अध्यात्म का असल मतलब

om-हृदयनारायण दीक्षित

अध्यात्म रोचक शब्द है। सामान्यतया भक्ति या ईश्वर विषयक चर्चा को अध्यात्म कहा जाता है। पूजा पाठ करने वाले ‘आध्यात्मिक’ कहे जाते हैं। भारत के लोक जीवन में यह शब्द मुद्रा से भी ज्यादा तेज रफ्तार चलताऊ है लेकिन प्रगतिशील विद्वानों के बीच उबाऊ है और घिसा पटा है। घिसा इसलिए कि पुराना है, पिटा इसलिए कि इसका रूप आस्थावादी है। लेकिन अध्यात्म का मूल अर्थ ‘ईश्वर सम्बंधी’/ईश्वरीय चर्चा या ईश्वर ज्ञान कदापि नहीं है। गीता के अध्याय 8 की शुरूवात अर्जुन के प्रश्नों से होती है, पूंछते है ”हे पुरूषोत्ताम! वह ब्रह्म क्या है? अध्यात्म क्या है? और कर्म के माने क्या है? (अध्याय 8 श्लोक1, लोकमान्य तिलक का अनुवाद, गीता रहस्य पृष्ठ 489) मूल श्लोक है ‘ किं तद् ब्रह्मं किम् अध्यात्मं किं कर्म पुरूषोत्ताम”। प्रश्न सीधा है। यहां ब्रह्म की जिज्ञासा है, ब्रह्म ईश्वरीय जिज्ञासा है। आगे अध्यात्म जानने की इच्छा है। अध्यात्म ईश्वर या ब्रह्म चर्चा से अलग है। इसीलिए अध्यात्मक का प्रश्न भी अलग है। कर्म भी ईश्वरीय ज्ञान से अलग एक विषय है। इसलिए कर्म विषयक प्रश्न भी अलग से पूछा गया है। अब श्रीकृष्ण का सीधा उत्तार देखिए ”अक्षरं ब्रह्म परमं, स्वभावों अध्यात्म उच्यते – परम अक्षर अर्थात कभी भी नष्ट न होने वाला तत्व ब्रह्म है और प्रत्येक वस्तु का अपना मूलभाव (स्वभाव) अध्यात्म है। (तिलक-गीता रहस्य पृष्ठ 490) वासुदेवशरण अग्रवाल का अनुवाद है ”परम अक्षर (अविनाशी) तत्व ही ब्रह्म है। स्वभाव अध्यात्म कहा जाता है।” (गीता नवनीत, पृष्ठ 175)

अध्यात्म पारलौकिक विश्लेषण या दर्शन नहीं है। अध्यात्म का शाब्दिक अर्थ है – ‘स्वयं का अध्ययन-अध्ययन-आत्म। वासुदेवशरण अग्रवाल ने अध्यात्म की सुसंगत व्याख्या की है, ”इसका तात्पर्य यह है कि जो अपना भाव अर्थात् प्रत्येक जीव की एक-एक शरीर में पृथक पृथक सत्ता है, वही अध्यात्म है। समस्त सृष्टिगत भावों की व्याख्या जब मनुष्य शरीर के द्वारा (शारीरिक संदर्भ लेकर) की जाती है तो उसे ही अध्यात्म व्याख्या कहते हैं।” (वही, पृष्ठ 55) गीता में श्रीकृष्ण का उत्तार सरल है – स्वभावो अध्यात्म उच्यते – स्वभाव को अध्यात्म कहा जाता है। (8.3) स्व शब्द बड़ा प्यारा है। इससे कई शब्द बने हैं। ‘स्वयं’ शब्द इसी का विस्तार है। स्वार्थ भी इसी का हितैषी है। स्वानुभूति अनुभव विषयक ‘स्व’ है। सभी प्राणी मरणशील हैं, जब तक जीवित हैं, तब तक स्व हैं, तभी तक सुख हैं, संसार है, जिज्ञासाएं हैं, प्रश्न हैं। विज्ञान और दर्शन के अध्ययन है। प्रत्येक ‘स्व’ एक अलग इकाई है। इसकी अपनी काया देह है, अपना मन है, बुध्दि है, विवेक है, दृष्टि है विचार हैं। इन सबसे मिलकर भीतर एक नया जगत् बनता है। इस भीतरी जगत् की अपनी निजी अनुभूति है, प्रीति और रीति भी है। अपने प्रियजन हैं, अपने इष्ट हैं। इन सबसे मिलकर बनता है ”एक भाव” इसे ‘स्वभाव’ कहते हैं। स्वभाव नितांत निजी वैयक्तिक अनुभूति होता है लेकिन स्वभाव की निर्मिति में माँ, पिता, मित्र परिजन और सम्पूर्ण समाज का प्रभाव पड़ता है। स्वभाव निजी सत्ता और प्रभाव बाहरी। जब स्वभाव प्रभाव को स्वीकार करता है, प्रभाव घुल जाता है, स्वभाव का हिस्सा बन जाता है। इसका उल्टा भी होता है, लेकिन बहुत कम होता है।

स्वभाव में अपनी निजता को बचाने की इच्छा होती है। निजता की रक्षा के प्रति अतिरिक्त सुरक्षा भाव भी होता है। निजता की रक्षा, निजता के प्रति विशेष संरक्षण सतर्क भाव ही ‘स्वाभिमान’ कहलाता है। स्वाभिमान, स्वभाव, स्वार्थ और स्वयं की विशिष्टता के कारण ही स्वभाव पर प्रभाव की जीत नहीं होती। बेशक स्वभाव पर दबाव के कारण प्रभाव पड़ते है, स्वभाव तो भी बना रहता है। तो भी ‘स्वभाव’ अजर और अमर नहीं होता। आखिरकार वह एक इकाई है, एक दैहिक सत्ताा (शरीर) है। विकास के क्रम में स्वभाव, स्वार्थ और स्वाभिमान का भी विकास होता है। खाटी निजीहित के स्वभाव वाले ‘स्वार्थी’ भी परिवार हित में निजस्वार्थ छोड़ते है। यहां स्वभाव के विकास का नया स्तर है। वे गांव-नगर या राष्ट्र क्षेत्र के हित में परिवार स्वार्थ से भी ऊपर उठते हैं, यह स्वभाव विकास की अगली मंजिल है। राष्ट्रवादी लोग निजी स्वभिमान की जगह राष्ट्रीय स्वाभिमान के स्तर तक विकसित होते है। विश्व को एक सम्पूर्ण जीवंत इकाई जानने मानने वाले सुधीजन विश्वमानव कल्याण के लिए राष्ट्र से ऊपर भी जाते हैं।

‘स्व’ का एक भौगोलिक क्षेत्र भी होता है। पहली परिधि और सीमा यह शरीर है। इसका स्वभाव, स्वार्थ और स्वाभिमान होता है। इसी का विस्तार ग्राम, राष्ट्र, विश्व के मनुष्य हैं। फिर सभी कीट पतिंगो और वनस्पतियों को भी शामिल किया जा सकता है। यहां स्व का भौगोलिक क्षेत्र बढ़ा है। फिर सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु और आकाश सहित समूचे ब्रह्माण्ड तक विस्तार होता है। तुलसीदास ने ‘परहित’ को धर्म कहा- परहित सरिस धर्म नहि भाई। यहां परहित स्वहित से बड़ा है। इसी तरह परहित से राष्ट्रहित, राष्ट्र हित से विश्वहित बड़ा है। लेकिन स्वार्थ तो भी है। स्व की सीमांए विश्व तक व्याप्त हो गयी हैं लेकिन अंतिम समूची मंजिल में ब्रह्माण्ड भी शामिल होता है। यहां स्व ससीम नहीं रहा। सीमांए टूट गयी। यही स्व चरम पर पहुंचा और परम हो गया। इसी स्वार्थ का नाम अब परमार्थ होगा। स्वभाव भी अब परमभाव कहलाएगा। अध्यात्म कोरी ईश्वरीय चर्चा नहीं है। यह ‘स्वभाव’ को जानने की कैमिस्ट्री है। अध्यात्म मानव मन की परतों का अजब गजब रासायनिक विश्लेषण है। वृहदारण्यक उपनिषद् (2.3.4) में कहते हैं ”अध्यात्म का वर्णन किया जाता है ”अथ अध्यात्म मिदमेव”। समझाते है ”जो प्राण से और शरीर के भीतर आकाश से भिन्न है, यह मूर्त के, मर्त्य के इस सत् के सार हैं।” यहां अध्यात्म का विषय प्राण और आकाश को छोड़कर बाकी देह है। शंकराचार्य के भाष्य के अनुसार ”आध्यात्मिक शरीराम्भकस्य कार्यस्यैष रस: सार: – आध्यात्मिक शरीराम्भकस्य कार्यस्यैष रस: सार: – आध्यात्मिक यानी शरीराम्भक भूतों का यही रस यानी सार है।” वृहदारण्यक (शांकरभाष्यार्थ, गीता प्रेस पृष्ठ 520)

शरीर के भीतर चैतन्य है, प्राण है। इसके भीतर आकाश भी है। इसके अलावा बाकी जो कुछ है वह अध्यात्म है। अध्यात्म का अर्थ ‘स्व’ ही है। छान्दोग्य उपनिषद् का प्रथम अध्याय-प्रथम प्रपाठक ओ3म से प्रारम्भ होता है। यहां प्राण को श्रेष्ठ बताया गया है। फिर अधिदैवत् – देवों से सम्बंधित विवेचन (तीसरा खण्ड) है। प्रणव और उद्गीथ की व्याख्या है। ऋग्वेद के विद्वान ओ3म् को प्रणव कहते है। सामवेदी इसे उद्गीथ बताते हैं। दोनो एक हैं। यहां सृष्टि का विस्तार से वर्णन है। सातवें खण्ड में कहते हैं – अर्थ अध्यात्मम् यानी अब अध्यात्म सुनिए। (1.7.1) अनुवादक का विवेचन है, ”अध्यात्म (शरीर के सम्बंध में) कहते हैं। (छान्दोग्य उप0, प्रो0 राजाराम, डायनमिक पब्लिकेशन, पृष्ठ 22) यहां अध्यात्म शरीर चर्चा है। कहते है ”ऋचा वाणी है, साम प्राण है। (शंकराचार्य के अनुसार जो नासिका में प्राण है अर्थात घ्राण) साम गान ऋचा यानी वाणी के सहारे है।” फिर कहते हैं ”ऋचा आंख हैं। साम आत्मा (स्वयं) है। यह साम (स्वयं) इसी आंख के सहारे है।” फिर कहते हैं ”आंख की चमक ऋचा है, इसका नीला वर्ण साम है। इसका नीला अंश दीप्ति के सहारे है।” (वही, 2., 3, 4) अध्यात्म स्वयं का ही अध्ययन विश्लेषण है। यह एक अंतर्यात्रा है।

डॉ0 राधाकृष्णन् ने गीता के ‘अध्यात्म’ (8.3) विषयक तत्व पर टिप्पणी की है ”अध्यात्म – शरीर का स्वामी, उपभोक्ता। यह ब्रह्म की वह प्रावस्था है जो वैयक्तिक बनती है।” (श्रीमद्भगवद् गीता, डॉ0 राधाकृष्णन पृष्ठ 207) यहां ब्रह्म चेतना वैयक्तिक चेतना बन गया है। ब्रह्म बना या कोई और, असली बात वैयक्तिक चेतना ही है। वैयक्तिक चेतना का गहन अध्ययन विवेचन-अध्यात्म ही मूल तत्व तक पहुंचाएगा। गीता के 7वें अध्याय (श्लोक 29) में भी अध्यात्म शब्द का प्रयोग हुआ है। कृष्ण कहते है ”जो मुझमें शरण लेते है और बुढ़ापा तथा मृत्यु से मुक्ति पाने की कोशिश करते हैं, वे ब्रह्म अध्यात्म व कर्म के सम्बंध में सब कुछ जान जाते हैं।” (डॉ0 राधाकृष्णन का अनुवाद) बुढ़ापा से मुक्ति की कोशिश सांसारिक कार्रवाई है। मृत्यु कष्ट से मुक्ति के प्रयास मानवीय इच्छाए हैं। ब्रह्म या ईश्वर जानने की इच्छा आदिम है। अध्यात्म का ज्ञान अर्थात निजी अध्ययन संसार में रहने का प्रथम सोपान है। कर्म प्रवीणता के बिना कोई उपलब्धि नही। मूल बात है स्वयं का विवेचन, स्वयं के अंतस् का अध्ययन, भीतर की ऐषणाओं के केन्द्र बिन्दु की खोज, अपने रागद्वैष, काम क्रोध, राग विराग के स्रोत की जानकारी। पूर्वजों ने इसे ही अध्यात्म कहा था।

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