विलंब में दिया जाने वाला न्याय नही अन्याय है

डा.राधेश्याम द्विवेदी,

एक जनतांत्रिक विकासशील देश के लिए जरूरी है कि हर आदमी को सुलभ और त्वरित न्याय मिल सके। इसके लिए राज्य को समुचित प्रबंध और दीर्घकारी स्थायी योजनाएं बनानी चाहिए। एक स्वतंत्र, निष्पक्ष व कुशल न्यायपालिका की किसी भी देश की प्रगति में महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। नागरिकों का शासन के तीनों अंगों में से सर्वाधिक विश्वास न्यायपालिका में ही होता है। लेकिन हमारी न्यायपालिका की कार्यप्रणाली बेहद धीमी और लगभग अक्षम हो चली है। अतः त्वरित न्याय सुनिश्चित करने, कानून के शासन को बनाए रखने तथा सुशासन की व्यवस्था कायम रखने के लिये न्यायिक सुधारों पर अमल किये जाने की जरूरत है। सामान्य जन को अपने मुकदमे के निपटारे के लिए निर्धारित समय सीमा का कम से कम ढाई से तीन गुना समय लग जाता है। प्रमुख कारण 1.खुद सरकार का पक्षकार होना कानूनविद और विधि विशेषज्ञ भारतीय न्यायपालिका की कच्छप गति के लिए कुछ विशेष कारणों को ही जिम्मेदार मानते हैं। इनमें सबसे पहला कारण खुद सरकार है। हमारे देश में आज लंबित लगभग साढ़े तीन करोड़ से ज्यादा मुकदमों लम्बित है । इन लंबित मुकदमों में से एक तिहाई मुकदमों में सरकार खुद एक पक्ष है। अपराधिक वादों में सामान्यतः सरकार ही वादी होता है। सरकार को अविलंब ही इस दिशा में काम करना चाहिए। फालतू व जबरन दर्ज किए कराए मुकदमों को वापस लिए जाने की दिशा में ठोस कदम उठाने चाहिए। एक ऐसी स्क्रूटनाइजेशन जैसी व्यवस्था करनी चाहिए जो अपने स्तर पर जांच करके सरकार को वादी प्रतिवादी बनने से बचाने और अनावश्यक अपील करके उसे लंबा ना हो पाने में मदद करे। 2.बहुस्तरीय न्याय व्यवस्था का प्रावधान कानूनविद मानते हैं कि भारतीय न्याय व्यवस्था में किसी भी निरपराध को सजा से बचाने के लिए बहुस्तरीय न्याय व्यवस्था का प्रावधान किया गया। लेकिन इससे मुकदमों के निस्तारण धीमा व बहुत खर्चीला हो जाता है। एक आकलन के अनुसार यदि किसी मुकदमे को अपने सारे स्तरों से गुजरना पडे़ तो भी मौजूदा स्थितियों में कम से कम पांच से आठ वर्षों का समय लगना अवश्यम्भावी है। बढ़ती जनसंख्या , समाज में बढ़ते अपराध , लोगों की अपने विधिक अधिकारों के प्रति सजगता में आई तेजी , देश में अदालतों और न्यायाधीशों की भारी कमी , अधीनस्थ न्यायालयों में ढांचागत सुविधाओं का अभाव , न्यायाधीशों व न्यायकर्मियों को मूलभूत सुविधाओं की अनुपलब्धता के कारण उनकी कार्यकुशलता तथा मनोभावों पर पड़ता नकारात्मक प्रभाव, न्यायपालिका में तेजी से बढ़ता भ्रष्टाचार आदि कुछ ऐसे ही मुख्य कारण हैं जिन्होंने अदालती कार्यवाहियों को दिन महीनों की तारीखों में उलझा कर रख दिया है। न्यायिक सुधार के उपाय 1.बड़ी संख्या में अदालतों का गठन व वैकल्पिक उपाय अपनाये जांय न्यायप्रक्रिया को गति प्रदान करने के लिए सरकार को सबसे पहले देश में ज्यादा से ज्यादा अदालतों के गठन के साथ ही न्यायाधीशों की नियुक्ति और रिक्त स्थानों को भरने की तुरंत व्यवस्था करनी चाहिए। वर्तमान सममय में मुकदमों के निस्तारण के लिए भारतीय न्यायपालिका द्वारा अपनाए जा रहे सभी वैकल्पिक उपायों जैसे मध्यस्थता की प्रक्रिया, लोक अदालतों का गठन, विधिक सेवा का विस्तार, ग्राम अदालतों का गठन, लोगों में कानून एवं व्यवस्था के प्रति डर की भावना जाग्रत करना, प्रशासन द्वारा अपराध की रोकथाम हेतु गंभीर प्रयास, अदालती कार्यवाहियों में स्थगन लेने व देने की प्रवृत्ति में बदलाव, अधिवक्ताओं द्वारा हड़ताल, बहिष्कार जैसी प्रवृत्तियों को न अपनाए जाने के प्रति किए जाने वाले उपाय आदि से अदालत में सिसक और घिसट रहे मुकदमों में जरूर रफ्तार लाई जा सकेगी। 2.लम्बित मामलों की बढ़ती हुई संख्या कम की जाय आज न्यायपालिका कई समस्याओं से जूझ रही है। जजों की नियुक्ति में अपारदर्शिता या बड़ी संख्या में लंबित पड़े मामलों में आज न्यायपालिका ऐसे दौर से गुजर रही है, जहाँ उसकी भूमिका पहले से कहीं अधिक व्यापक है। रेप जैसे संवेदन शील मामलों में विलम्ब होने से सामाजिक ताना बाना सर्वाधिक प्रभावित हो रहा है। जो वाद दो माह में निपटने की अपराध प्रक्रिया संहिता में समय बद्ध है उसे दसों साल तक लग जाते हैं । इतने लम्बे समय में वादी तथा साक्षी दोनो हतोत्साहित तथा भयभीत किये जाते रहते हैं और सरकार कुछ भी कर सकने में असमर्थ हो जाती है। 3.त्वरित न्याय दिया जाय भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत त्वरित न्याय की गारंटी दी गई है। आपराधिक मुकदमों के शीघ्र निपटान में होने वाला विलंब संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत प्राप्त जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन है। अतः त्वरित न्याय सुनिश्चित करने हेतु न्यायिक सुधारों को अमल में लाया जाना चाहिये। इसके लिए एक मूल कारण न्यायाधीशों की अत्यन्त कम संख्या होना है। न्यायाधीशों की नियुक्ति को लेकर सरकार और न्यायपालिका के बीच चल रहे टकराव के कारण नए जजों की नियुक्ति नहीं हो पाती है। न्यायाधीशों की संख्या कम होने का प्रभाव यह देखा जा रहा है कि शीर्ष न्यापालिका से लेकर जिला न्यायालय तक बड़ी संख्या में मामले लंबित पड़े हुए हैं। 4.मुख्य न्यायाधीशों को कम समय का कार्यकाल ना हो प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति की तुलना में भारत के मुख्य न्यायाधीश का कार्यकाल अत्यंत ही छोटा है। कई अध्ययनों द्वारा यह प्रमाणित किया हुआ है कि कार्यकाल की अधिकतम अवधि, उच्च दक्षता और बेहतर प्रदर्शन को सुनिश्चित करने के लिये महत्त्वपूर्ण है। भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीशों की हमेशा से यह शिकायत रही है कि उन्हें न्यायपालिका के लिये सुधारात्मक गतिविधियों को अंजाम तक पहुँचाने का पर्याप्त समय नहीं मिला। अतः इस संबंध में सुधार किये जाने की महती आवश्यकता है। भारत में एक ऐसी वैधानिक व्यवस्था जिसमें कि अधिकांश मामलों की सुनवाई एक बड़ी बेंच द्वारा किये जाने की बजाय अलग-अलग जजों द्वारा की जाती है। जहाँ पेंडिंग पड़े मामलों की संख्या लाखों में है। जहाँ जजों का व्याख्यात्मक दर्शन अलग-अलग है। 5.जटिल एवं महँगी न्यायिक प्रक्रिया को सरल किया जाय देश में न्यायिक प्रक्रिया अत्यंत जटिल एवं महँगी है। यही कारण है कि एक बड़ा वर्ग जो कि आर्थिक तौर पर सशक्त नहीं है न्याय से वंचित रह जाता है। न्यायिक सुधार इसलिये भी आवश्यक है क्योंकि आर्थिक महत्त्व के मामलों में देर की वजह से देश की आर्थिक प्रगति भी बाधित होती है। लोग आधे अधूरे न्याय लेकर संतुष्ट होने को मजबूर होते हैं। बड़े व सम्पन्न लोग छोटी से छोटी बातों के लिए अवकाश या रात में भी न्यायालय खुलवा लेते हैं परन्तु आम जनता को न्यायालय के समय में जज साहबान समय का अभाव का रोना रोते लगते हैं। 6. व्यवहारिक और प्रभावी उपाय अपनाये जांय संविधान की बुनियादी विशेषताओं के अनुरूप व्यावहारिक और प्रभावी सुधार किया जाना चाहिए। न्यायपालिका की जवाबदेही,शीघ्र न्याय,मुकदमेबाजी के खर्चों में कटौती, अदालतों में व्यवस्थित कार्यवाही ,न्यायिक व्यवस्था में विश्वास, किया जाय। इसमें कोई शक नहीं है कि मुख्य न्यायाधीश पीठ गठित करने के लिये स्वतंत्र है। हमें यह ध्यान रखना होगा कि कानून के शासन का अर्थ ही यह है कि किसी भी व्यक्ति को कानून के ऊपर वरीयता नहीं दी जा सकती है। न्याय हर निचले से निचले व्यक्ति के पहुंच में होना चाहिए। जब तक ये उपाय अपनाये नहीं जाएगें हमरी न्याय व्यवस्था ना तो निष्पक्ष कही जा सकेगी और ना ही इसे सही मायने में न्याय कहा जा सकेगा। यह मात्र न्याय का ढ़ोंग या नाटक ही कहा जा सकेगा।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here