अभिव्यक्ति और प्रतिबन्ध [व्यंग्य]

राजीव रंजन प्रसाद 

“सर जी सहारा प्रणाम” 

“काहे का सहारा वो तो डूब गया भाई, और कौन सा प्रणाम? आज कल हम लाल सलाम करते हैं” 

“कल तक तो वहीं की गा रहे थे” 

“भाई वो खिला रहे थे, हम खा रहे थे” 

“कल यह लाल कहीं हरा, नीला या पीला हो गया तो?” 

“देख भाई जिसकी दूकान उसी का मीठा पकवान” 

“तो आज का आपका ब्रम्ह ज्ञान क्या है?” 

“ब्रम्ह पर बात वृथा है, तुम तो फासीवादी लगते हो” 

“ना जी सरकार भूल हुई, ब्रम्ह शब्द का तो हमने बिम्ब की तरह प्रयोग किया था” 

“गद्य में सीधे सपाट कहा करो। यूँ बिम्ब में बात करोगे तो मध्ययुगीन कहे जाओगे। प्रगतिशील, प्रयोगवादी आदि आदि बनो” 

“अपनी तो एसी ही अभिव्यक्ति है आप प्रतिबन्ध लगा रहे हैं” 

“ओ ना जी हम तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के समर्थक है प्रतिबन्ध तो फासीवादी शब्द है” 

“फिर फासीवाद? भाई हमने तो मार्क्सवाद, गाँधीवाद यही सुन रक्खा है। यह कोई नया वाद-विवाद पैदा हुआ है क्या? 

“हद है तुम्हारी जेनरल क्नॉलेज!! तुम ईटली नहीं जानते, मुसोलिनी नहीं जानते?” 

“जी सांभर के साथ इडली का कोई जवाब नहीं” 

”सारी गड़बड इस देश में यही है अधकचरा ज्ञान। हम इटली कहेंगे तुम इडली समझोगे, हम बम दिखायेगे तुम्हें सांभर बड़ा नजर आयेग। दृष्टिकोण ठीक करना चाहिये” 

“जी अभिव्यक्ति और स्वतंत्रता पर कोई टिप ही दे दीजिये” 

“मैं तो होटल में भी टिप नहीं देता” 

“अब आप इडली को इटली समझ रहे हो?” 

“अभिव्यक्ति की यही समस्या है कि अपना दृष्टिकोण जब दूसरा न समझे तो उसे बात ‘बडी और महत्वपूर्ण’ नजर आती है और कहीं सामने वाला समझ गया कि बोलने वाला कितने पानी में है तो भैंस गयी पानी में” 

“तो आप भैंस को पानी में जाने से बचाते कैसे हैं? और दूसरा सवाल कि भैंस पानी में नहीं जायेगी तो उसे खुजली हो जायेगी” 

“बहुत सही प्रश्न। अब हुआ तुम्हें मेरी संगत का असर। पानी में क्यों जाना? जहाँ चमडी बाहर निकल आये, कालिमा स्पष्ट दीख पडे? और जहाँ तक खुजाने का प्रश्न है हम एक दूसरे की पीठ से पीठ खुजा लेते हैं, बड़ा मजा आता है। कभी कर के देखना पूंछ से पूँछ का अवगुण्ठन। देखो हम बहिष्कार की नीति के समर्थक लोग हैं।” 

“बहिष्कार?” 

”बहुत कठिन है ड़गर पनघट की। यार तुम तो पूरे कद्दू हो। करेंट अफेयर्स की जरा सी भी जानकारी नहीं रखते?” 

“किसे लगा करेंट” 

”राजेन्द्र यादव को” 

”पूरा खुलासा करें महोदय” 

“यार अभिव्यक्ति के लिये राजेन्द्र यादव ने अपनी स्वतंत्रता ले ली यानि उनके घाट पर पानी पीने शेर भी आने वाला था और हाथी भी” 

“शेर और बकरी की कहावत है” 

”कहावत-मुहावरे इनसे बाहर निकलो और यथार्थवादी बनो। समाज के बदलाव को महसूस करो कि कैसे एक घाट पर दो जानवर पानी पी सकते हैं?” 

“आराम से पी सकते हैं? श्री 1008 घंटाधारी महाराज का आश्रम है उसमे तो बहुत सारे जानवर एक ही तालाब से पानी पीते हैं” 

“बाबाजी का घंटा; फिर वही धर्म और अफीम? 

“भूल हुई फिर वही बिम्ब वाला मामला है, आपकी तरह प्रगति करने में समय लगेगा” 

“तो राजेन्द्र यादव ने सेमीनार किया। सोचा कि विचारो की भेलपुरी बनाई जाये स्वादिष्ट लगेगी” 

”वाह अच्छा विचार है” 

“तुम कम्युनल माईन्डेड आदमी हो, तुम आरएसएस के एजेंट मालूम पडते हो, तुम्हारी माँ का…” 

”रहम सरकार भूल हुई। आप अपने ट्रेक पर चलिये। कौन कौन वक्ता थे और क्या क्या कहा गया?” 

”महान लेखिका अरुन्धति राय, महान कवि क्रांतिकारी वरवर राव; साथ में दो अन्य भी वक्ता थे हाँ गोविन्दाचार्य और अशोक बाजपेयी” 

“बाकी के दो महान या क्रांतिकारी टाईप नहीं थे” 

”यार तुम्हारे मुह में करेला घुसेड़ दूंगा। बात कायदे से करो और जो हम कहते हैं सुन लो वरना…” 

“मेरी अभिव्यक्ति के लिये पुन: क्षमा, आगे क्या हुआ?” 

“फिफ्टी-फिफ्टी” 

“बहुत अच्छा बिस्कुट है आईये चाय के साथ लेते हैं एक एक” 

“अबे मूढमति!! वहाँ पर आधे वक्ता आये और आधे नहीं? अरुन्धति और वरवर ने कहा कि हम एक घाट मे पानी नहीं पी सकते। हमारे लिये हमारे टाईप का घाट होना चाहिये। हमारे टाईप के लोग होने चाहिये, हमारे टाईप का माहौल होना चाहिये और हमारे टाईप का ही सब्जेंट होना चाहिये” 

“ओह तो विचार-विमर्श वाली बात कैसे हुई? विमर्श तो दो अलग अलग विचारों के बीच होता है।“ 

“बडी अकल की बात कर रहे हो सिद्ध करो” 

”जी वह सामने कौन सा प्राणी खडा है” 

”गधा है”

“बिलकुल सही वह गधा ही है प्वाईंट क्या है तुम्हारा?” 

”जी बहस तो तब हो सकती है न जब आप उसे गधा कहें और मैं चुकन्दर जब हम दोनो ही इसे गधातत्व मानते हैं तो हमारे विचारतत्व तो अंधत्व की गली पकड कर लुप्ततत्व हो जायेंगे” 

“अबे जुबान लड़ाता है और मोटे मोटे शब्द मेरे मुह पर मार कर खुद को तुर्रमखाँ समझता है?” 

”नहीं नहीं बस एक तुच्छ तर्क था बाकी आप अपनी डफली बजा कर अपना राग सुनायें” 

“तर्क क्या महान लोग छोटी मोटी बाते जानते समझते नहीं इस लिये वे नहीं जान सके कि बुलाने वाले की नीयत क्या है और साथ में बोलने वाले वक्ता कौन हैं। वह तो पाँच बजे कार्यक्रम था तो साढेचार बजे निमंत्रण कार्ड पर निगाह गयी और स्तब्ध रह गये कि भला साथ में एसी हस्तियाँ जो बोलना जानती हैं? अगर कहीं उन्होंने कुछ एसा बोल दिया तो…” 

”एसा मतलब?” 

“यार स्कूल गये हो कि नहीं? 

”गये हैं सर जी” 

”तो मास्टर से कब डर लगता था?” 

“जब सवाल के जवाब नहीं आते थे?” 

“तो क्या करते थे तब?” 

“बंक मारते थे, घर में पेटदर्द का बहाना कर के पडे रहते थे” 

“यही स्वतंत्रता हर अभिव्यक्ति को है। बहाना भले ही पेटदर्द जैसा बचनाना न हो” 

“तो फिर?” 

”बहाने प्रगतिशील होने चाहिये, प्रयोगधर्मी होने चाहिये, बहानों में बहाना बनाने वालों की विचारधारायें झांकनी चाहिये जैसे वरवरराव ने किया?” 

“कोई प्रेस कॉंफ्रेंस” 

”ना जी ना कोई टेढे सवाल पूछ लेता तो” 

”फिर?” 

“खुला पत्र लिखा है” 

”और बहाना क्या है?” 

“वरवर राव लिखते हैं – जब ‘हंस’ की ओर से प्रेमचंद जयंती पर 31 जुलाई 2013 को ‘अभिव्यक्ति और प्रतिबंध’ विषय पर बात रखने के लिए आमंत्रित किया गया तो मुझे लगा कि अपनी बात रखने का यह अच्छा मौका है। प्रेमचंद और उनके संपादन में निकली पत्रिका ‘हंस’ के नाम के आकर्षण ने मुझे दिल्ली आने के लिए प्रेरित किया। इस आयोजन के लिए चुना गया विषय ”अभिव्यक्ति और प्रतिबंध” ने भी मुझे आकर्षित किया।“ 

”जब आकर्षित किया तो आये क्यों नहीं?” 

“वह भी लिखा उन्होंने कि – राजेन्द्र यादव खुद को प्रेमचंद की परम्परा में खड़ा करते हैं। ऐसे में सवाल बनता है कि वे अशोक वाजपेयी और गोविंदाचार्य को किस नजर से देखते हैं? और, इस आयोजन का अभीष्‍ट क्या है? बहरहाल, कारपोरेट सेक्टर की संस्कृति और हिंदूत्व की राजनीति करने वाले लोगों के साथ मंच पर एक साथ खड़ा होने को मंजूर करना न तो उचित है और न ही उनके साथ ”अभिव्यक्ति और प्रतिबंध” जैसे विषय पर बोलना मौजूं है। 

“बडी अच्छी हिन्दी में बात कही है वरवर राव ने” 

“क्रांतिकारी कवि हैं भाई भाषा एसी ही हो जाती है” 

“वह तो ठीक लेकिन फिर क्रांति कैसे होगी? अगर उनके ही सामने अपनी बात रही जाये जो पहले से आपसे सहमत हैं? बात तो तब होती जब अरुंधति कहती या वरवर राव बोलते और गोविन्दाचार्य या अशोक बाजपेयी पानी पानी हो जाते?” 

“कहीं उलटा हो जाता तो? कहीं बगले झांकनी पडती तो?” 

“ओह तभी….” 

”तो अब क्या होगा?” 

“लाल सलाम होगा। खूब लिखेंगे हम और हमारे जैसे कई कि जी हुजूर क्रांतिकारी कदम है पलायन। फासीवाद को अंगूठा दिखाना है पलायन। वीरता है पलायन। महानता है पलायन। अपनी बात रखने का तरीका है पलायन। और विषय ही था अभिव्यक्ति और प्रतिबन्ध तो यही हमारी अभिव्यक्ति का तरीका है और हम जिससे सहमत नहीं उनपर वीटो…ओह सॉरी प्रतिबन्ध लगाते हैं…जय हि…ओह सॉरी…सहारा प्र….ओह सॉरी सॉरी लाल सलाम”।

1 COMMENT

  1. श्री राजेंद्र यादव जी द्वारा हंस पत्रिका के माध्यम से मुशी प्रेमचंद के जन्म दिवस पर “अभिव्यक्ति और प्रतिबन्ध” विषय पर एक चर्चा का आयोजन किया गया जिसमे अशोक वाजपेयी,गोविन्दाचार्य,अरुंधती रॉय और नाक्साली विचारधारा के कवि वरवर राव को आमंत्रित किया गया.वरवर राव दिल्ली आये भी लेकिन उसके बाद गायब हो गए और कार्यक्रम में भी नहीं आये.अरुंधती रॉय ने भी गोष्ठी में अनुपस्थित रहकर अपना विरोध दर्शाया.विरोध इस बात का कि कभी पूंजीवाद का विरोध न करनेवाले और कार्पोरेट जगत के चहेते अशोक वाजपेयी और खांटी हिंदुत्व की विचारधारा से जुड़े रहनेवाले गोविन्दाचार्य को क्यों बुलाया गया? चर्चा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की हो उसमे किसी विशेष विचारधारा के ही लोगों को बुलाने का दुराग्रह फासिज्म नहीं तो क्या है?क्या केवल वामपंथी विचारधारा के लोगों को ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता होनी चाहिए?क्या लोकतंत्र में अन्य विचारधाराओं को अपने विचार व्यक्त करने से रोक जाना उचित है?क्या इसी वैचारिक जड़ता के कारण ही आज दुनिया से वामपंथ की दुकान बंद नहीं हो रही है?क्या ये मानसिकता भारतीय चिंतन “आ नो भद्र कृत्वो यन्तु विश्वतः” (सभी दिशाओं से नए विचारों को आने दो) अथवा माओत्से तुंग के “हजार फूल खिलने दो” के विपरीत नहीं है?

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