
—विनय कुमार विनायक
पिता जो बिन कहे सबकुछ कहे
उसे पिता कहते हैं!
माता जो कभी चुप ना रहे कहे
मुंह गोहे मां कहते हैं!
पिता जो रोए बिना आवाज के
मुस्कुराए मन ही मन
उसे पिता कहते हैं!
माता कभी रोती नहीं सामने
सिर्फ उदास हो लेती
उसे मां कहते हैं!
पिता सोए बच्चों को निहार के
आश्वस्त हो लेते हैं!
मां बार-बार निहारती बच्चों को
बलैयां लेती कुछ ना हो!
पिता हमेशा ख्वाब देखते भोली सी
एक पुत्रवधू को लाने का!
माता ख्वाब संजोए होती बेटी का
एक बेटे सा गुड्डा पाने का!
पिता ने जैसे देखा अपने पिता को
वैसे ही देखते हैं पुत्र को भी!
माता को जैसा गुड्डा मिला
वैसा ही तलाशती बेटी के लिए भी!
पिता को वैसी चाहिए वधू
जिसमें दिखे अपनी मां जैसी ममता,
तब कही बेटे के लिए आश्वस्त होता!
मां को चाहिए चांद सी वधू
मां को बचपन से बुढ़ापे तक पसंद है
चांद-चांदनी सा गुड्डा-गुड़िया!
पिता की हमेशा से ही चाहत रही
अपनी मां सी प्यारी एक पुत्रवधू हो
और अपने पिता सा जमाई!
जिसमें आश्वस्ति-विश्वसनीयता हो
खुशहाल जिन्दगी जीने की!
पिता सदा माता-पिता के साथ रहते,
माता-पिता के बाद अगली पीढ़ी में
आजीवन तलाशते अपने माता-पिता!
कोई पिता छोड़ता नहीं मां पिता का घर,
जबकि मां अपने मां-पिता को त्याग कर
बसा लेती नया घर मगर भूलती नहीं
गुड्डा-गुड़िया का खेल,चांद चाहिए की मांग
बनी रहती लाड़ली अपने मां पिता की!
मेरे पिता मुझे बाबू,बाबू कहके चले गए
और मां गुड़िया,पुतली बुदबुदाके के गई!
मैं बाबू का बाबू हूं,मेरी बहन मां की गुड़िया,
देशी रिवाज है पिता व पुत्र को बाबू कहना!
जबकि बेटी गुड़िया, पुतली,परी ही होती
मां मासूम होती गुड़ियों सी,गुड्डा-गुड्डी खेली
गुड्डा-गुड़िया जनती,उससे घुल-मिल जाती
और उसकी याद में ही आंखें मूंद लेती!
पिता को चाहिए अपने माता-पिता जैसा
बहू-बेटा,बेटी-जमाता अन्यथा रहते गुमसुम सा!
—विनय कुमार विनायक