प्रवक्ता न्यूज़

शर्मनाक मीडिया, बेशर्म बुखारी

-आवेश तिवारी

शाही इमाम अहमद शाह बुखारी नाराज हैं उन्होंने, वहीद को काफिर कहा और पीट दिया, बस चलता तो उसके सर कलम करने का फतवा जारी कर देते, हो सकता है कि एक दो दिनों में कहीं से कोई उठे और उसके सर पर लाखों के इनाम की घोषणा कर दे, वो मुसलमान था उसे ये पूछने की जुर्रत नहीं होनी चाहिए थी कि क्यूँ नहीं अयोध्या में विवादित स्थल को हिन्दुओं को सौंप देते। वैसे मै हिन्दू हूँ और मुझमे भी ये हिम्मत नहीं है कि किसी से पूछूं क्यूँ भाई कोर्ट के आदेश को सर आँखों पर बिठाकर इस मामले को यहीं ख़त्म क्यूँ नहीं कर देते, क्यूंकि मै जानता हूँ ऐसे सवालों के अपने खतरे हैं, बुखारियों के वंशजों ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को चप्पे चप्पे पर अपना कब्ज़ा जमा लिया है। वहीद अकेला नहीं है अखबार के कालमों से लेकर ब्लागों और वेबसाइटों के बड़े नामों पर हर जगह वो लोग उन सभी पर एक साथ हल्ला बोल रहे हैं जो अदालत के निर्णय के साथ या निरपेक्ष खड़े हैं। मुझे नहीं मालूम कि अभिव्यक्ति का ऐसा संकट आपातकाल में भी था की नहीं? अफ़सोस इस बात का भी है कि मीड़िया का एक बड़ा हिस्सा इस मामले में आँखें मूँद कर तमाशा देख रहा है, कल जब वहीद पीट रहा था, उस वक़्त भी वो मुस्कुराते हुए तमाशा देख रहे थे, मौका मिलता तो अपनी तरफ से भी दो चार थप्पड़ लगा देते।

शाही इमाम द्वारा वहीद की पिटाई सिर्फ एक पत्रकार की पिटाई नहीं थी ,वो ऐसा करके देश के उन सभी मुसलमानों को ये सन्देश देना चाह रहे थे कि जो कोई मुसलमान, बाबरी मस्जिद के खिलाफ या राम मंदिर के समर्थन में कुछ कहेगा या फिर भाई चारे की बात करेगा(ऐसे मुसलमानों की तादात काफी अधिक है ,जो मंदिर मस्जिद से अधिक अमन चैन चाहते हैं ) उन सभी का वो ऐसा ही हश्र करेंगे। ये कुछ ऐसा ही है कि जब कभी कोई हिन्दू अदालत के फैसले के समर्थन में या फिर विवादित स्थल मुसलमानों को सौपने की बात कहे और प्रवीण तोगड़िया एवं अन्य बजरंगी उस पर टूट पड़ें, मगर प्रवीण तोगड़िया ने ऐसा किया नहीं, अगर करते तो शायद देश में भूचाल आ गया होता, चैनलों, अख़बारों और वेब पोर्टल हर जगह पर सिर्फ यही खबर होती, हमारे लाल झंडे वाले साथी घूम घूम कर प्रवीण के साथ साथ भगवा झंडे को गरियाते, शायद मै भी उनमे शामिल होता। लेकिन अब …….!

अभी एक बड़े चैनल पर एक खबर फ्लेश हो रही थी “बुखारी को गुस्सा क्यूँ आता है?” मानो बुखारी का गुस्सा न हो किसी ऐसे व्यक्ति का गुस्सा हो जो एक अरब हिन्दुस्तानियों की तक़दीर लिख रहा हो। हिंदुस्तान की मीड़िया ने राजनैतिक पार्टियों की तरह साम्प्रदायिकता की आपनी अपनी परिभाषाएं गढ़ ली हैं। कहीं पर वो भगवा ब्रिगेड के साथ दिखाई पड़ता है तो कहीं कठमुल्लाओं के विरोध में इन दोनों ही सथितियों में वो अक्सर अतिवादी हो जाता है, इन सबके बीच मीड़िया की वो धारा कहीं नजर नहीं आती जो कट्टरपंथ के विर्रुद्ध निरपेक्ष खड़ी हो, वो बटाला हाउस के इनकाउन्टर में हुई निर्दोषों की हत्याओं पर उतना ही चीखे जितना कश्मीरी पंडितों पर ढाए जाने वाले जुल्मों सितम पर। ये हमारे समय का संकट है कि निरपेक्षता की परिभाषा के साथ प्रगतिशील और समाजवादी पत्रकारिता के नाम पर बार बार बलात्कार किया जा रहा है। ऐसा अगर कुछ और सालों तक रहा तो वो दिन दूर नहीं जब हिंदुस्तान में सिर्फ दो किस्म के पत्रकार बचेंगे एक वो जो खुद के अस्तित्व को बचाए रखने के लिए.धर्मनिरपेक्षता की चादर तान हिन्दुओं को गरियाते रहते हैं,और उन्हें मुसलमानों का दुश्मन नंबर एक करार देते हैं , दूसरे वो जिन्हें हर मुसलमान में आतंकवादी और देशद्रोही ही नजर आता है और जो भगवा रंग को ही भारत भाग्य विधाता मान लेने का मुगालता पाल रखे हैं।

ये सरोकार से दूर होती जा रही समकालीन पत्रकारिता का स्याह चेहरा है जहाँ हेमचन्द्र की हत्या पर जश्न मनाये जाते हैं, गिलानी की गमखोरी पर पुरस्कार बटोरे जाते हैं, वहीँ वहीद के अपमान पर चुप्पी साध ली जाती है। अब समय आ गया है कि बुखारी और बुखारी के वंशजों को उनकी औकात में लाया जाया, लेकिन इसके लिए सबसे पहले ये जरुरी होगा कि मीड़िया खुद ब खुद धर्मनिरपेक्षता के पैमाने तय करे जो सर्वमान्य हो। हमें ये भी तय करना होगा कि व्यवस्था को गाली देने की आड़ में कहीं राष्ट्र के अस्तित्व को ही तो चुनौती देने का काम नहीं किया जा रहा है। तब शायद ये संभव होगा कि हम में से कोई हिन्दू या मुस्लिम पत्रकार उठे और बुखारी को उन ३६ हजार लोगों की ताकत एक साथ दिखा दे (बतौर बुखारी वहीद जैसे ३६ हजार उनके आगे पीछे घूमते हैं)