भारत की 17 लोकसभाओं के चुनाव और उनका संक्षिप्त इतिहास, भाग 2

दूसरी लोकसभा – 1957 – 1962

पंडित जवाहरलाल नेहरू के रहते कांग्रेस ने चुनाव के समय इस बात का जमकर प्रचार किया कि देश को आजादी दिलाने में उसका विशेष योगदान है। देश के भोले भाले मतदाता कांग्रेस के इस प्रचार को सच मान चुके थे । उन्हें ऐसा लगता था कि यदि कांग्रेस नहीं होगी तो देश की आजादी फिर से समाप्त हो सकती है। कांग्रेस को सत्ता में बने रहने में लोगों के भीतर व्याप्त इस डर का बहुत अधिक लाभ मिला। कांग्रेस ने लोगों के भीतर पहले इस प्रकार का डर स्थापित किया और फिर उसे आने वाले हर चुनाव में भुनाते रहने का निर्णय लिया। वास्तव में, कांग्रेस की यह सोच देश के भोलेभाले जनमानस के साथ किया जाने वाला एक राजनीतिक उपहास था। इसे आप 'राजनीतिक बदमाशी' भी कह सकते हैं। यह कोई गलत बात भी नहीं थी। प्रत्येक वह व्यक्ति जो सत्ता को किसी प्रकार कब्जाने में सफल हो जाता है, इसी प्रकार के हथकंडे अपनाता हुआ देखा जाता है। इसे आप राजनीति की अनिवार्यता भी कह सकते हैं। यद्यपि राष्ट्रनीति में इस प्रकार की 'राजनीतिक बदमाशी' को दूर-दूर तक भी स्थान नहीं होता, पर जब बात राजनीतिज्ञों की हो रही हो तो वहां पर राष्ट्रनीति की अपेक्षा नहीं की जा सकती।

लोकसभा का दूसरा चुनाव

1957 में देश का दूसरा लोकसभा चुनाव संपन्न हुआ। इस समय लोकसभा की कुल 505 सीटें थीं। इस चुनाव के समय पंडित जवाहरलाल नेहरू के लोकप्रियता अपने चरम पर थी। उस समय देश का विपक्ष बहुत अधिक कमजोर था। देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने मुसलमानों को बड़ी सावधानी से अपने ‘वोट बैंक’ के रूप में परिवर्तित कर लिया था । अपनी राजनीतिक बुद्धि का प्रयोग करते हुए पंडित नेहरू ने मुस्लिम तुष्टिकरण का खेल अपने प्रधानमंत्री के पहले काल से ही आरंभ कर दिया था। उन्होंने इस बात पर तनिक भी विचार नहीं किया कि देश का विभाजन सांप्रदायिक आधार पर करवा कर मुस्लिम लीग और उसकी विचारधारा के लोगों ने देश को बहुत गहरे जख्म दिये हैं । सत्ता प्राप्ति के पश्चात ही नेहरू के भीतर सत्ता में बने रहने की लालसा पैदा हो गई थी। सत्ता में बने रहने की इसी लालसा ने नेहरू को मुस्लिम तुष्टिकरण करने के लिए प्रेरित किया। सत्ता की लालसा वास्तव में राष्ट्रद्रोह की चारपाई है। जिस पर सोने वाला कोई भी व्यक्ति शाम को चाहे कितना ही बड़ा देश भक्ति क्यों ना हो, भोर होते – होते उसकी विचारधारा में अनेक प्रकार के परिवर्तन स्वाभाविक रूप से आ ही जाते हैं।

नेहरू जी का मुस्लिम तुष्टिकरण

 नेहरू जी ने ऐसा प्रयास भी किया था कि मुस्लिम समाज के लिए उनकी आबादी के आधार पर ग्राम प्रधान से लेकर संसद सदस्य तक अलग निर्वाचन क्षेत्र निश्चित कर दिए जाएं। नेहरू जी की इस प्रकार की मुस्लिमपरस्त नीतियों का मुस्लिम समाज पर सकारात्मक प्रभाव पड़ा। पंडित नेहरू ने पहले चुनाव से भी पूर्व अर्थात स्वाधीनता प्राप्ति के एकदम बाद मुसलमानों को अपने साथ लेने की रणनीति पर काम करना आरंभ कर दिया था। कांग्रेस के नेताओं ने अपना चुनाव प्रचार कुछ इस प्रकार किया कि देश के मुस्लिम समाज को उस समय ऐसा लगने लगा था कि यदि वह कांग्रेस के साथ नहीं रहे तो उन्हें भारत में कई प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है।  फलस्वरुप मुस्लिम लीग के पश्चात अनाथ हुआ मुस्लिम समाज कांग्रेस के साथ सहज रूप में जुड़ गया।
 कांग्रेस ने मुस्लिम समाज को अपनी जड़तामूलक परंपरावादी मान्यताओं के साथ जुड़ा रहने दिया। कांग्रेस के नेता यह भली प्रकार जानते थे कि यदि जड़तावादी मुस्लिम समाज को आधुनिकता के साथ जोड़ने का काम आरंभ हो गया तो वह कभी भी इसका स्थाई 'वोट बैंक' नहीं हो सकता ? यही कारण रहा कि सत्ता में बैठी हुई कांग्रेस के द्वारा मुस्लिम समाज को उसकी परंपरावादी सांप्रदायिक मान्यताओं के साथ गहराई से जुड़ने के लिए प्रेरित किया गया। उसे आधुनिकता के साथ जोड़ने का प्रयास नहीं किया गया। 
देश के मुस्लिम समाज को कांग्रेस के द्वारा पुचकार कर 14 वीं सदी के साथ जोड़ दिया गया। जबकि सनातनधर्मियों की कई वैज्ञानिक मान्यताओं को भी नेहरू ने अपनी नासमझी के चलते बदलने का प्रयास किया। संख्या बल में उस समय विपक्ष बहुत कमजोर था। उसके पास बोलने वाले कई धुरंधर नेता तो थे पर नेहरू के प्रचंड बहुमत का सामना करने के लिए पर्याप्त संख्या बल का अभाव था। इन सब परिस्थितियों में नेहरू का व्यक्तित्व बहुत हावी प्रभावी और वर्चस्वी हो चुका था। कांग्रेस के नेता नेहरू ने देश में संसदीय लोकतंत्र को स्थापित होते हुए देखकर भी देश की कम्युनिस्ट पार्टियों के साथ कुछ इस प्रकार की सांठगांठ की कि उनकी नीतियों को लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में स्थान देना आरंभ कर दिया। जिससे भारत में पूंजीवादी लोकतंत्र को स्थापित विकसित होने का अवसर मिला। यद्यपि लोकतंत्र में पूंजीवादी विचार का कहीं दूर तक भी स्थान नहीं होता। यहां तक कि कम्युनिस्ट भी पूंजीवादी व्यवस्था के विरुद्ध रहते हैं, पर उनकी रणनीति और छद्मवाद के चलते भारत में इसी प्रकार की राजनीतिक व्यवस्था ने आकार लेना आरंभ किया। परिणाम यह रहा कि दूसरी लोकसभा के चुनाव जब हुए तो पंडित जवाहरलाल नेहरू की चुनावी रणनीति और लोकप्रियता के चलते कांग्रेस शानदार ढंग से सत्ता में दोबारा लौट आई।

दूसरे लोकसभा चुनाव का परिणाम

कांग्रेस ने पंडित जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में 494 लोकसभा सीटों में से 371 सीटों पर विजय प्राप्त की। लोकसभा के दूसरे चुनाव में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को 27 सीटों पर विजय प्राप्त हुई। जिससे वह दूसरे स्थान पर रही। जबकि प्रजा सोशलिस्ट पार्टी 19 सीटों के साथ तीसरे स्थान पर रही। ज्ञात रहे कि 1956 में राज्य पुनर्गठन अधिनियम का क्रियान्वयन हुआ था। उसके पश्चात देश में यह पहले आम चुनाव थे, जिनमें चुनावी मैदान कांग्रेस के हाथों में रहा। लोकसभा के दूसरे चुनाव में चार राष्ट्रीय और 11 राज्य स्तरीय राजनीतिक दलों ने प्रतिस्पर्धा की। जिसमें 45 उम्मीदवारों में से 22 महिलाएं चुनकर लोकसभा में प्रवेश करने में सफल हुईं। सबसे अधिक महिलाएं मध्य प्रदेश से चुनकर देश के सर्वोच्च सदन में पहुंचने में सफल हुई। महिलाओं का देश की संसद में पहुंचना एक क्रांतिकारी संकेत था। यह वह समय था जब महिला शक्ति का शोषण करते हुए उसके लिए समाज के ठेकेदारों ने सीमाएं खींच रखी थीं। समाज की इस प्रकार की रेखाओं को लांघना और फिर उसमें देश के सभी लोगों का नारी शक्ति को समर्थन मिल जाना नारी शक्ति के लिए उस समय बड़ा कठिन कार्य था। इस प्रकार के सामाजिक प्रतिबंधों के उपरांत भी यदि महिला शक्ति को देश की संसद में पहुंचने का सौभाग्य प्राप्त हुआ तो इसे समय का क्रांतिकारी मोड़ कहा जा सकता है।

लोकसभा के दूसरे चुनाव के समय भी भारत के राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ही थे।

दूसरी लोकसभा के पदाधिकारी

देश की दूसरी लोकसभा ने अध्यक्ष का गौरवपूर्ण पद एम0 अनंतशयनम अयंगर को दिया। जबकि उपाध्यक्ष के रूप में सरदार हुकम सिंह को नियुक्त किया गया। लोकसभा के सचिव उस समय भी श्री कौल ही बने रहे। दूसरी लोकसभा ने 5 अप्रैल 1957 से 31 मार्च 1962 तक कार्य किया। दूसरे आम चुनाव के समय देश के कुल मतदाताओं की संख्या 19 करोड़ 36 लाख 52 हजार 179 थी। जिनमें से 45.44% मतदाताओं ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया। कांग्रेस को उस समय कुल पड़े हुए मतों में से 5 करोड़ 75 लाख 79 हजार 589 मत प्राप्त हुए थे। यानी कांग्रेस को देश की सत्ता में भेजने के लिए मात्र 17 प्रतिशत लोग उसका समर्थन कर रहे थे।
के.वी.के. सुन्दरम ( 20 दिसंबर 1958 से 30 सितंबर 1967) लोकसभा के दूसरे चुनाव के समय देश के मुख्य चुनाव आयुक्त थे। देश के दूसरे लोकसभा चुनाव में मात्र 30 पैसे प्रति मतदाता खर्च हुआ था ।अब तक के लोकसभा चुनावों में यह सबसे सस्ता लोकसभा चुनाव था। देश ने पंडित जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में इसी समय अपनी दूसरी पंचवर्षीय योजना को लागू किया।
यह योजना सार्वजनिक क्षेत्र के विकास और तेजी से औद्योगिकरण के विचार को लेकर आगे बढ़ी। लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए इस योजना को विभिन्न क्षेत्र में लगभग 50 अरब रुपए आवंटित किए गए थे। देश ने नई तकनीक और कुशल निवेश को प्राप्त करने की दिशा में ठोस कदम बढ़ाए । यह प्रयास किया गया कि भारत की वार्षिक राष्ट्रीय आय 4.5% तक बढ़ जाए।
भीखू पारेख के अनुसार , ‘नेहरू को आधुनिक भारतीय राज्य का संस्थापक माना जा सकता है। पारेख इसका श्रेय नेहरू द्वारा भारत के लिए तैयार किए गए राष्ट्रीय दर्शन को देते हैं। उनके लिए, आधुनिकीकरण राष्ट्रीय दर्शन था, जिसके सात लक्ष्य थे: राष्ट्रीय एकता, संसदीय लोकतंत्र, औद्योगीकरण, समाजवाद, वैज्ञानिक स्वभाव का विकास और गुटनिरपेक्षता।’
पारेख जैसे लेखकों ने पंडित जवाहरलाल नेहरू के इस राष्ट्रीय दर्शन पर विशेष प्रकाश डाला है। जिन लोगों ने रामायण, महाभारत सहित वेदों में राजा के कर्तव्यों या भारत के प्राचीन कालीन ऋषियों और लेखकों द्वारा राज धर्म को नहीं जाना समझा है उनकी दृष्टि में ही नेहरू का राष्ट्रीय दर्शन पूर्ण हो सकता है, जबकि सच यह है कि नेहरू का यह राष्ट्रीय दर्शन हमारे वैदिक ऋषियों के दर्शन के समक्ष बहुत ही छोटा है। नेहरू को महत्व देते समय या उनके चिंतन को राष्ट्रीय चिंतन की गीता घोषित करने से पहले हमें अपने महान दार्शनिक ऋषियों के वेद संगत राष्ट्र दर्शन को भी समझना चाहिए।

राजा के 36 गुणों का उल्लेख

"भीष्म पितामह राजकाज के व्यक्ति में आवश्यक रूप से शामिल होने वाले 36 गुणों का उल्लेख करते हैं। यह गुण आज की राजनीतिक व्यवस्था में भी शासक के लिए मार्गदर्शक हैं। ये गुण निम्नवत हैं- 1. राजा स्वधर्मों का (राजकीय कार्यों के संपादन हेतु नियत कर्त्तव्यों और दायित्वों का न्यायपूर्वक निर्वाह) आचरण करे, परंतु जीवन में कटुता न आने दे। 2. आस्तिक रहते हुए दूसरे के साथ प्रेम का व्यवहार न छोड़े। 3. क्रूरता का व्यवहार न करते हुए प्रजा से अर्थ संग्रह करे।  4. मर्यादा का उल्लंघन न करते हुए प्रजा से अर्थ संग्रह करे।  5. दीनता न दिखाते हुए ही प्रिय भाषण करे।  6. शूरवीर बने, परंतु बढ़-चढ़कर बातें न करे। इसका अर्थ है कि राजा को मितभाषी और शूरवीर होना चाहिए। 7. दानशील हो, परंतु यह ध्यान रखे कि दान अपात्रों को न मिले। 8. राजा साहसी हो, परंतु उसका साहस निष्ठुर न होने पाए। 9. दुष्ट लोगों के साथ कभी मेल-मिलाप न करे, अर्थात राष्ट्रद्रोही व समाजद्रोही लोगों को कभी संरक्षण न दे।  10. बंधु-बांधवों के साथ कभी लड़ाई-झगड़ा न करे। 11. जो राजभक्त न हों ऐसे भ्रष्ट और निकृष्ट लोगों से कभी भी गुप्तचरी का कार्य न कराए।  12. किसी को पीड़ा पहुंचाए बिना ही अपना काम करता रहे। 13. दुष्टों को अपना अभीष्ट कार्य न कहे अर्थात उन्हें अपनी गुप्त योजनाओं की जानकारी कभी न दे। 14. अपने गुणों का स्वयं ही बखान न करे। 15.श्रेष्ठ पुरुषों (किसानों) से उनका धन (भूमि) न छीने। 16. नीच पुरुषों का आश्रय न ले, अर्थात अपने मनोरथ की पूर्ति के लिए कभी नीच लोगों का सहारा न ले, अन्यथा देर-सबेर उनके उपकार का प्रतिकार अपने सिद्घांतों की बलि चढ़ाकर देना पड़ सकता है। 17. उचित जांच-पड़ताल किए बिना (क्षणिक आवेश में आकर) किसी व्यक्ति को कभी भी दंडित न करे।   18. अपने लोगों से हुई अपनी गुप्त मंत्रणा को कभी भी प्रकट न करे। 19. लोभियों को धन न दे।  20 जिन्होंने कभी अपकार किया हो, उन पर कभी विश्वास न करे।  21. ईर्ष्यारहित होकर अपनी स्त्री की सदा रक्षा करे।  22. राजा शुद्घ रहे, परंतु किसी से घृणा न करे। 23. स्त्रियों का अधिक सेवन न करे। आत्मसंयमी रहे। 24. शुद्घ और स्वादिष्ट भोजन करे, परंतु अहितकार भोजन कभी न करे।  25. उद्दंडता छोड़कर विनीत भाव से माननीय पुरुषों का सदा सम्मान करे। 26. निष्कपट भाव से गुरुजनों की सेवा करे।  27. दंभहीन होकर विद्वानों का सत्कार करे, अर्थात विद्वानों को अपने राज्य का गौरव माने। 28.ईमानदारी से (उत्कोचादि भ्रष्ट साधनों से नहीं) धन पाने की इच्छा करे।  29. हठ छोड़कर सदा ही प्रीति का पालन करे। 30. कार्यकुशल हो, परंतु अवसर के ज्ञान से शून्य न हो।  31. केवल पिंड छुड़ाने के लिए किसी को सांत्वना या भरोसा न दे, अपितु दिए गए विश्वास पर खरा उतरने वाला हो। 32. किसी पर कृपा करते समय उस पर कोई आक्षेप न करे।  33. बिना जाने किसी पर कोई प्रहार न करे। 34. शत्रुओं को मारकर किसी प्रकार का शोक न करे। 35. बिना सोचे-समझे अकस्मात किसी पर क्रोध न करे। 36. कोमल हो, परंतु  अपकार करने वालों के लिए नहीं। शांतिपर्व में रेखांकित किए गए राजा के 36 गुण भारतीय राजनीतिक चिंतन के आदर्श बन गए।"

( 16 जून 2018 को महाराणा प्रताप की जयंती पर “दिव्य हिमाचल” से साभार)
वास्तव में इन 36 गुणों को अपनाने की वकालत वही व्यक्ति कर सकता है जो भारतीय वैदिक वांग्मय से जुड़ा हो। राजनीति में इन 36 गुणों का बहुत महत्व है। जिसके पास विचारधारा की यह समृद्ध परंपरा होती है, वह राजनीति न करके राष्ट्रनीति को अपना लेता है। उसकी सोच और उसकी नियत की पवित्रता उसे राष्ट्र नायक बना देती है। निश्चित रूप से राजनीतिज्ञ से राष्ट्रनायक बड़ा होता है। जब हम अपने देश के पहले प्रधानमंत्री नेहरू को देखते हैं तो पाते हैं कि वह भारत के नेताओं के भीतर इस प्रकार के गुणों की तो कल्पना तक नहीं कर सकते थे।
इस सबके उपरांत भी हम इस बात से सहमत हैं कि नेहरू जी का भारत के समकालीन इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान है। उनके सकारात्मक योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता।

डॉ राकेश कुमार आर्य

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