, दिव्य, भव्य व आकर्षक भवनों के निर्माण की योजना भी बनाई व नया बजट बना एक करोड़ बीस लाख रूपये का. उस समय इस कार्य हेतु इतने बड़े बजट को अकल्पनीय व असम्भव कहा गया था. एकनाथ जी ने लाखों लोगों से एक-एक रूपये का सहयोग प्राप्त करके इस स्मारक के निर्माण को संभव बनाया था. रानाडे जी ने इस विशालतम स्मारक निर्माण के हो रहे विरोध के दृष्टिगत बड़ी ही कुशाग्रता से 323 सांसदों के हस्ताक्षर इस स्मारक के पक्ष में करा लिए थे. आश्चर्य की बात यह थी कि इस स्मारक के पक्ष में उन्होंने अपने घोर विरोधियों अर्थात वामपंथियों से भी हस्ताक्षर करवा लिए थे. एकनाथ जी ने इसे केवल ईंट पत्थरों व चट्टानों के एक निर्माण भर का स्वरूप नहीं दिया अपितु उनके प्रयासों से यह स्मारक विश्व भर में आध्यात्मिक चिति, भारतीयता की पहचान, भारतीय युवाओं की वैश्विक छवि व हिंदुत्व की पताका के रूप में स्थापित हो गया. 1972 में उन्होंने देश भर में विवेकानंद केंद्रों की योजना बनाई. आज देश भर में लगभग 20 राज्यों में 200 से अधिक विवेकानंद केंद्र व इसकी शाखाएं स्वामी विवेकानंद के विचारों, संदेश व कृतित्व को जन-जन के समक्ष प्रस्तुत कर रहे हैं. विवेकानंद केंद्रों का यह कार्य 200 से अधिक पूर्णकालिक कार्यकर्ता अर्थात जीवन व्रती कार्यकर्ताओं द्वारा संचालित हो रहा है.
22 अगस्त 1980 को ये अद्भुत स्वप्नदृष्टा, कर्मवीर इस धरा से अपनी विस्तृत जीवन यात्रा समाप्त कर गए. एकनाथ जी रानाडे तो इस नश्वर संसार में नहीं रहे किंतु उनके द्वारा निर्मित कन्याकुमारी की विवेकानंद शिला, विवेकानंद केंद्रों की विस्तृत श्रंखला व विवेकानंद केंद्रों के द्वारा देश भर में संचालित सैकड़ों सेवा प्रकल्प एकनाथ जी को सदैव अनश्वर, अमर, अविस्मर्णीय व अनुकरणीय बनाते रहेंगे. नमन स्वामी विवेकानंद के इस प्रचंड, प्रखर किंतु प्रबुद्ध विचार संवाहक एकनाथ जी रानाडे को !!