अन्तहीन दर्द से गुजरता ‘बुजुर्ग’

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(15 जून- विश्व बुजुर्ग दुर्व्यवहार जागरूकता दिवस विशेष)

निर्भय कर्ण

अंत भला तो सब भला…ये कहावत बिल्कुल सत्य है। मानव जिंदगी कई मोड़ से होकर गुजरता है और अंत में बुढ़ापा ही वो अंतिम मोड़ है जिस पर जिसने विजय पा लिया, उसका जीवन धन्य और सफल माना जाता है। बचपन से लेकर जवानी तक हम वो हर सुख भोग लेते हैं तो लगता है कि हमने जिंदगी का सुख भोग लिया लेकिन यदि आपका बुढ़ापा सही से न कटे और तकलीफों का सामना करना पड़े तो समझ लेना चाहिए कि उसकी जिंदगी वास्तव में अधूरी ही रह गयी। 

संयुक्त राष्ट्र के ताजा आंकड़ों के मुताबिक, दुनियाभर में 65 साल से ज्यादा उम्र के बूढ़ों की तादाद करीब 70.5 करोड़ है। 2018 के अंत तक 65 साल से अधिक उम्र के बुजुर्गों की संख्या 5 साल से कम उम्र के बच्चों से अधिक हो गई। और यदि यही हालात रहे तो 2050 में शून्य से चार साल के हर बच्चे पर 65 साल से ज्यादा उम्र के दो बुजुर्ग होंगे। यानि जैसे-जैसे जनसंख्या बढ़ती है वैसे ही दुनियाभर में बुजुर्गों की संख्या में भी इजाफा हो रहा है। ऐसे में उनके साथ दुर्व्यवहार की संख्या में भी तेजी से वृद्धि हो रही है। इस दुर्व्यवहार में शारीरिक, यौन, मनोवैज्ञानिक व भावनात्मक दुर्व्यवहार, वित्तीय और भौतिक दुर्व्यवहार, उपेक्षा तथा अस्मिता एवं सम्मान की गंभीर क्षति तथा मानव अधिकारों के उल्लंघन की श्रेणी में आने वाली विभिन्न प्रकार का हिंसा शामिल है। यही वजह है कि संयुक्त राष्ट्र महासभा बुजुर्गों के साथ हो रहे दुर्व्यवहार को रोकने व इस बारे में जागरूक करने के लिए 15 जून को विश्व बुजुर्ग दुर्व्यवहार जागरूकता दिवस नामित किया।

बुजुर्गों के साथ दुर्व्यवहार एक मानवाधिकार मुद्दा है। सबों को वृद्धावस्था में दुर्व्यवहार के सभी प्रकारों से लेकर स्वतंत्र होकर अस्मिता एवं सम्मान के साथ जीवन जीने का अधिकार है। लेकिन समय ने अपना रूप बदल डाला है। आज का युवा बूढ़े हो चुके माता-पिता को वृद्धाश्रम में रखकर किसी भी कीमत पर उनसे छुटकारा चाहने लगा है। जहां वृद्धाश्रम की व्यवस्था नहीं है वहां घरों में उनके साथ कई प्रकार से शोषण शुरू हो चुका है। बुजुर्गो को गाली-गलौज, अभद्रता और अनादर मिल रहा है। 2017 के रिपोर्ट की मानें तो वैश्विक स्तर पर 60 वर्ष की आयु एवं उससे अधिक आयु वर्ग के 15.7 प्रतिशत लोगों के साथ दुर्व्यवहार हुआ था। यानि कि विश्वभर भर में लगभग छह में से एक बुजुर्ग व्यक्ति के साथ दुर्व्यवहार किया गया है। एक अनुमान है कि 2026 तक दुनियभर में बुजुर्गों की संख्या में 173 मिलियन की वृद्धि होने की संभावना है। कुछ सर्वे हमें सुकून देती है कि हम एशियाई मूल के लोग अन्य महाद्वीप के लोगों से इस मामले में बहुत बेहतर हैं। एशिया में बुजुर्गों की स्थिति दुनिया के अन्य देशों की अपेक्षा बेहतर है।

परिवार में अपनी अहमियत को न समझे जाने के कारण हमारे बुजुर्ग हताश व उपेक्षित जीवन जीने को विवश होते जा रहे हैं। उन्होंने जिस बाल-बच्चों को लाड़-प्यार से पाला और काबिल बनाया। वही अपनी पत्नी के उकसाने पर आज अपने बुढ़े मां-बाप पर सितम ढ़ाने पर आमादा है। यानि अपने खून के टुकड़ों से ही प्रताड़ना झेलने को विवश होते जा रहे हैं। कहीं धन के अभाव में तो कहीं संपत्ति न होने पर बुजुर्गो को उनके परिजन सहन नहीं कर पा रहे हैं। और अपने बेटों के ही आंख की किरकिरी बन रहे हैं। उपभोक्तावादी संस्कृति के तहत बदलते सामाजिक मूल्यों, नई पीढ़ी की सोच में परिवर्तन आने, महंगाई के बढ़ने और व्यक्ति के अपने बच्चों और पत्नी तक सीमित हो जाने की प्रवृत्ति के कारण बड़े-बूढ़ों के लिए ये समस्याएं मुंह बाए खड़ी है। जिसका अंत होता दिख नहीं रहा है।

देखा जा रहा है कि अधिकांश परिवारों में भाईयों के बीच इस बात को लेकर विवाद होता है कि वृद्ध माता-पिता का बोझ कौन उठाए। कई परिवारों में इसी के वजह से माता-पिता ही एक-दूसरे से अलग-अलग बेटों के पास अलग-अलग रहते हैं। वहीं कई मामलों में बेटे-बेटियां, धन-संपत्ति के रहते माता-पिता की सेवा का भाव दिखाते हैं, पर जमीन-जायदाद की रजिस्ट्री तथा वसीयतनामा संपन्न होते ही उनके व्यवहारों में परिवर्तन आने लगता है। कई मामलों में तो यहां तक गया कि संपत्ति के मोह में बुजुर्गों की हत्या तक कर दी जाती है। जहां काम करने वाली बहुओं के ताने, बच्चों को टहलाने-घुमाने की जिम्मेदारी की फिक्र में पुरुष वृद्धों की दिन कट जाती है। तो वहीं महिला वृद्ध घर की सेविका के तौर पर अपने दिन काटने लगती है। वास्तव में यह हमारे लिए शर्म की बात है। यह बेहद संवेदनशील और चिंतन का विषय है कि हम अपने जन्मदाता और पालन करने वाले मां-बाप के साथ कैसा व्यवहार कर रहे हैं।

ऐसे मायनों में आज का समाज बेहद डरावना एवं संवेदनहीन हो गया है। बुजुर्गों के साथ दुर्व्यवहार एक संवेदनशील मुद्दा हो चुका है। स्वार्थ का यह नंगा खेल स्वयं अपनों से होता देखकर वृद्धजनों के मन-मस्तिष्क पर करारा प्रहार करता है, जिसका अंदाजा लगाना मुश्किल है, जब तक कि उस आघात को आप स्वयं न झेलें हों। वृद्धावस्था एक ऐसा पड़ाव है जो अपनों को ढूंढती है। अपनों की सहानुभूति व प्यार को ढूंढती है। वृद्धजन अव्यवस्था के बोझ और शारीरिक अक्षमता के दौर में अपने अकेलेपन से जूझना चाहते हैं। लेकिन इनकी सक्रियता को नजरअंदाज कर दिया जाता है।

अब सवाल उठता है कि आखिर बुजुर्गों के साथ इतनी बेरूखी क्यों? तो इसका मुख्य कारण है निरंतर बाजारवाद और उदारीकरण की वजह से समाज में बदलाव के कारण संयुक्त परिवारों का टूटना-बिखरना, हमारी संस्कृति और परम्परा का पतन होना है। संयुक्त परिवार व्यवस्था के चरमराने से बुजुर्गों को अकेला छोड़ दिया जाता है। इतना ही नहीं बेटी और बहू में फर्क करने वाली परिवारिक स्थिति और सामाजिक व्यवस्था भी इसके लिए काफी हद तक जिम्मेवार है। इस भागदौड़ की जिंदगी में हर कोई इतना व्यस्त होता जा रहा है कि उसके पास अपने परिवार के लिए ही समय नहीं है। एकल परिवार व्यवस्था ने बुजुर्गों के प्रति दुर्व्यवहार को और भी बढ़ा दिया है।

बुजुर्ग एक पेड़ की भांति होता है यानि जो जितना ज्यादा बड़ा होता है, वह उतना ही अधिक झुका हुआ होता है, यानि वह उतना ही विनम्र और दूसरों को फल देने वाला होता है। बुजुर्गों के अनुभव का कोई दूसरा विकल्प नहीं होता। ऐसे में इनके अनुभव और युवाओं के जोश से सफलता के पायदान तक पहुंचा जा सकता है।

बुढ़ापे के पड़ाव से हर व्यक्ति को गुजरना पड़ता है। बुजुर्गों का सम्मान हमारी संस्कृति का हिस्सा तो है लेकिन वास्तव में इसे अमलीजामा बनाए रखना बहुत बड़ी चुनौती है। व्यवहारों से तो लगता है कि हम बुजुर्गों का सम्मान करना भूल रहे हैं। आवश्यकता इस बात की है कि पतन के इस गलत परम्परा को रोकें। जिससे हमारे बीच के भावनात्मक फासलों को कम किया जा सके।

कुछ ऐसी चीजें हैं जिसे बुजुर्गों को भी सोचने की आवश्यकता है। जैसे कि आज के युवा अपने मामलों में हस्तक्षेप करना पसंद नहीं करते। इसलिए परिवार में बहु-बेटे के मामलों में अनावश्यक हस्तक्षेप न करें और उन्हें अपने ढंग से जीवन जीने दें। गांवों से निकल कर शहरों में रहने वाले अधिकांश युवाओं की सोच यही हो जाती है कि संयुक्त परिवार व्यक्तिगत उन्नति में बाधक होते हैं।

बुजुर्गों को आर्थिक दृष्टि से स्वावलंबी बनाने पर विशेष ध्यान देना होगा। बेसहारा लोगों के लिए सरकार की तरफ से सहज और आवश्यक रूप से पर्याप्त पेंशन की व्यवस्था हो। यदि इनके लिए हल्के-फुल्के रोजगार की व्यवस्था हो जाए तो उत्तम है। जिससे कि बुजुर्ग अपने कामों में लगे भी रहेंगे और उनका मन भी लग जाएगा। ऐसे लोगों के लिए ऐसी एक्टिविटी की व्यवस्था हो जिससे उनमें जीवन के प्रति उत्साह पैदा हो।

अपने जीवन में वृद्धों को सम्मान दें। वृद्धों के अनुभव का इस्तेमाल कर सही दिशा में चलें। आज आवश्यकता विचारक्रांति की नहीं बल्कि व्यक्तिक्रांति की है। हमारे बुजुर्गों को भी स्वयं के प्रति जागरूक होना होगा। जेम्स गारफील्ड ने कहा है कि ‘‘यदि वृद्धावस्था की झुर्रियां पड़ती हैं तो उन्हें हृदय पर मत पड़ने दो। कभी भी आत्मा को वृद्ध मत होने दो।’’ यानि कि बुजुर्गों को अपनी उम्मीद बनाए रखना होगा, अपने हौसला को मजबूती बनाए रखना होगा। ताकि वो टूटे नहीं।

वास्तव में विश्व बुजुर्ग दुर्व्यवहार जागरूकता दिवस मनाने की सार्थकता तब होगी जब हम उन्हें परिवार में सम्मान के साथ-साथ उन्हें अपने तरीके से जीवन जीने के लिए प्रेरित करेंगें।      

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