एक संजीदा विषय पर कॉमेडी की मार
कलाकार: अरशद वारसी, अमित साध, अदिति राव हैदरी, रॉनित रॉय, दिव्यन्दु भट्टाचार्य, राजीव गुप्ता, बिजेंद्र काला
बैनर: फॉक्स स्टार स्टुडियोज़, मंगलमूर्ति फिल्म्स प्रा.लि.
निर्माता: संगीता अहिर
निर्देशक: सुभाष कपूर
संगीत: अमित त्रिवेदी
स्टार: 2.5

फिल्म का सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण पक्ष है खाप। यदि खाप को फिल्म का विलेन भी कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। खाप किस तरह प्यार करने वालों के प्रति कठोर हो सकती है, किस तरह एक बाप खाप के दबाव में आकर अपनी ही बेटी को गोली मार देता है, किस तरह परंपराओं को जिंदा रखने के लिए आधुनिक पीढ़ी को खाप का डर दिखाया जा रहा है; यह फिल्म में बखूबी दिखाया गया है। यहां तक कि खाप प्रभावित गावों और क्षेत्रों में राजनीति भी असहाय दिखाई देती है और कानून व्यवस्था तो खाप के सामने नतमस्तक ही है गोयाकि डर अच्छे-अच्छों को अपना गुलाम बना लेता है। हालांकि जब बबली खाप के सामने उनकी कमजोरियों और बुराइयों को उठाती है तो सिनेमा हॉल में जमकर तालियां बजती हैं मानो दर्शक भी खाप और उसके कानून को दबाना चाहता है। फिल्म में कन्या भ्रूण हत्या, बलात्कार, अपहरण जैसे मुद्दों पर खाप की दोहरी नीति को भी निशाना बनाया गया है। पिछले हफ्ते रिलीज हुई ‘मिस टनकपुर हाजिर हो’ को लेकर खाप ने बड़ा बवाल मचाया था, जबकि खाप को सभी मायनों में आईना तो सुभाष कपूर ने दिखाया है। यदि आप खाप की निर्दयता और बहशीपन को महसूस करना चाहते हैं तो यह फिल्म आपकी नसों में खून का प्रवाह तेज कर देगी क्योंकि खाप को इतना क्रूर इससे पहले कभी नहीं देखा गया।
फिल्म में हरियाणा को उसी आधार पर फिल्माया गया है जहां खाप का डर पीढ़ियों में बसा हुआ है। फिल्म में रोनित रॉय (बल्लू पहलवान) ने खाप के ताकतवर नेता का चुनौतीपूर्ण रोल पूरी शिद्दत से निभाया है गोयाकि उनकी अदाकारी ने ही खाप के प्रति नफरत बढ़ाई है। रंगीला के रोल में अरशद वारसी कुछ-कुछ जमे हैं। उनको पर्दे पर देखते हुए कहीं नहीं लगा कि वे अपने किरदार को ठीक ठंग से निभा रहे हों? ‘काई पो छे’ से अभिनय की बारीकियां सीखने वाले अमित साध (गुड्डू) तो और भी बुरे रहे। अदिति राव हैदरी (बेबी) को जो कहा गया सो उन्होंने किया। फिल्म में अदिति का पात्र हमेशा असमंजस में लगा। उनके अपहरण वाला ट्रैक गैर-जरूरी था और दर्शकों को बेवक़ूफ़ बनाता रहा। फिल्म की कहानी में एक और झोल है। रंगीला और बल्लू की 10 सालों की दुश्मनी के बावजूद बल्लू का रंगीला को न पहचानना लेखक की कल्पनाशीलता की कमी दर्शाता है। फिल्म के कमोबेश सभी पात्र हरियाणवी में बातें करते हैं मगर उनकी हरियाणवी मूल भाषा से काफी कमजोर है। अरशद वारसी और अमित साध बीच-बीच में हिंदी का अत्यधिक प्रयोग कर अपनी कमजोरी उजागर करते हैं। छोटे से किरदार में बिजेंद्र काला और इंस्पेक्टर के रोल में राजीव गुप्ता खूब जमे हैं।
फिल्म का संगीत कुछ ख़ास नहीं है। ‘माता का ईमेल’ फिल्म की शुरुआत में है और जो पांच मिनट भी सिनेमाघरों में देरी से पहुंचे होंगे, उन्होंने इसे मिस कर दिया होगा। गाने का फिल्मांकन ठीक-ठाक है और यह लोकप्रिय हो रहा है। बाकी गाने न भी होते तो कहानी पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। फिल्म का अंत गैंगवार की तरह फिल्माया गया है जिसे देखकर हंसी आती है। कुछ जमा चार लोगों (जिसमें दो महिलाएं भी हैं) को मारने के लिए निर्देशक ने 100-150 गुंडों की फ़ौज को मरवा दिया। फिल्म को कॉमेडी बताकर प्रमोट किया गया जो निराश करता है। हां, फिल्म के डायलॉग कसे हुए हैं और दर्शकों को गुदगुदाते हैं। डकैतों का फुटबॉलरों के प्रति प्रेम भी मजेदार ट्रैक है। कुल मिलाकर ‘गुड्डू रंगीला’ एक संजीदा फिल्म बनते-बनते रह गई। यदि फिल्म को लेकर निर्देशक की समझ और राय में एकरूपता होती तो इसकी सफलता में संदेह नहीं होता। फिर हॉलीवुड फिल्मों के दीवाने इसी हफ्ते रिलीज हुई टर्मिनेटर की पांचवी सीरीज देखेंगे जिससे ‘गुड्डू रंगीला’ को नुकसान होना तय है।