डूबते राष्ट्र,ग्रीस का संदेश

greeceप्रमोद भार्गव

पूंजीवादी के प्रति शीर्षक से मुक्तिबोध की एक कविता है,‘तेरा घ्वंस,केवल एक तेरा अर्थ।‘ पूंजीवादी आर्थिक साम्राज्यवाद का विंध्वंस अब प्रकट रूप में देखने में आने लगा है। जिस यूरोप की धरती से इस साम्राज्य के विस्तार का तंत्र फैला,उसी यूरोप के एक छोटे देश ग्रीस ने पूंजीवादी आर्थिक उदारवाद की अजगरी गुंजलक की गिरफ्त में आकर अपनी आर्थिक हैसियत चौपट कर दी है। क्योंकि उसे अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से लिया ड़ेढ़ अरब यूरो कर्ज चुकाना है। अगर वह ऐसा नहीं कर पाता तो दिवालिया घोषित किया जा सकता है। दूसरी तरफ युरोपीयन सेंट्रल बैंक ने भी ग्रीस को आपातकालीन निधि देने से इनकार कर दिया है। जिसका असर वैश्विक अर्थव्यस्था पर दिखाई देने लगे है। भारत समेत दुनिया के शेयर बाजार गिर गए हैं। इस हालात के चलते अब ग्रीस को यूरो जोन से भी बाहर होना पड़ सकता है। इस जोन में 16 देश शामिल हैं,जिनमें एक ही मुद्रा यूरो का चलन है। ग्रीस को इस कर्ज संकट का शिकार इसलिए होना पड़ा,क्योंकि उसने अपनी आर्थिक हैसियत से कहीं ज्यादा खर्च करना शुरू कर दिया था।

यूरोपीय देश होने के बावजूद ग्रीस कभी साम्राज्यवादी देश नहीं रहा। किंतु पूंजीवाद का हिमायती जरूर रहा। मानव समाज में जो पहले पहल आधुनिक सभ्यता और आर्थिक समृद्धि पनपी उनमें ग्रीस अग्रणी देशों में रहा है। आर्थिक उदारवाद ने 1990 के बाद जब वैश्विक गति पकड़ी तो ग्रीस भी आर्थक साम्राज्यवाद का अंधा अनुयायी हो गया। नतीजतन अमेरिका,ब्रिटेन और फ्रांस ने ग्रीस मंे अपनी आवारा पूंजी लगा दी। समृद्धि के भ्रम में बोये इन बबूल के बीजों ने ग्रीस में पतन की नींव डाल दी। ग्रीस की देशज अर्थव्यवस्था की जड़ें इस पूंजी के दीमक ने चाटना शुरू कर दीं। घरेलू उद्योग धंधे चौपट हो गए और ग्रीस का आर्थिक स्वावलंबन घटता गया। वह विदेशी पूंजी और उत्पादों पर निर्भर हो गया। गोया, ग्रीस पर 340 अरब यूरो कर्ज चढ़ गया,जो उसके सकल घरेलू उत्पाद से कहीं बहुत ज्यादा था। लिहाजा हालात इतने बद्तर हो गए कि उसे बाध्य होकर कर्जों से मुक्ति के लिए उन विश्वस्तरीय संपत्तियों की नीलामी के लिए इष्तहार देने पड़े,जिनकी उसने वैश्विक पूंजी को ललचाने के लिए आधारशिला रखी थी। लेकिन हैरानी में डालने वाली बात यह रही कि उसके हवाई अड्डों,बंदरगाहों,रेलवे स्टेषनों और ऐतिहासिक इमारतों का कोई खरीददार नहीं मिला। इस हतप्रभ स्थिति से सामना करने के बाद ग्रीस ने अब पूंजीवादी अभिशाप से छुटकारे के लिए जनता के जबरदस्त विरोध के बावजूद संसद में वह कानून पारित कर दिया है,जिसके मार्फत प्रशासनिक खर्चों में पर्याप्त कटौती की जा कर आर्थिक व्यवस्था को संतुलित बनाया जा सके। क्योंकि ग्रीस के पास वेतन और पेंषन देने के लायक धन ही नहीं है। ज्यादातर बैंकों में ताले डाल दिए गए हैं और एटीएम से 60 यूरो से ज्यादा की धनराशि निकाली नहीं जा सकती है। नतीजतन एटीएम के आगे लंबी कतारें लगी हैं। यही नहीं लोक कल्याण की ज्यादातर योजनाएं बंद कर दी गई है। ग्रीस के इस हालात निर्माण में 1990 में आए भूकंप और भ्रष्टचार प्रमुख कारण रहे हैं। भूकंप से जो तबाही हुई उसके चलते पर्यटन उद्योग प्रभावित हुआ,जो ग्रीस की अर्थव्यवस्था का प्रमुख आधार था। आर्थिक दिवाले के चलते उसका जहाजरानी से जुड़ा व्यापार भी चौपट हो गया है।

दुनिया में काल की दो अवधारणाएं हैं। पश्चिमी मान्यता के अनुसार,काल की धारणा एक रेखीय है। अर्थात उसका आदि भी है और अंत भी। जबकि भारतीय अवधारणा वृत्तीय है। मसलन उसका आदि व अंत नहीं है। वह निरंतर है। चक्रीय है। पूंजीवादी देश काल की योरोपीय मान्यता के अनुगामी हैं। इन देशों ने पहले राजनीतिक साम्राज्यवाद के जरिए दुनिया को लूटा और अब आर्थिक साम्राज्यवाद के जरिए दुनिया का आर्थिक दोहन करने में लगे हैं। दरअसल ये देश पिछली कुछ शताब्दियों से वैश्विक पूंजी का नाभिस्थल बने हुए हैं। अपनी आर्थिक साम्राज्यवादी नीतियों को व्यावसायिक अंजाम देने के नजरिए से इन्होंने बहुराष्ट्रीय कंपनियों की मजबूत सरंचना की और कंपनियों के माध्यम से तीसरी दुनिया के देशों में नवउदारवादी अर्थव्यस्था के तहत बड़े स्तर पर पूंजीनिवेश किया। इस निवेश का बड़ा हिस्सा प्राकृतिक संपदा के दोहन से जुड़ा है। निवेश के बाद खनिज के उत्खनन व विक्रय की प्रक्रिया निरंतर हो जाती है तो इस पूंजी का मूल धन मुनाफे के साथ निवेशकर्ता देश में लौटना शुरू हो जाता है। इससे इन देशों की केंद्रीयकृत जमा पूंजी में और-और इजाफा होने लगता है। नतीजतन ये देश पूंजीवाद की सफलता का डंका दुनिया में पीटते रहते है। साथ ही अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ऐसी नीतियों को अंजाम देते हैं,जो इन देशों के हित सरंक्षण करने वाली हों। ऐसा ये इसलिए कर पाते है,क्योंकि संयुक्त राष्ट्र,विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रय मुद्रा कोष जैसी संस्थाएं पूंजीवादी देशों के कब्जे में हैं। इन्हीं नीतियों को ये देश विकासशील देशों पर थोपकर अपने आर्थिक हित साधते हैं।

ग्रीस ने वैश्विक पूंजी निवेश को आमंत्रित करके अपनी देशज अर्थव्यस्था के संसाधनों को खतरे में डाल दिया। विकास की इस एक रेखीय अवधारणा ने ग्रीस के प्रति व्यक्ति आय को असंतुलित किया। राजनीति और प्रशासन से जूड़े लोगों के वेतन,भत्तों और खर्चों में बेतरदीब वृद्धि कर दी गई। जिससे उनकी क्रय शक्ति बढ़े और वे बहुराष्ट्रीय कंपनियों के भौतिक सुविधाएं परोसने वाले उत्पाद व उपकरणों को खरीद सकें। भौतिक वैभव,भोग लालसा और आर्थिक मोर्चे पर अमेरिका-ब्रिटेन जैसा बनने की इस तीव्र अकांक्षा ने ग्रीस की जड़ों में मट्ठा घोल दिया। इससे उबरने के लिए उसने अपनी हवाई व रेल जैसी बुनियादी सुविधाओं और औद्योगिक ठिकानों को बेचने अथवा गिरवी रखने के विज्ञापन भी दिए,लेकिन खरीदार नहीं मिले। दरअसल उदारवादी नीतियों की यह विशेषता रही है कि इन नीतियों का क्रियान्वयन करने वाले देशों की करीब एक तिहाई आबादी पर सारे राजनीतिक,प्रशासनिक और औद्योगिक तंत्र का कब्जा हो जाता है। ये उपाय इसलिए किए जाते हैं, ताकि वह आबादी इन भौतिक संसाधनों के भोग-उपभोग की आदि हो जाए,जिनके केंद्र में वैश्विक पूंजी गतिशील है।

ग्रीस में आर्थिक उदारवादी सामा्रज्य का ढहना इस बात का संकेत है कि विकास की ऊहापोह और जल्दबाजी में हम विकास का जो पूंजीवादी माॅडल तैयार कर रहे हैं,वह एक अभिशापित विनाश यात्रा से ज्यादा कुछ नहीं है। वैसे भी इस विकास के मूल में जो निहितार्थ अंतर्निहित हैं,उनका मकसद पूंजीवादी विकास के बहाने किसी भी देश की जनता को भोग-विलास की कुच्रकी प्रवृत्तियों का आदि बनाकर उनके हाड़-मांस से रक्त निचोड़ना है। क्योंकि इस सामा्रज्य का विस्तार खून-पसीने की कमाई का शोषण और प्राकृतिक संपदा के दोहन बिना संभव ही नहीं है ? बावजूद ग्रीस पर उदारवाद एवं बाजारवाद की शर्तें थोपी जा रही हैं। यूरोपियन सेंट्रल बैंक-यूरोपियन कमीशन,जिसे त्रिग्ूट नाम से भी जाना जाता है ने ग्रीस को कर्ज देने के बाबत शर्त लगाई है कि वह खर्चों की कटौती के साथ पेंषन में भारी कटौती करे और परोक्ष कर बढ़ाए। जबकि वहां की सरकार इन शर्तों को ग्रीस का अपमान मान रही है। इसलिए वहां के वामपंथी प्रधानमंत्री एलेक्सिस सिप्रास ने त्रिगुट के प्रस्ताव को नकारते हुए जनमत संग्रह की बात कही है। यह रायसुमारी पांच जुलाई को की जाएगी।

हमारे देश में भी विदेशी पूंजी का प्रवाह व दबाव निरंतर बढ़ रहा है। यहां तक की इसे आदर्श माना जाने लगा है। इस भ्रमक आदर्श स्थिति को स्थापित करने के लिए निजी संपत्ति का साम्राज्य खड़ा करने वाले औद्योगिक धरानों के साथ कुछ अर्थशास्त्रियों और योजनाकारों का एक समूह खड़ा हो गया है। इस समूह का तकाजा है कि प्रजातांत्रिक व्यवस्था में सबसे बड़ा मूल्य पूंजी है। यही वह समूह है जो चंद गुलाबी अखबारों के माध्यम से यह वातावरण बनाने में लगा है कि व्यक्तिगत आर्थिक उपलब्धियां ही सर्वोपरि हैं। उनके अर्जन के स्त्रोत फिर भले ही शोषणकारी व भ्रष्ट आचरण से जुड़े हों ? कथित बुद्धिजीवियों का यह समूह यह जताने में लगा है कि कृषि भूमि या अन्य किस्म की भूमियां ऐसी संपत्तियां हैं,जिनका व्यवसायीकरण अति आवश्यक है,किंतु दुर्भाग्यवश ये जमीनें ऐसे लोगों के हाथ में हैं,जो अपढ़,अक्षम व अकुशल हैं। लिहाजा कुशल व व्यवसायी लोगों को भूमि का अधिग्रहण करके हस्तांतरण किया जाना जरूरी है। नरेंद्र मोदी सरकार इसीलिए भूमि अधिग्रहण विधेयक में बदलाव लाना चाहती है। लेकिन अब भारत को ग्रीस के पतन से सबक लेने की जरूरत है। हालांकि भारत के ग्रीस से ज्यादा गहरे आर्थिक संबंध नहीं हैं,क्योंकि ग्रीस न तो उत्पादक देश है और न ही अब उपभोक्ता देश रह गया है। लिहाजा भारत की उससे प्रगाढ़ता नहीं रही है। हालांकि भूमण्डलीय अवधारणा के चलते भारत में जो विदेशी आवारा पूंजीनिवेश का नया दौर शुरू हुआ है,उससे भारत की देशज अर्थव्यस्था के चौपट हो जाने की आशंकाएं ही ज्यादा हैं। लिहाजा ग्रीस का संदेश भारत के लिए एक चेतावनी है,जिसे गंभीरता से लेने की जरूरत है।

 

 

2 COMMENTS

  1. वक़्त की मार कितनी विचित्र होती है – एक समय था जब इस देश का सम्राट विश्व फतह करने के लिए निकला था – उसे लोगों ने सिकंदर महान कहा । आज उस का देश दिवालिया हो गया है ।

  2. पश्चिम के भौतिकतावादी और पूंजीवादी दृष्टिकोण ने अनेकों समस्याएं पैदा की हैं.बाज़ारवाद और वैश्वीकरण ने देशों की विविधताओं को मिटाकर पश्चिम के मानवीयमूल्योंसे रिक्त अर्थतंत्र को बढ़ावा दिया है.और मानव स्वभाव, मेधा और पारिस्थितिकीय संतुलन को नज़रअंदाज़ किया है.
    १९७० के दशक में विश्व खाद्य संगठन और वर्ल्ड बैंक ने महाराष्ट्र में खेती के व्यवसायीकरण की वकालत की और परंपरागत रूप से वहां कम पानी में पैदा होने वाली कपास, मूंगफली और बाज़रे आदि के स्थान पर केश क्रॉप के रूप में गन्ने की खेती की वकालत की.नतीज़तन वहां के नेताओं को चीनी उद्योग के रूप में एक अवसर दिखाई पड़ा और उन्होंने कृषि के लिए निर्धारित बजट और सिंचाई के लिए सारे धन को गन्ने की खेतीपर झोंक दिया. गन्ना वहां की परंपरागत फसलों की अपेक्षा सैंकड़ों गुना पानी पी जाता है.अतः शेष भूमि को सूखे की मार का सामना करना पड़ता है. नतीजतन आम किसान जो गन्ना नहीं उगाते कर्ज के दुष्चक्र में फंसने को मजबूर हो जाते हैं और आत्महत्याएं कर रहे हैं!गन्ने से फायदा शरद पवार जैसे राजनेता उठा रहे हैं जो वहां की शक्कर इंडस्ट्री के बादशाह हैं!
    वास्तव में वैश्वीकरण का अभियान १९७३ के अरब इजराइल युद्ध के बाद अधिक गतिमान हुआ है.१९७३ में अरब इजराइल के युद्ध में पश्चिम एशिया के तेल उत्पादक अरब देशों ने ओपेक जैसे मंच बना कर तेल उत्पादन पर अंकुश लगाये और पश्चिमी देशों की अर्थ व्यवस्था पर दबाव बनाने के लिए आयल एम्बार्गो का हथियार इज़ाद किया.जिसने पूरे विश्व की अर्थव्यवस्थाओं को हिलाकर रख दिया.पश्चिमी देशों पर इसका काफी असर हुआ.और उस दौर की अर्थव्यवस्था के लिए स्टैगफ्लेशन शब्द का प्रयोग किया गया.उसी दौर में पश्चिम के विचारकों ने यह सोच कर कि किसी भी परिस्थिति में केवल पश्चिमी देश ही शिकार न बनें समूचे विश्व की अर्थव्यवस्थाओं को एक साथ जोड़ने का अभियान प्रारम्भ किया.सामाजिक स्तर पर भी इसे स्वीकृति दिलाने के उद्देश्य से कुछ जाने माने समाजशास्त्रियों को इस कार्य पर लगा दिया गया.एल्विन टोफ़लर जैसे समाज शास्त्री अपनी पुस्तक “थर्ड वेव” में एम एन सी और टी एन सी की वकालत करते दिखाई दिए.उन्होंने इसे बहुत से देशों में अन्यान्य कारणों से चल रहे विघटनकारी आंदोलनों के समाधान के रूप में प्रस्तुत किया.और एक बार जब वैश्वीकरण का दौर चल पड़ा तो फिर किसी एक देश की अर्थव्यवस्था के डूबने पर अन्य देशों पर भी उसका प्रतिकूल असर पड़ना लाज़िमी हो गया.
    ग्रीस के संकट से उत्पन्न परिस्थति और उसके कारण विश्व अर्थ व्यवस्था पर पड़ने वाले कुप्रभाव को इसी सन्दर्भ के आलोक में देखना चाहिए.

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