चुनावी आरक्षण

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-अनिल अनूप 
भारत में गरीब ब्राह्मण, गरीब बनिया-व्यापारी, गरीब कायस्थ, गरीब क्षत्रिय और गरीब कापू, कम्मा सरीखे अगड़े समुदायों को आरक्षण मिलेगा या नहीं, इसके दो आयाम हो सकते हैं। क्या सवर्ण आरक्षण संविधान संशोधन बिल संसद के दोनों सदनों के अलावा 15 राज्यों की विधानसभा से भी पारित हो सकेगा? संविधान संशोधन के लिए दो-तिहाई बहुमत की दरकार है। लोकसभा में एनडीए के पक्ष में करीब 59 फीसदी सांसद हैं। यदि कांग्रेस, एनसीपी, आप अपनी घोषणाओं के मुताबिक बिल का समर्थन करती हैं, तो करीब 11 फीसदी सांसद उनके हैं, लेकिन राज्यसभा में एनडीए के सांसद करीब 36 फीसदी हैं और 23 फीसदी कांग्रेस, एनसीपी, आप के हैं। लोकसभा में तो करीब 70 फीसदी सांसदों के समर्थन से बिल पारित हो सकता है, लेकिन उच्च सदन में कुल समर्थन करीब 59 फीसदी पर अटक जाता है। लिहाजा विपक्ष के अन्य दलों के समर्थन का सहारा भी अनिवार्य होगा। संसद का शीतकालीन सत्र बुधवार 9 जनवरी को समाप्त हो रहा है, क्योंकि राज्यसभा की कार्यावधि एक दिन बढ़ाई गई है। क्या आनन-फानन में ऐसा संविधान संशोधन बिल पारित किया जा सकता है? दूसरा आयाम सर्वोच्च न्यायालय से जुड़ा है, जिसने 1992 में नरसिंह राव सरकार के आर्थिक आरक्षण के निर्णय को असंवैधानिक करार देते हुए खारिज कर दिया था। शीर्ष अदालत तकनीकी आधार पर आर्थिक आरक्षण के पक्ष में नहीं है, लेकिन संविधान के अनुच्छेद 16(4) और 15(4) में संसद संशोधन पारित करती है और आरक्षण के अधिकतम कोटे को 49.5 फीसदी से बढ़ाकर 59.5 फीसदी करती है, तो संसद की सर्वोच्चता के मद्देनजर सुप्रीम कोर्ट का फैसला क्या होगा, यह भी एक महत्त्वपूर्ण जिज्ञासा रहेगी। अलबत्ता कानून विशेषज्ञों का मानना है कि इन अनुच्छेदों में सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ी जातियों के आरक्षण का प्रावधान है। सरकार इसमें सवर्ण आरक्षण भी जोड़ना चाहती है। 1992 वाले फैसले में सुप्रीम कोर्ट की नौ न्यायाधीशों की पीठ ने यह भी माना था कि देश की विविधता में निहित असाधारण परिस्थितियों के मद्देनजर नियमों में ढील संभव है। इस कोटे से आगे बढ़ने के लिए सरकार को विशेष परिस्थितियां दर्शानी होंगी। यानी आर्थिक आधार पर आरक्षण का समावेश किया जाए और मौजूदा आरक्षण को कम न किया जाए, तो सरकार ऐसा कर सकती है। मौजूदा सियासत और आम चुनावों के मद्देनजर यह प्रधानमंत्री मोदी का ‘मास्टर स्ट्रोक’ कहा जा सकता है। कैबिनेट ने प्रस्ताव को मंजूरी दी है कि 10 फीसदी आरक्षण गरीब सवर्णों को दिया जाएगा। वह आरक्षण अनुसचित जाति / जनजाति और ओबीसी को हासिल 49.5 फीसदी आरक्षण से अलग होगा। गरीब अगड़े कौन होंगे, इसके भी आधार तय कर दिए गए हैं। अब इस आशय का संविधान संशोधन बिल संसद में पारित हो या न हो, मोदी सरकार ने देश के सवर्णों तक अपनी मंशा पहुंचा दी है। सवर्ण भाजपा का परंपरागत वोट बैंक रहा है और 2014 में 56 फीसदी से ज्यादा सवर्णों ने भाजपा के पक्ष में मतदान किया था, लेकिन हालिया सर्वे रपटों के निष्कर्ष भी सामने आए हैं कि भाजपा का यह जनाधार खिसक रहा है। सवर्णों के वोट बैंक में गिरावट आई है। यह मप्र और राजस्थान तक ही सीमित नहीं है। लिहाजा ‘चुनावी दांव’ की तरह यह निर्णय लिया गया है। संघ की सामाजिक समरसता वाली बुनियादी सोच पर भी मोदी सरकार ने मुहर लगाई है। अब ये दलीलें फिजूल हैं कि साढ़े चार साल में सरकार ने कुछ नहीं किया और अब चुनाव के करीब 90 दिन पहले सवर्णों को नए साल का ‘लॉलीपॉप’ थमाया है। कांग्रेस के कुछ प्रवक्ता तो इसे भी ‘जुमलेबाजी’ मान रहे हैं, जबकि पार्टी ने संसद में समर्थन की घोषणा भी की है। कुछ विपक्षी इसे मोदी सरकार की ‘बौखलाहट’ करार दे रहे हैं, लेकिन देश को याद दिला दें कि दिवंगत पूर्व प्रधानमंत्रियों-चंद्रशेखर और अटल बिहारी वाजपेयी-ने भी अगड़ों के आरक्षण की पैरवी की थी। लालू प्रसाद यादव और मायावती सरीखों ने भी अपने-अपने दौर में ‘आर्थिक आरक्षण’ का समर्थन किया था। आज एनडीए का हिस्सा बने नीतिश कुमार ने बिहार में ‘सवर्ण आयोग’ का गठन किया था। मुख्यमंत्री के तौर पर मायावती और नीतिश ने तत्कालीन प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह को इसके समर्थन में पत्र भी लिखे थे। यह दीगर है कि कांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने उन प्रस्तावों को ठंडे बस्ते में फेंक दिया था। बेशक यह एक ऐतिहासिक फैसला है, क्योंकि उसकी परिधि में कई और समुदाय भी आएंगे।

1 COMMENT

  1. अगर सवर्ण आरक्षण सवर्ण गरीबों के लिए है, तो इसकी आय सीमा गरीबों तक क्यों नहीं सीमित की गयी? यह विधयेक केवल उन लोगों को खुश करने के लिए लाया गया है, जिन्होंने नोटा का बटन दबाया था।

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