समान नागरिक संहिता की अनिवार्यता

समान नागरिक संहिता (ucc) समय-समय पर चर्चाओं का विषय रहता है। हाल ही में दिल्ली उच्च न्यायालय ने इसकी आवश्यकता पर जोर दिया है। भारत में जब भी दो जातियों एवं धर्मों के मध्य विवाह, तलाक या उत्तराधिकार के लिए टकराव या इनसे संबंधित अधिकारों के लिए संघर्ष होता है, तब न्यायालय के सम्मुख विभिन्न धर्मों अथवा जनजातियों के निजी कानून व मान्यताएँ निर्णय देने में कठिनाई उत्पन्न करती हैं।  हाल में दिल्ली उच्च न्यायालय के सम्मुख एक ऐसी ही याचिका आयी। सतप्रकाश मीणा राजस्थान की अधिसूचित अनुसूचित जनजाति मीणा समुदाय से संबंधित हैं। उन्होंने पारिवारिक न्यायालय के फैसले को चुनौती देते हुए दिल्ली उच्च न्यायालय में याचिका दायर की थी, जिसमें उनके तलाक की याचिका खारिज कर दी गई थी। सतप्रकाश मीणा की पत्नी अल्का मीणा का कहना है कि वह मीणा समुदाय से आती है, जो भारतीय संविधान के अनुच्छेद 366(25) के अंतर्गत एक अधिसूचित अनुसूचित जनजाति है। उसने हिन्दू विवाह अधिनियम (1955) की धारा 2(2) का हवाला देते हुए तलाक लेने से मना कर दिया था।समान नागरिक संहिता भारतीय संविधान के भाग 4 के अनुच्छेद 44 राज्य के नीति निदेशक तत्वों के अंतर्गत आती है। इसमें भारतीय राज्य क्षेत्र के नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता लागू करने की बात कही गई है। संविधान को लागू हुए 72 वर्ष पूर्ण होने को हैं। भारत में आजादी के पश्चात कई सरकारें आयीं, लेकिन सभी इसे लागू करने से परहेज करती रही हैं। ‘‘उचित समय नहीं आया है’’ कह कर ठंडे बस्ते में इस कानून को डाल दिया जाता रहा है। भारतीय जनता पार्टी ने ही इसे अपने चुनावी घोषणा पत्र में जगह दी थी।भारत में इसे लागू करने की आवश्यकता 1985 की एक याचिका श्रीमती जॉर्डन डेगे बनाम एस.एस. चोपड़ा मामले से हुई थी। श्रीमती जॉर्डन डेगे ईसाई थीं, जबकि एस.एस. चोपड़ा सिख। इनके तलाक की याचिका पर सुनवाई करते हुए उच्चतम न्यायालय ने समान नागरिक संहिता लागू करने की पहली बार आवश्यकता जाहिर की थी। इसी वर्ष एक अन्य बेहद चर्चित तलाक विवाद मोहम्मद अहमद खान बनाम शाहबानो बेगम प्रकाश में आया। तब भी उच्चतम न्यायालय ने यही कहा था। ऐसा कई बार हुआ। सरला मुद्गल मामला (1995) भी उसमें एक अहम भूमिका निभाता है।2014 में भा.ज.पा ने अपने घोषणापत्र में वादा किया था कि ‘समान नागरिक संहिता’ का मसौदा सर्वोत्तम परंपराओं पर आधारित है और आधुनिक समय के साथ उनका सामंजस्य स्थापित करता है। यहां लैंगिक समानता तब तक नहीं हो सकती, जब तक भारत समान नागरिक संहिता नहीं अपनाता, जो सभी महिलाओं के अधिकारों की रक्षा करता है। बिल्कुल ऐसी ही बात न्यायमूर्ति प्रतिभा एम. सिंह ने हाल में मीणा याचिका की सुनवाई करते हुए कही है। उन्होंने कहा कि विवाह, तलाक, उत्तराधिकार आदि के कानून सबके लिए समान होने चाहिए। भारतीय समाज शनैः-शनैः एकरूप हो रहा है। धर्म, समुदाय और जाति के मध्य अवरोध धीरे-धीरे समाप्त हो रहे हैं। उन्होंने उम्मीद जताई कि सरकार अपने नागरिकों के लिए अनुच्छेद 44 के अंतर्गत समान नागरिक संहिता लाने पर विचार करेगी। न्यायालय द्वारा फैसले की एक प्रति कानून मंत्रालय को भी भेजी गयी, किंतु आश्चर्य तब होता है, जब अगस्त 2018 में विधि आयोग अपने परामर्श पत्र में कहता है कि ‘समान नागरिक संहिता न तो आवश्यक है और न ही वांछनीय’। यह परामर्श तो बी.जे.पी के घोषणापत्र के एकदम उलट था, जहां उच्चतम न्यायालय से लेकर छोटी अदालतें तीन दशकों से समान नागरिक संहिता की जरूरत बता रही हैं, उसका भी एक तरह खंडन किया गया था।हालांकि एन.डी.ए सरकार ने तीन तलाक पर कानून बनाकर समान नागरिक संहिता की ओर एक कदम बढ़ा दिया है। अब केंद्र को यह कानून बनाने में देरी नहीं करनी चाहिए। यह समय समान नागरिक संहिता को लागू करने के लिए उचित समय है। भारत वर्षों से पंथनिरपेक्ष, उदारवादी, समानता एवं लोकतांत्रिक मूल्यों को बढ़ावा देता आया है। भारतीय संविधान भी इन मूल्यों की पैरवी करता है, किन्तु भारत में विभिन्न समुदायों के लिए बने निजी कानून जैसे मुस्लिम पर्सनल लॉ, स्पेशल मैरिज एक्ट(1954), हिन्दू विवाह अधिनियम(1955), दि इंडियन क्रिश्चियन मैरिज एक्ट(1872) इत्यादि कानून समय-समय पर अदालती निर्णयों में गतिरोध व टकराव पैदा कर देते हैं। इस समस्या का एक ही उपाय है समान नागरिक संहिता। ‘एक देश एक संविधान’ की तर्ज पर आज ‘एक देश एक कानून’ की भी अति आवश्यकता है।- सिद्धार्थ राणा

2 COMMENTS

  1. समान नागरिक संहिता के संबंध में आपके विचार स्वागत योग्य हैं

  2. समान नागरिक संहिता पर आपके सकारात्मक विचार स्वागत योग्य है

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here