दुलीचंद कालीरमन

भारतीय संसद में नागरिकता संशोधन बिल 2019 को बहुमत से पारित कर दिया. इस बिल के माध्यम से नागरिकता अधिनियम 1955 में बदलाव किया गया है. इस संशोधन से अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश में धार्मिक प्रताड़ना झेल कर भारत आए हिंदू, सिख, ईसाई, पारसी व जैन समुदाय के उन लोगों को नागरिकता का अधिकार मिलेगा, जिन्होंने 31 दिसंबर 2014 तक भारत में प्रवेश कर लिया था.
जब संसद के दोनों सदनों में इस बिल पर बहस हो रही थी. तब कुछ विपक्षी पार्टियों ने इसे मुस्लिम विरोधी दर्शाने का प्रयास किया. ओवैसी जैसे नेताओं ने तो बिल की प्रति को संसद में ही मुस्लिम-विरोधी करार देते हुए फाड़ दिया.
इस नागरिकता संशोधन बिल के विरोध में सबसे ज्यादा विरोध पूर्वोत्तर भारत में हुआ. असम, मेघालय, मिजोरम, त्रिपुरा व अरुणाचल प्रदेश के नागरिकों को यह डर था कि बंगलादेश से आए अवैध रूप से हिंदू शरणार्थी नागरिकता मिलने के बाद इस क्षेत्र में भाषाई, सामाजिक एवं सांस्कृतिक संतुलन के लिए खतरा बन सकते हैं. असम के लोगों को भी ‘असम-समझौते’ के तहत उनकी भाषा, संस्कृति, सामाजिक पहचान एवं धरोहरों के संरक्षण की प्रशासनिक व्यवस्था सुनिश्चित की गई है. इस क्षेत्र के लोगों को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व गृहमंत्री अमित शाह ने भी भरोसा दिलाने का प्रयास किया कि इस क्षेत्र के लोगों की सभी चिंताओं का ख्याल रखा जाएगा. इसका असर भी हुआ तथा पूर्वोत्तर के ज्यादातर संगठनों ने अपना विरोध स्थगित कर दिया.
राज्य सरकारों की तरफ से पहला विरोध पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की तरफ से आया. उन्होंने घोषणा की कि नागरिकता संशोधन बिल को पश्चिम बंगाल में लागू नहीं किया जाएगा. जिस से प्रेरित होकर गैर एनडीए राज्य सरकारों जैसे पंजाब, केरल ,दिल्ली आदि राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने भी इसे लागू न करने की घोषणा कर दी.
इस बिल के विरोध में सभी विरोधी राज्य सरकारों या राजनीतिक दल संविधान बचाने की दुहाई दे रहे हैं. कोई धर्मनिरपेक्षता की दुहाई दे रहा है, तो कोई संविधान के अनुच्छेद-14 की. जबकि यह जगजाहिर है कि वर्तमान नागरिकता संशोधन बिल का भारत के वर्तमान नागरिकों से कोई लेना-देना नहीं है, बल्कि मुस्लिम बहुल धार्मिक देशों में अल्पसंख्यक के रूप में प्रताड़ित हिंदू, सिख, पारसी, जैन व ईसाई लोगों को नागरिकता प्रदान करने के लिए इस बिल को लाया गया है.
संविधान के अनुसार भारत राज्यों का संघ है. भारतीय संविधान में कानून निर्माण एवं शक्तियों का बंटवारा केंद्रीय सूची, राज्य सूची व समवर्ती सूची में किया गया है. संघ सूची के विषयों पर केवल केंद्र सरकार कानून बना सकती है. यह विषय संविधान लागू होते समय 97 थे, जबकि वर्तमान में इनकी संख्या 100 है. राज्य सूची के संविधान लागू होते समय 66 विषय थे जबकि वर्तमान में इनकी संख्या 61 है. जिन पर संबंधित राज्य की सरकारें अपने अनुसार कानून बना सकती हैं. इसी प्रकार समवर्ती सूची जिसमें केंद्र व राज्य सरकारें दोनों कानून बना सकती हैं. लेकिन किसी भी विरोधाभास की स्थिति में केवल केंद्रीय कानून ही मान्य होगा. ऐसे समवर्ती विषयों की संख्या प्रारंभ में 47 थी जो अब 52 हो चुकी है.
संघ सूची में रक्षा, विदेश मामले, रेल, डाक, नागरिकता, संचार, मुद्रा, जनगणना एवं आयकर आदि मामले आते हैं. अतः नागरिकता संघ सूची का विषय होने के कारण कोई भी राज्य सरकार संसद द्वारा पारित कानून को लागू करने से मना नहीं कर सकती और यही संघवाद या संविधान की केंद्रीय भावना है. भारत का संविधान किसी भी राज्यपाल को यह अधिकार देता है कि यदि कोई भी राज्य सरकार संसद के दोनों सदनों से पारित किसी भी कानून को लागू नहीं करती या उसका पालन नहीं करती है तो राज्यपाल संविधान की धारा-356 के तहत उसे बर्खास्त करने के लिए राष्ट्रपति महोदय को अपनी अनुशंसा भेज सकता है.
कई राज्य सरकारें ऐसी स्थिति में भी राजनीतिक स्वार्थ सिद्ध होता देखती हैं. वह अपनी ‘अंगुली कटवा कर शहीद होना’ चाहती हैं. कई सरकारें राजनीतिक तुष्टीकरण के लिए यह खतरा भी उठा लेती हैं, लेकिन संघवाद की भावना के लिए यह रास्ता खतरों से खाली नहीं है. पश्चिम बंगाल की सरकार इसी राह पर चलती दिख रही है. पहले रियल एस्टेट से जुड़े “रेरा-कानून” फिर घुसपैठियों से संबंधित “एनआरसी” तथा अब “नागरिकता संशोधन बिल” को लेकर उसके वक्तव्य संविधान की मर्यादा का निरादर करते हैं. इससे पहले भी आंध्र प्रदेश और पश्चिम बंगाल अपने-अपने राज्यों में सीबीआई को जांच करने का अधिकार वापस ले चुके हैं. कई राज्य सरकारें केंद्र द्वारा पारित “मोटर व्हीकल एक्ट” को लागू करने में ढील बरत रही है
इसी प्रकार की अव्यवस्था राज्य में सत्ता परिवर्तन के बाद देखने को मिलती है. राज्यों के हितों को ताक पर रखकर महज अपने राजनीतिक प्रतिशोध के लिए पूर्ववर्ती सरकार द्वारा चलाए जा रहे अति महत्वपूर्ण कार्यों व परियोजनाओं को समीक्षा के नाम पर रोका जाना तथा ठंडे बस्ते में डाल देना संबंधित राज्य के वित्तीय हितों के विरुद्ध है.
ताजा उदाहरण महाराष्ट्र में शिवसेना के नेतृत्व में सरकार बनने के बाद मुंबई मेट्रो-3 कार शेड के निर्माण को रोक दिया गया. जबकि इससे पहले के कार्यकाल में जब यह योजना बनाई गई थी तब शिवसेना सत्ता में भागीदार थी. आंध्र प्रदेश में जगनमोहन रेड्डी के नेतृत्व में सरकार बनने के बाद अमरावती में बनने वाली आंध्र प्रदेश की नई राजधानी का 217 वर्ग मील क्षेत्र में फैला निर्माण कार्य ठप सा उड़ गया है.
हम सब जानते हैं कि जैसे-जैसे समय बदलता है, निर्माण योजनाओं का खर्च बढ़ता चला जाता है यह पैसा आम आदमी की जेब से कर के रूप में लिया जाता है. इस प्रकार की राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता के कारण देरी से नुकसान उन्हीं वोटों का होता है जिनके वोटों के माध्यम से कोई भी दल सरकार में आता है.
संविधान बचाने के नारे लगाना तो आसान है लेकिन संविधान बचाने की जिम्मेदारी केंद्र के साथ-साथ राज्य सरकारों की भी होती है. सिर्फ प्रश्न खड़ा करना ही राजनीतिक दलों का मकसद नहीं होना चाहिए, उन प्रश्नों के उत्तर भी उन्हें जनता के सामने रखने होंगे. जनता को महज अपने स्वार्थ के लिए विरोध के नाम पर दंगों और आर्थिक अव्यवस्था में धकेलना संविधान का निरादर व संघवाद को खतरा है.