चल फारूक अब्दुल्ला, दरिया में डूब जाएं!

-प्रवीण गुगनानी-
farooq abdullah 2

शेख अब्दुल्ला परिवार के चिरागदीन फारुक अब्दुल्ला किसी भी स्थिति में सठियाये नहीं हैं और न ही वे अपना होश खो बैठे हैं! उन्हें समीप से जानने वाले और मेरे जैसे उन पर सतत नयन गड़ाए रखने वाले उनके मंसूबों के बेहतर समझते हैं! वे सतत-निरंतर ऐसे व्यक्तव्य देकर, ऐसे व्यक्तियों को समर्थन देकर और ऐसी परिस्थितियां बनाकर अपने गुप्त पारिवारिक एजेंडे को आगे ही बढ़ाते रहते हैं. मुझे आश्चर्य नहीं है कि अब्दुल्ला परिवार का यह गुप्त एजेंडा पूरा भारत जानता है, मात्र गांधी परिवार को छोड़कर!

हाल ही में चुनाव की बहसबाजी का लाभ उठाकर जब शेख अब्दुल्ला के पोते और फारूक के बेटे और जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने कहा था कि मोदी को समर्थन देने के बजाय वे पाकिस्तान जाना पसंद करेंगे, तब उनके इस वाक्य से उनकी भारतीय संविधान के प्रति ली गई शपथ और उनके ह्रदय में पल-बढ़ रही कुत्सित भावनाएं उजागर हो गई थी. जब स्वयं फारुक अब्दुल्ला ने कहा कि मोदी को समर्थन देने वाले जाकर समन्दर में डूब जाएं, तब भी उनकी पुश्तैनी चिढ़ और कडुवाहट प्रकट हो गई थी. देश के सामने अब्दुल्ला परिवार का यह द्वेष भरा आचरण कोई नया नहीं है, एक भूलने की आदत वाले देश के नागरिक के रूप में हमें भी अपने दोष को स्वीकार करना चाहिए!

कुछ समय पूर्व ही जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देने वाले संविधान के अनुच्छेद 370 पर नरेंद्र मोदी के दिए बयान पर केंद्रीय मंत्री फारुक अब्दुल्ला ने तीखी प्रतिक्रिया में कहा था कि अगर मोदी लगातार 10 बार भी देश के प्रधानमंत्री बन जाएं, तो भी है विधान के इस अनुच्छेद में फेरबदल नहीं कर पाएंगे! मुझे आश्चर्य है कि देश के संविधान के प्रति श्रद्धा का अभिनय कर रहे इस परिवार को तब देश प्रेमी कांग्रेस ने इन सभी अवसरों पर यह स्मरण क्यों नहीं कराया था कि उनकी भाषा असंवैधानिक है? यदि तब उन्हें उनकी मित्र कांग्रेस के लोग यह स्मरण करा देते तो वे देश के प्रति अपने कर्तव्य का पालन भी कर लेते और भविष्य में बोतल में बंद इस अब्दुल्लारुपी जिन्न को समय पड़ने पर साधनें की स्थिति में और अधिक सुविधाजनक भी रहते! लोकतंत्र में आस्था रखते हुए कांग्रेस यह कह सकती थी कि प्रधानमन्त्री कोई भी बने, यदि देश एकमत है और संसद बहुमत है तो कश्मीर में धारा ३७० के अंत को कोई रोक नहीं सकता!

कुछ माह पूर्व की एक दुर्घटना का भी चिंतन करना होगा जिसमें मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला का कहना था कि विशेष दर्जे वाले जम्मू-कश्मीर का भारत से संपूर्ण विलय नहीं हुआ है. जिस कश्मीर के विलय के सम्बंध में भारत का राष्ट्रीय पक्ष सदा से यह रहा है कि कश्मीर का भारत में विलय अपरिवर्तनीय और अटल है और यह भी रहा है कि जम्मू कश्मीर भारतीय गणराज्य का अविभाज्य अंग है, उस कश्मीर के सन्दर्भ में जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने यूरोपीय देशों के राजदूतों के प्रतिनिधिमंडल के सामने यह कहा थी कि चार शर्तों के साथ राज्य का देश से विलय जरूर हुआ था, लेकिन अन्य प्रदेशों की तरह वह पूर्ण रूप से देश से नहीं जुड़ पाया है और यही कारण है कि राज्य का अपना अलग संविधान और ध्वज है. आगे यह कहते हुए उमर अब्दुल्ला ने हदें ही पार कर दी थी कि कश्मीर समस्या वर्ष 1990 में आतंकवाद के साथ नहीं, बल्कि विभाजन के समय शुरू हुई थी, जब जम्मू-कश्मीर को छोड़ अन्य सभी राज्यों का फैसला कर दिया गया था. मुख्यमंत्री उमर ने यह भी कहा था कि कश्मीर समस्या के समाधान के लिए जरूरी है कि इसके आंतरिक व बाहरी पहलुओं को देखते हुए केंद्र सरकार, अलगाववादियों व भारत-पाकिस्तान में बातचीत की प्रक्रिया शुरू हो. यूरोपियन प्रतिनिधिमंडल का कश्मीर प्रवास, उमर अब्दुल्ला की इस प्रकार की कुत्सित मुखरता और नवाज शरीफ का अमेरिका यात्रा का यह दुर्योग और पाकिस्तान का अमेरिका से मध्यस्थता का शोकगीत गाना सभी कुछ उस समय प्रायोजित था. कांग्रेसी समर्थन की बैसाखियों पर सरकार चला रहे उमर अब्दुल्ला जिस प्रकार की बात कह रहे थे या कर रहे हैं, वैसे ही स्वर तो अलगाव वादी कश्मीरी नेता सैयद अली शाह गिलानी व मीरवाइज उमर फारूख सहित अन्य अलगाववादी नेता भी बोल रहे हैं! गिरिराज ने जो भी कहा हो किन्तु उसके जवाब में एक निर्वाचित मुख्यमंत्री को यह सब प्रलाप नहीं कहना चाहिए था!

देश का युवा वर्ग इस उमर अब्दुल्ला और उनकें षड्यंत्री बुजुर्गों के प्रलाप को समझें इसलिए यह तथ्य वे जान लें कि “जम्मू-कश्मीर का “सशर्त विलय” नहीं बल्कि “पूर्ण विलय” हुआ है”. जम्मू-कश्मीर रियासत के तत्कालीन महाराजा हरिसिंह ने 26 अक्टूबर 1947 को एक विलय पत्र पर हस्ताक्षर करके उसे भारत सरकार के पास भेज दिया था और 27 अक्टूबर 1947 को भारत के गवर्नर जनरल लार्ड माउंटबेटन द्वारा इस विलय पत्र को उसी रूप में तुरन्त स्वीकार कर लिया कर इस विलय की वैधानिक आधारशिला रख दी गई थी. यहां इस बात का विशेष महत्व है कि महाराजा हरिसिंह का यह विलय पत्र भारत की शेष 560 रियासतों के विलय पत्र से किसी भी प्रकार से भिन्न नहीं था और इसमें कोई पूर्व शर्त भी नहीं रखी गई थी. तब प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने देशहित को अनदेखा करते हुए इस विलय को राज्य की जनता के निर्णय के साथ जोड़ने की घोषणा करके अपने जीवन की सबसे बड़ी भूलकर दी थी, जिसे देश आज भी भुगत रहा है. कश्मीर के संदर्भ में नेहरू की दूसरी बड़ी भूल 26 नवंबर 1949 को संविधानसभा में अनुच्छेद-370 का प्रावधान करवाना है, जिसके कारण इस राज्य को विशेष दर्जा प्राप्त हुआ था. तब भारतीय संविधान के जनक और तत्कालीन कानून मंत्री डॉ. भीमराव अम्बेडकर और संविधान सभा के कई सदस्यों ने ने इस अनुच्छेद को देशहित में न मानते हुए इसके प्रति अपनी घोर असहमति जताई थी किन्तु इस सब के बाद भी नेहरू जी ने जिद्द करके इस अनुक्छेद ३७० को अस्थाई बताते हुए और शीघ्र समाप्त करने का आश्वासन देकर पारित करा लिया था. इतिहास साक्षी है कि नेहरू की यह जिद अब्दुल्ला से अवैध प्रेम के कारण ही थी और वर्तमान साक्षी है कि नेहरु की इस जिद की भारत ने क्या बड़ी कीमत चुकाई और सतत चुकाता ही जा रहा है.

स्वतंत्र भारत में जो कश्मीर को लेकर बड़े कदम उठाये गए उसमें कांग्रेस की नरसिम्हा सरकार द्वारा भारतीय संसद के दोनों सदनों ने 22 फरवरी 1994 को सर्वसम्मति से प्रस्ताव भी है जो बड़ा ही साहसिक और प्रासंगिक है. इस प्रस्ताव में इस बात पर जोर दिया गया है कि सम्पूर्ण जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है. इसलिए पाकिस्तान को अपने कब्जे वाले राज्य के हिस्सों को खाली करना होगा. संसद का यह प्रस्ताव, कश्मीर के संघर्ष में शहीद हो गए श्यामा प्रसाद मुखर्जी की भावनाओं का शाब्दिक किन्तु आंशिक प्रस्तुतीकरण था. अब्दुल्ला परिवार के सतत चलते कुत्सित आचरण से श्यामाप्रसाद मुखर्जी की प्रजा परिषद् और उससे से मुखरित हुई कश्मीर की भारत प्रेमी भावनाएं आज भी संघर्ष रत हैं और भारत की अखंडता भी इस अब्दुल्ला परिवार के चलते ही संघर्ष रत हैं, परिस्थितियां तो यही कह रही हैं.

3 COMMENTS

  1. प्रवीण गुगनानी का यह लेख तथ्यपूर्ण है , जिस में अब्दुल्ला बाप बेटों की स्वार्थमयी नीति
    साफ़ दिखाई देती है । पर ये दोगले लोग तथ्य को नहीं मानेंगे ।

  2. (१) “उमर अब्दुल्ला ने कहा था कि मोदी को समर्थन देने के बजाय वे पाकिस्तान जाना पसंद करेंगे|”–
    अब आपने मोदी को समर्थन तो दिया नहीं है। तो आप ही के वचनानुसार, “पाकिस्थान” –कब जा रहे है?
    =>”क्या चुनाव आयोग इसे देशद्रोह नहीं मानेगा?” <==
    (२)आपकी, श्रीनगर वाली कश्मिर घाटी क्षेत्रफल में सारे जम्मु, कश्मिर और लद्दाख के अनुपात को देखे, तो, मात्र ७% है।–इसका अलग होना मूर्खता ही है।
    (३) लिखके रखें मात्र बडे देश ही (जिसमें भारत भी है) महा सत्ता हो सकते हैं। और बुद्धिहीन ही, महासत्ता की क्षमता रखनेवाले भारत से अलग होने की सोच सकते हैं।
    (४)पाकिस्तान और बंगला भारत से अलग होकर क्या पा लिए? बंगलादेशी अवैध रूपसे भारत में फिर आते हैं; क्यों? अब्दुल्ला जी, आप ( कश्मिरी) अलग होकर फिर भारत में अवैध आकर नौकरी करोगे। इससे अच्छा है, कि सँभल जाओ। विलीन हो कर गौरव से कहो, कि आप भी भारतीय है, गौरवान्वित है।
    प्रवीण गुगनानी जी को, सुन्दर आलेख के लिए, सस्नेह धन्यवाद।

  3. चल फारूक अब्दुल्ला, दरिया में डूब जाएं! फारुख अब्दुल्ला को साथ ले डूबने की कोई आवश्यकता अथवा विवशता नहीं है| मोदी समर्थकों का दरिया ही फारुख अब्दुल्ला को ले डूबेगा| अभी तो किसी निर्दोष हिन्दू अथवा मुसलमान कश्मीरी व भारतीय सैनिक के आंतकवादी के हाथों मृत्यु का दोष मैं उन भारतीयों को देता रहूँगा जो जवाहरलाल नेहरु द्वारा पारित संविधान के अनुच्छेद ३७० के अभिशाप से जाने अनजाने मुक्ति नहीं पाना चाहते हैं| प्रवीण गुगनानी जी के इस शोधपूर्ण निबंध से प्रेरित महाविद्यालयों व सामाजिक अनुसंधान संस्थाओं को जवाहरलाल नेहरु व भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पर गंभीरता से शोधकार्य करने चाहियें ताकि उनमें देश-विरोधी त्रुटियों को दूर करते उनकी तथाकथित स्वतंत्रता से पहले की अनुपयुक्त बपौती को मिटाया जा सके और इस प्रकार एक उज्जवल स्वतंत्र भारत का शिलान्यास हो पाए|

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