गुबार भरे राहों में
खुस्क फ़िज़ा की बाहों में
कंवल के मनिन्द
खिला तेरा चेहरा देखा
गुनचों में उलझी लटें
हवा के इशारे पर
आंखो पे झुक
पलकों मे उलझ
चेहरे पर बिखर रहीं
खाक की आंधी में
इक महज़बी देखा
बलिस्ते भर थी दूरियाँ
धड़कने करीब थीं
सांसो की महक
होठों की चमक
चांदनी के रिद्ध में
चांद को संवरते देखा
गुनचों में उलझी लटें
हवा के इशारे पर
आंखो पे झुक
पलकों मे उलझ
चेहरे पर बिखर रहीं
खाक की आंधी में
इक महज़बी देखा
बहुत ही सुन्दर रचना बधाई ।
बहुत बेहतरीन!!