श्रद्धालु आलोचना के प्रतिवाद में

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

आधुनिक हिन्दी आलोचना इन दिनों ठहराव के दौर से गुजर रही है,आलोचना में यह गतिरोध क्यों आया? आलोचना में जब गतिरोध आता है तो उसे कैसे तोड़ा जाए? क्या गतिरोध से मुक्ति के काम में परंपरा हमारी मदद कर सकती है? क्या परंपरागत आलोचना के दायरे को तोड़ने की जरूरत है? ये कुछ सवाल हैं जिन पर नए नजरिए से विचार करने की जरूरत है। संभवत: हजारीप्रसाद द्विवेदी का लेखन इस संदर्भ में हमारी बहुत ज्यादा मदद कर सकता है। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इतिहास,आलोचना,निबंध और उपन्यास इन चार क्षेत्रों में जो कार्य किया है वह हमारे लिए ठहराव के दौर में रोशनी का काम कर सकता है।

आलोचना के नए मानक की तलाश में – हजारी प्रसाद द्विवेदी के बारे में आलोचना की दो पध्दति प्रचलन में हैं,इनमें पहली है रामविलास शर्मा की,दूसरी है नामवर सिंह की। दोनों के अंधभक्तों की कमी नहीं है। आलोचना में इसी अंधभक्ति के कारण सबसे ज्यादा समस्याएं पैदा हुई हैं। आलोचना में ठहराव अंधभक्ति और अनुकरण के कारण पैदा होता है। दूसरी ओर आलोचना पद्धति में श्रद्धा के तत्व का कोई स्थान नहीं है। आलोचना के लिए श्रद्धा की बजाय आलोचनात्मक विवेक की जरूरत होती है। दूसरी ओर किसी भी आलोचक की आलोचना एकांगी ढ़ंग से,वकील की शैली में नहीं की जानी चाहिए। आलोचना का अर्थ वकील की दलीलें नहीं है। आलोचक को वकील नहीं होना चाहिए। इसके अलावा आलोचना मे ठहराव आत्मगतबोध के कारण भी आता है, आलोचना को इच्छित दिशा में मोड़ना, आत्मगतता के तत्व का हावी हो जाना, आलोचना के यथार्थ से कट जाने का संकेत है। आलोचना मूलत: संवाद है, सापेक्ष संवाद है, समस्याकेन्द्रित संवाद है, पद्धतिगत संवाद है, आलोचना विनिमय है। आलोचना देती है तो लेती भी है। जो आलोचक या आलोचना इस दोहरी प्रक्रिया से नहीं गुजरती वह ठहराव की शिकार हो जाती है।

वर्तमान युग जनतंत्र का युग है,इस युग का नायक है मनुष्य। मनुष्य और मानवतावाद इस दौर के विचारधारात्मक संघर्ष की धुरी हैं। किसी भी विचारधारा अथवा व्यवस्था की कसौटी है मानवाधिकार। आलोचना में मानवतावाद की सबसे सुसंगत व्याख्या आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के यहां मिलती है। उनकी आलोचना में मनुष्य और मानवतावाद एक सुनिश्चित योजना के तहत दाखिल होते हैं, इस मानवतावाद और मनुष्य का स्वाधीनता संग्राम की जनतांत्रिकचेतना, मुक्तिकामीचेतना से गहरा संबंध है। यह ऐसा मानवतावाद है जो शीतयुध्द की छायाओं से मुक्त है। इस मानवतावाद के केन्द्र में मनुष्य की मुक्ति का लक्ष्य है।हजारीप्रसाद द्विवेदी की आलोचना पर रामविलास शर्मा के द्वारा जो आलोचना लिखी गयी है उसमें उनके अवदान पर एकांगी नजरिए से विचार किया गया है, रामविलास शर्मा ने यह सिद्ध किया है कि द्विवेदी जी ने मौलिक कुछ नहीं लिखा है, मौलिक जो कुछ लिखा है वह अन्य के द्वारा लिखा गया है अथवा रामचन्द्र शुक्ल या स्वयं उनके द्वारा लिखा गया है। इस पैमाने से द्विवेदीजी का सही मूल्यांकन संभव नहीं है।

आलोचना जब एकांगी हो जाती तो आलोचना में गतिरोध पैदा होता है, गतिरोध को तोड़ने अथवा आलोचनात्मक विकास की बुनियादी शर्त है आलोचना के सकारात्मक तत्वों की मींमासा पर जोर। मौजूदा आलोचनात्मक गतिरोध का एक अन्य कारण है अकादमिक स्तर पर आलोचना की सैद्धान्तिकी और पद्धति के पठन-पाठन,अनुसंधान की संरचनाओं और परंपरा का अभाव। इसी के गर्भ से यह भाव भी पैदा हुआ है कि कम लिखो और ज्यादा कमाओ, कम लिखो और ज्यादा कॉमनसेंस से सोचो और बोलो, हिन्दी में ज्यादा लिखने वाले को खराब और कम लिखने वाले को ज्यादा बेहतर माना जाता है।गोया ज्यादा लिखना पतन की निशानी हो!

आलोचना में गतिरोध का एक अन्य महत्वपूर्ण कारण है आलोचना का वाचिक परंपरा तक सीमित रहना।अकादमिक अनुशासन, लिखित रूप में आलोचना के कम से कम प्रयास हुए हैं। आलोचना में ढर्रे पर सोचने की आदत है। आलोचना के ठहराव का एक अन्य कारण यह भी है उसमें सामान्यत: हीनताबोध है, कुछ लोग यह मानकर चलते हैं कि गंभीर आलोचना तो फलां-फंला आलोचक ही कर सकता है, हम तो बेहतर सोच ही नहीं सकते। वहीं दूसरी ओर सोचने वाले आलोचकों की हालत इस कदर पतली है कि वे सोचते और पढ़ते कम बोलते ज्यादा हैं। अथवा दोहराते ज्यादा हैं। दोहराने वालों अथवा वाचाल किस्म के आलोचकों में आलोचनात्मक विनम्रता नहीं है, वे अन्य को कम पढ़ते हैं, जिसे पढ़ते हैं उसका नाम, संदर्भ छिपाते हैं, अन्य की बातों को अपने नाम से, मौलिक समीक्षा के नाम से चलाते हैं। अपने लेखन में हिन्दी के अनुसंधान कार्य को उल्लेख योग्य नहीं समझते। इस सबका परिणाम है आलोचना में पैदा हुआ मौजूदा गतिरोध।

संभवत: हमारे स्वनाम धन्य आलोचकों को आलोचना में गतिरोध नजर ही न आए। यदि वे स्वाभाविक रूप में सोच रहे हैं कि गतिरोध नहीं है तो वे गलत हैं। सवाल किया जाना चाहिए हिन्दी में ‘कविता के नए प्रतिमान’ के बाद आलोचना की कोई भी उल्लेखनीय कृति क्यों नहीं आयी? यानी चालीस साल से ज्यादा समय गुजर चुका है और आलोचना में किसी कृति का न आना उल्लेखनीय दुर्घटना ही कही जाएगी। यह बात दीगर है कि इस दौर में नामवरजी के हजारों व्याख्यान हुए हैं,आलोचना में अनेक संपादकीय लेख आए हैं, किंतु उनके द्वारा आलोचना की किसी किताब का न आना, महज संयोग नहीं है। इसी तरह रामविलास शर्मा ‘निराला की साहित्य साधना’ के बाद आलोचना की कोई महत्वपूर्ण किताब नहीं दे पाए। जबकि इस बीच उनकी डेढ़ दर्जन किताबें आयीं। मै यहां आलोचना की मुकम्मल किताब के संदर्भ में ध्यान खींच रहा हूँ। इस तथ्य की ओर ध्यान खीचने का अर्थ यह नहीं है कि इस बीच आलोचना में कुछ भी लिखा ही नहीं गया। लिखा गया है ढ़ेरों किताब आई हैं, हजारों लेख छपे हैं, हमने शब्दों और तर्कों के मैदान में परास्त करने का शास्त्र रचा है, आलोचना नहीं रची है। आलोचना जब परास्त करने, एक-दूसरे को ओछा दिखाने, मीन-मेख निकालने, छिद्रान्वेषण करने और बदनाम करने के लिए लिखी जाती है तो उसे आलोचना नहीं कहते। नामवर सिंह के द्वारा दिए गए असंख्य साक्षात्कार और लेख धीरे-धीरे किताबी शक्ल में आने शुरू हो गए हैं। उनका संवाद और साक्षात्कार विधा के रूप में मूल्यांकन होना अभी बाकी है। क्या यह सुनियोजित आलोचना है? आलोचना के अनुशासन को केन्द्र में रखकर लिखी गयी आलोचना है। इस बीच में यह प्रश्न भी विचारणीय है कि आलोचना किसे कहते हैं ?

आलोचना का कोई एक रूप, प्रकार, स्कूल आदि तय करना मुश्किल है, आलोचना अनेकरूपा है। आलोचना को किसी एक स्थान, एक विचारधारा आदि में सीमित करके देखना सही नहीं होगा। हम जब आलोचना का वर्गीकरण करते हैं तो यह एक स्वाभाविक कार्य है, क्योंकि प्रत्येक किस्म की आलोचना स्वयं की संरचनाओं की भी आलोचना होती है। अच्छी आलोचना वह है जो आत्म-चेतस हो। चूंकि हिन्दी में आलोचना की आकांक्षा अभी भी बची है, बिखरे हुए रूप में आलोचना लिखी जा रही है अत: वह मौजूदा ठहराव से भी मुक्त होगी। आलोचना का स्वरूप बदलेगा। आलोचना का नया बदला हुआ रूप बहुत कुछ सम-सामयिक विचार,संचार तकनीक,पध्दति और इण्टरडिसिपिलनरी एप्रोच पर निर्भर है। आलोचना जितना एकांगी दायरों की कैद से मुक्त होगी वह ज्यादा जनतांत्रिक होगी। मसलन् नए दौर में आलोचना भी अपने को वर्चुअल बना चुकी है। आलोचना के वर्चुअल होने का अर्थ है आलोचना का अकेलापन। पहले आलोचना साहित्य से जुड़ी थी, साहित्य के पाठक से जुड़ी थी, आलोचक, लेखक और कृति के बीच प्रत्यक्ष संबंध था,किंतु लंबे समय से यह संबंध टूट चुका है। लेखक और आलोचक के बीच अंतराल पैदा हो गया है।

आज स्थिति यह है कि आलोचक और लेखक दोनों में अपना अस्तित्व बनाए रखने की इच्छा तो है किंतु दोनों में एक साथ रहने, संवाद करने और एक-दूसरे से सीखने और सिखाने की आकांक्षा खत्म हो गयी है। फलत: लेखक अकेला है और आलोचक भी अकेला है। दोनों में अलगाव पैदा हो गया है। अब ये दोनों एक-दूसरे से सिर्फ प्रशंसा चाहते हैं, आलोचना नहीं चाहते। आलोचना रचना का स्पर्श करके निकल जाती है जिसे हम पुस्तक समीक्षा के नाम से जानते है। पुस्तक समीक्षा आलोचना का स्पर्श है,आलोचना नहीं है। रचना से बड़ा लेखक का अहं हो गया है। लेखक आलोचक की कंपनी पसंद करता है किंतु आलोचना पसंद नहीं करता, आलोचना करते ही नाराज हो जाता है। आलोचना वह है जिसमें विश्लेषण हो, व्याख्या हो, गहराई में जाकर विवेचन किया गया हो, शब्दों के बाहुल्य, शब्दों के अभाव को आलोचना नहीं कहते। रचना के मर्म का उद्धाटन किया जाय। आलोचना का काम यह भी है कि वह रचना को उसके व्यक्त लक्ष्य के परे ले जाय, पाठक को अनुशासित करने की बजाय खास किस्म की गतिविधि के लिए प्रेरित करे। आलोचना का बुनियादी कार्य है प्रतिरोध करना और धर्मनिरपेक्ष बनाना। जो आलोचना कठमुल्लापन अथवा पोंगापंथीभाव पैदा करती है उसे आलोचना नहीं कहे। आलोचना को जनतंत्र चाहिए। आलोचना और जनतंत्र की प्रक्रियाओं के गर्भ से धर्मनिरेक्ष समीक्षा विमर्श पैदा होता है।

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