
सर्वेश सिंह
तूं ही कविता, तूं ही मंतर
सुखकारी बाहर आभ्यंतर
स्वर्गिक धूनी अंदर
नवल धवल मन्वंतर
फिर नरेंदर !
रोग-ग्रस्त भूगोल दिखे है
अड़गड़ जोग मचे है
मुंह बिराते पंजर
फिर नरेंदर !
देख दीखावा सब है
धूल की ढेरी
ढलता सूरज
ढलता चँदा
देश विरोधी नेता डोलें
बन कर मस्त कलंदर
फिर नरेंदर !
प्राण खिसककर मुंह को आया
मुंह चिढ़ाती चंचल माया
करम धरम की सिमटी काया
गगन घटा मेँ एक कड़ाको बिजुरी हुलसी
घिर आयी शैतानी छाया
राष्ट्र्द्रोहियों को संग लेकर
पपुआ बना सिकंदर
फिर नरेंदर !
आँगन-आँगन आग लगी है
स्वारथ की सब जोत जगी है
भारत माता ठगी खड़ी है
दुश्मन घर के अंदर
फिर नरेंदर !
यूएस तक घुटने पर आया
चीन पाक की बिगड़ी काया
काश्मीर नव दिनकर छाया
भगवा चढ़े निरंतर
फिर नरेंदर !
भारत मां का बेटा चिर
राष्ट्र धर्म पालक स्थिर
जन की आस नरेंदर फिर
फिर नरेंदर
हर नर बोले
फिर नरेंदर
हर नारी बोले
फिर नरेंदर
खेतिहर बोले
फिर नरेंदर
मजदूर बोले
फिर नरेंदर
व्यापारी बोले
फिर नरेंदर
दुनिया सारी बोले
फिर नरेंदर
फिर नरेंदर….फिर नरेंदर
अलख निरंजन …..
साभार : academics4namo.com