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यह अनुचित है कि हैदराबाद के एनकाउन्टर पर जहां देश में चारों ओर स्वागत हो रहा है वहीं हमारे राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने चिंता जताते हुए इसकी जॉच की मांग करी है। क्या इन तथाकथित मानवतावादियों को दर्दनाक मौत की पीड़िता के प्रति कोई सहानुभूति नहीं थी ? इन मानवाधिकारियों का जिस दिन (27 नवंबर) यह दुर्दान्त घटना घटी थी और एक अबला को दरिंदों का शिकार बनाया गया था, तो क्या उनका लगभग नों दिन मौन रहना उचित था ? क्या यह अपने आप में संदेहजनक नहीं कि 6 दिसम्बर के उषाकाल में हुए दोषियों के एनकाउंटर पर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने उसी दिन इसका सज्ञान लिया ? दुर्जनों और सज्जनों में भेद करके मानवाधिकारवादियों का इच्छानुसार सक्रिय होना कहां तक उचित है ?अनेक अवसरों पर यह पाया जाता रहा है कि मानवाधिकारियों को केवल अपराधियों व आतंकवादियों के हितों की चिंता होती है। इनकी कार्यशैली में कभी भी प्रताड़ित निर्दोष व मासूमों के अधिकारों के प्रति कोई संवेदना नहीं होती। यह भी विचार करना होगा कि जब ऐसे जघन्य अपराधियों को मानवीय मूल्यों की न तो कोई समझ है और न ही कोई संवेदेनशीलता तो फिर पशु समान ऐसे अत्याचारी दानवों के मानवाधिकार होने ही नहीं चाहिये।
निसन्देह जब देश में न तो अपराध कम हो रहे और न ही रुक रहे, तो इसका दोष केवल हमारी शिथिल न्यायायिक व्यवस्था व कमजोर कानूनों को माना जाय तो अनुचित नहीं होगा। सामान्यतः अपराधी अधिकांश वहीं होते हैं जो पूर्व में भी कई-कई अपराधों में लिप्त रहते हैं।कानून के सरल व अनेक कमियों के कारण ही अधिकांश आरोपी बार-बार छूटते रहते हैं जिससे वे उत्साहित होकर अपराध जगत में बने रह कर उसे ही अपना धंधा बना लेते है। आज जब मानवाधिकारवादियों के कारण जेलों में भी अपराधियों का अच्छा जीवनयापन हो रहा हो तो आरोपियों को बार-बार जेल जाने व वहां रहने में भी कोई भय नहीं होता।
हैदराबाद की एक पशु चिकित्सक युवती के साथ सामुहिक दुष्कर्म करके जला कर मार देने जैसी दर्दनाक घटना के घटने के उपरांत पकड़े गए दोषियों का पुलिस बन्धन से मुक्त होकर आक्रामक होना और भागने का प्रयास किये जाने से अपराधियों के दुःसाहस का पता चलता है। तो फिर ऐसे में क्या पुलिस बल मौन रहें और अपनी सम्भावित मौत तक वरिष्ठ अधिकारियों के आदेश की प्रतीक्षा करे। संविधान की शपथ लेने वाले सुरक्षाकर्मियों का यह कर्तव्य है कि वे ऐसे अवसर पर तुरंत निर्णय लेकर कानून की रक्षा करे। जघन्य अपराध व आतंकवाद को रोकने के लिए अपराधियों व आतंकियों का एनकाउंटर करना या करवाना राष्ट्र निर्माण में एक बड़ी भूमिका निभा सकता है। अतः ऐसी आपातकालीन परिस्थितियों में होने वाले एनकाउंटरों पर कोई विवाद नहीं होना चाहिये।
वर्षो पूर्व (15 जून 2004) लश्करे-ए-तोइबा की फिदायीन आतंकी इशरत जहां व उसके तीन अन्य आतंकवादी साथियों का अगर समय रहते आधी रात को अहमदाबाद में एनकाउंटर न हुआ होता तो आज देश में इस्लामिक जिहाद का बड़ा रूप देखा जा सकता था। स्मरण रहे कि उस समय हमारे वर्तमान प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी इन आतंकियों का मुख्य लक्ष्य थे। उस समय मोदी जी जिनका कोड मछली न.5 था गुजरात के मुख्य मंत्री थे।
यह भी विचार करना अनुचित नहीं कि संविधान का पालन करते हुए अपराधियों व आतंकवादियों को अगर मुठभेडों (एनकाउंटरों) में नहीं मारा जायेगा तो राष्ट्र की सम्प्रभुता, एकता व अखंडता और सभ्य समाज की सुरक्षा कैसे हो पायेगी? यह विशेष ध्यान रखना चाहिए कि सुरक्षाबल व पुलिस अधिकारियों व कर्मचारियों को संविधान के पालन की शपथ दी जाती है। अतः उनसे यह आशा रखनी ही चाहिये कि वे अपने-अपने स्वार्थों व राजनेताओं के दबावों से बचते हुए समाज व राष्ट्र के हितों की प्राथमिकता के साथ सुरक्षा सुनिश्चित करेंगे।
अतः एनकाउंटरों को विवादित न बना कर उनसे होने वाले राष्ट्रीय व सामाजिक हितों पर चर्चा होनी चाहिये। राष्ट्रीय राजनीति में राष्ट्र की सर्वोपरिता बनाये रखना भी विभिन्न राजनैतिक दलों, बुद्धिजीवियों व राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग एवम इससे संबंधित समस्त संस्थाओं का दायित्व होना चाहिये।
विनोद कुमार सर्वोदय