डाo शिबन कृष्ण रैणा
सोशल मीडिया खास तौर पर फेसबुक के सही प्रयोग के अनेक लाभ हैं।दुनिया को चुटकियों में आपके सामने लाकर खड़ा कर देता है।विस्मृत मित्र अथवा पड़ौसी पकड़ में आजाते हैं तस्वीरों सहित।कुछ अपनी कहिये कुछ उनकी सुनिए।हर्ष-शोक की खबरें,जन्म-मरण के समाचार,पुस्तकों के विमोचन, राजनीति की सरगर्मियां,लिंचिंग-लूट-पाट के मंज़र,आपबीतियाँ-जगबीतियाँ आदि।गाने -शाने,गुदगुदाने/हंसाने वाले वीडियो भी।जानवरों के हैरतअंगेज़ या क्रूर कारनामे तो हैं ही।
दो-चार दिन पहले लेह-लद्दाख से मेरे एक फेसबुकी मित्र ने मुझ से मैसेंजर से संपर्क साधा और विनम्रता पूर्वक निवेदन किया कि वे लोग लेह में ‘हिमालय का सांस्कृतिक गौरव–।” विषय पर निकट भविष्य में एक राष्ट्रीय-संगोष्ठी आयोजित कर रहे हैं।उन्हें शायद मालूम था कि मेरा सम्बन्ध हिमालय की वृहत्तम घाटी कश्मीर से है और कश्मीरी भाषा-साहित्य-संस्कृति पर मेरा काम भी है,अतः मुझे संगोष्ठी में पत्रवाचन के लिए आमंत्रित किया और यदि ऐसा सम्भव न हो तो मैं आशीर्वचन/संदेश ही भेजूं।मैं ने उन्हें बता दिया कि अभी दुबई में हूँ,यहाँ मेरे पास विषय से सम्बंधित सामग्री बिल्कुल भी नहीं है,अतः पत्रवाचन के लिए आलेख भिजवाना सम्भव न होगा।हाँ, संदेश भिजवा सकता हूँ और मैं ने जैसे-तैसे समय निकालकर उनको संदेश भिजवा दिया। उधर से उनका मैसेज आया: “प्रणाम, सर। क्या इस संदेश को विस्तार देकर आप आलेख बना सकते हैं? उपयोगी हो जाएगा।” मैं ने उत्तर में पुनः कहा: “भई,दरअसल,यहां मेरे पास पुस्तकें नहीं हैं।दिनकर की संस्कृति के चार अध्याय या फिर श्रीराम शर्मा की ‘मेरी हिमालय यात्रा’ आदि भी नहीं है।—गूगल को खंगाल रहा हूँ।कुछ मिला तो आपको आलेख भिजवा दूँगा।कोशिश यह करूंगा कि ऐसा लेख तैयार हो जो हिमालय के लगभग सभी मुख्य पहलुओं को समेट ले : धार्मिक,सांस्कृतिक,आर्थिक,ऐतिहासिक,प्राकृतिक आदि ।तैयार होते ही भिजवा दूँगा।सम्भवतः परसों तक।इधर की भी कुछ व्यस्तताएँ हैं।अस्तु।
उनका तुरन्त जवाब आया: “जी, सर। आपकी स्मृति में संरक्षित ज्ञान-भंडार गूगल से कहीं आगे सिद्ध होगा और मंथन का नवनीत अधिवेशन की पुस्तक के लिए प्राप्त होगा। हमने इसी विश्वास को जुटाकर ही आपसे निवेदन किया था। आपको होने वाली असुविधा के लिए हमारे पास याचना के सिवा कुछ नहीं है। सादर प्रणाम ।”
उनके निवेदन ने मुझे अभिभूत किया।दो दिन तक रात को बारह-बारह बजे तक कंप्यूटर के सामने बैठकर आंखों को सहला-सहलाकर मैं ने कल ही उनका अपना आलेख भिजवा दिया।
कहने का अभिप्राय यह कि विज्ञान ने हमारी दूरियां कैसे मिटा दी हैं?कहाँ लेह/लद्दाख,कहाँ अलवर और कहां दुबई?और फिर गूगल तो ज्ञान का खजाना है ही।साठ के दशक की आज के दशक से तुलना करता हूँ तो सचमुच आश्चर्य हो रहा है।सामान्यतः इस सारी लिखा-पढ़ी में दो-तीन महीने तो लगते ही।