आर. एल. फ्रांसिस
ईसाइयत का आगमन ईसा मसीह के शिष्य संत थॉमस द्वारा अरब की खाड़ी पार कर भारत में आने के साथ ही शुरु हो गया था। केरल और तमिलनाडु के कई परिवारों द्वारा ईसाइयत को अपनाने के बावजूद यह सुदूर दक्षिण के अलावा आगे नहीं बढ़ पाई। 14वीं सदी में पुर्तगाली नाविक वास्कोडिगामा तथा उसके साथ आये धर्म-प्रचारकों ने ईसाइयत को आक्रमक तरीके से फैलाने का कार्य हाथ में ले लिया। यहां पहले से मौजूद केरल के ईसाई सीरियाई पद्वति से अपना कार्य करते थे। वे पोप की सत्ता के अधीन नहीं थे। वास्कोडिगामा तथा उसके साथ आये धर्म-प्रचारकों का पहला सामना केरल की ईसाई पद्धति से हुआ। पाश्चात्य पद्वति के धर्मप्रचारकों ने अत्यंत आक्रोशपूर्ण एवं आक्रामक तरीके से सीरियाई ईसाइयों को पोप की सत्ता को मानने पर मजबूर कर दिया। लम्बे उतार-चढाव के बीच पाश्चात्य तथा भारतीय सीरियाई पद्धतियां यह मानने पर मजबूर हो गई कि ईसाइयत को फैलाने के लिये उनका एक साथ रहना जरुरी है।
इतना सब होने के बावजूद भी ईसायत को वह सफलता नहीं मिल पाई जिसकी आशा वास्कोडिगामा के साथ आये धर्मप्रचारकों ने की थी। 17वीं सदी में चर्च ने पाश्चात्य पद्धति के साथ साथ हिंदू उपासना पद्धतियों और प्रथाओं को अपनाने का प्रयोग शुरु किया। जेसुइट धर्मप्रचारक रार्बट डी नोबिली ने पोप की सहमती से कई प्रयोग किये, बाइबिल को पांचवे वेद के रुप में प्रचारित किया गया और हिंदू प्रतीक चिन्हों को ईसाइयत की पूजा पद्वति में अपनाने जैसे कार्य किये गये। मुदैर-तमिलनाडु के मंदिरों ने रार्बट डी नोबिली का यह कहते हुए विरोध करना शुरु कर दिया कि इससे भोली-भाली ग्रामीण हिंदू जनता भ्रमित हो रही है। नोबिली की मृत्यु के बाद यह प्रयोग बंद कर दिये गये।
उतर भारत (और आज के पाकिस्तान-बंगला देश ) में ईसाइयत का आगमन सम्राट अकबर के शासनकाल में हुआ जब उसने सर्वधर्म सभा में विचार विमर्श हेतू गोवा से तीन जेसुइट फादरों को अपने दरबार फतेहपुर सीकरी में आमंत्रित किया था। इन इतालवीं पुरोहितों को सम्राट अकबर द्वारा सभी जरुरी भौतिक सुविधाएं प्रदान की गई आगरा में वजीरपुर रोड के आसपास की कैथोलिक चर्च संपदा और बिशप प्लेस के सामने खड़ा अकबर चर्च इसका प्रमाण है। उतर भारत में ईसाइयत की जड़े जमाने में जेसुइट, कार्मेलाइट पुरोहितों के साथ साथ सेंट फ्रांसिस असीसी के कपूचियन मिशनरियों की अहम भूमिका रही है। 17वीं सदी में प्रोटेस्टेंट मिशनरियों के आने से इस क्षेत्र में ईसाइयत को और बल मिला।
ब्रिटिश सरकार के समय भारत में ईसाई मिशनरियों को अपना विस्तार करने का अवसर मिला। मिशनरियों ने अपनी नीति में बदलाव करते हुए वंचित वर्गो के बीच धर्मप्रचार को महत्व देना शुरु कर दिया। धर्मप्रचार के कार्य में लगे मिशनरी ईसाइयत को सुदूर ग्रामीण एवं आदिवासी क्षेत्रों में ले जाना चाहते थे उनकी इस भावना का सम्मान करते हुए ब्रिटिश सरकार ने मिशनरियों के शैक्षणिक एवं स्वास्थ्य कार्यो के लिए जमीन अनुदान में देने एवं अन्य सहूलियतें प्रदान की इसका उन्हें बड़ा लाभ मिला।
मिशनरियों द्वारा भारतीय समाज में हाशिए पर खड़े वंचित वर्गों को समानता और भेदभावरहित व्यवस्था उपलब्ध करवाने और उनके सामाजिक विकास का भरोसा दिलाये जाने के बाद देश के अधिक्तर भागों में करोड़ों लोगों ने हिंदू धर्म को छोड़कर ईसाइयत को अपनाया। ब्रिटिश के जाने के बाद भी यह करोड़ों वंचित चर्च के बाड़े में बने रहे लेकिन जातिवाद से मुक्ति की आशा में धर्मपरिवर्तन का मार्ग चुनने वाले लोगों को यहां भी उससे छुटकारा नहीं मिल पाया है। दुर्भागयपूर्ण तथ्य यह है कि चर्च नेतृत्व अपने ढांचे में जातिवाद को समाप्त नहीं कर पाया है उल्टा वह अपनी धार्मिक एवं राजनीतिक सत्ता को बनाये रखने के लिये ईसाइयत में जातिवाद को और मजबूत करने में लगा हुआ है और आज सरकार से मांग कर रहा है कि वह ईसाइयत की शरण में आये वंचित समूहों को दलित हिंदुओं की सूची में शामिल करते हुए उनके विकास की जिम्मेदारी उठाये।
पिछली कई शताब्दियों से विदेशी मिशनरियों द्वारा इक्कठा की गई विशाल संपदा ब्रिटिश के जाने के बाद भारतीय चर्च अधिकारियों के सुर्पद कर दी गई। विशाल संसाधनों के बावजूद चर्च अधिकारी अपने अनुयायियों का सामाजिक-आर्थिक विकास करने में असमर्थ रहे, उल्टा यह विशाल संपतिया उनके बीच लूट-खसोट का धंधा बन गई है। स्वतंत्रता के बाद चर्च ने देश में अपना बड़ा विस्तार किया है और आज उसका शिक्षा और स्वस्थ्य के क्षेत्र में सरकार के बाद बड़ा हिस्सा है। इसके बावजूद भारतीय चर्च अत्मनिर्भर नही हो पाया है वह आज भी पूरी तरह पश्चिमी मिशनरियों की अधीनता में तीन शताब्दी पूर्व वाली स्थिति में ईसाइयत का विस्तार करने में लगा हुआ है।
भारत की स्वतंत्रता के बाद से ही भारतीय ईसाइयों का एक बड़ा वर्ग महजब से ज्यादा राष्ट्रीय हितों को महत्व देने की मांग करता आया है यह वर्ग वेटिकन एवं अन्य यूरोपीय देशों पर चर्च की निर्भरता कम करके उसे भारत के चर्च के रुप में देखना चाहता है। यह वर्ग कैथोलिक बिशपों को वेटिकन द्वारा नियुक्ति करने के तरीके को बदलकर यह अधिकार स्थानीय कैथोलिक ईसाइयों को दिये जाने के पक्ष में है। क्योंकि वेटिकन/पोप के प्रतिनिधि के रुप में कैथोलिक बिशप आज भी अपना कार्य कर रहे है और चर्च का पूरा संचालन कैनन लॉ के तहत किया जा रहा है।
चर्च की विस्तरवादी नीति के कारण विगत कुछ दशकों से उसका टकराव दूसरे धर्मों के साथ होने लगा है। कई राज्यों में यह टकराव घातक रुप लेते जा रहे है। सरकार द्वारा इनकी जांच के लिये गठित समितियों/आयोगों द्वारा अपने प्रतिकूल रिपोर्ट दिये जाने पर चर्च उन्हें अस्वीकार करने की नीति पर चल रहा है। अपने ऊपर आने वाले प्रत्येक संकट के समय वह भारतीय विधि एवं न्याय व्यवस्था से ज्यादा पश्चिम के संगठनों पर विश्वास करता है। कभी कभी तो वह प्रशासनिक व्यवस्था और न्यायपालिका को भी ईसाइयत विरोधी घोषित करने में संकोच नहीं करता। अधिकतर ईसाई विद्ववान मानते है कि चर्च को भारत में अपने मिशन को पुन: परिभाषित करना चाहिए क्योंकि इसाई समुदाय के प्रति बढ़ते तनाव की मुख्य वजह ‘धर्मांतरण’ ही है और हम उसे कब तक झुठलाते रहेगे। पिछले दो दशकों के दौरान विभिन्न राज्यों में पनपे तनाव के पीछे के कारणों की गहराई में जाने की जरुरत है। क्या धर्मांतरण ही ईसाइयत का मूल उद्देश्य रह गया है? यही समय है जब ईसाई समुदाय को स्वयं का सामाजिक लेखा-परीक्षण करना चाहिए, तांकि पता चले कि ईसाई समुदाय अपनी मुक्ति से वंचित क्यों हैं?
ईसाई विद्वान मानते है कि संसाधनों के बल पर चर्च ने भले ही सफलता पा ली हो लेकिन ईसा के सिंद्वातों से से वह दूर हो गया है। आज चर्च की सफलता और ईसा के सिंद्वात दोनों अलग अलग कैसे हो गये है यह ठीक उसी प्रकार से जैसे कि ”भले समारितान की कथा” में प्राथमिकता में आये पुरोहित (पादरी) ने डाकुओं से लूटे-पीटे गये घायल व्यक्ति (यहूदी भाई) को नजर अंदाज कर दिया था। (लूका 10:25-37) ईसाइयत में पिछली तीन सदियों से शामिल होने वाले भारतीय दलित आज आकृतिविहीन झुंड की तरह हो गये है जिनके पास उनके दुखों को गानेवाला कोई गायक नहीं है। सामाजिक अखाड़े में वहीं चर्च अधिकारी ही उनके लिए रोते है जो उनको जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में पीछे खींचने में लगे हुए है।
सर्व समावेशक सर्व समन्वयवादी आदर्श ही किसी भी सच्चे, सार्वदेशिक, सार्वजनीन, विश्व धर्मका परिचय है|
जब इसाई प्रचारक इस सत्यको स्वीकार करेंगे तब वह अपने संकुचित विचारधारा के धर्म का प्रचार ही बंद कर देंगे|
क्या भगवान बीमा एजंट है? की इसाई भगवान से आप बीमा खरीदने पर ही आपको स्वर्ग प्राप्त होगा? अन्यथा नहीं?
धूपमें इसाई खडा होगा तो उसपर छाँव होगी, और अन्यों पर कड़ी धूप?
कहता भी मुर्ख और सुनता भी मुर्ख ?
भगवान को भी ईसाईयों ने बनिया बना दिया|
“मेरी दुकानसे ही माल खरीदो| दूसरो से लोगे तो मैं तुम्हें नरकमें भेजूंगा|”
अनपढ़ अनाड़ियों में ही धंधा चल जाएगा|
==>कांच का टुकड़ा लगा पालिश,
हीरा बना;
बेचता, पापा जॉन
सच्चे हीरों के देश में|
जैसे अत्तर छिड़का,
कागज़ का फूल
बिक रहा सच्चे,
फूलोंकी बारी में|
अमृत के पुत्रोंको भरमाओ
स्वर्गका टिकट दो ,
उपरसे पैसा दो |
क्या, इसे ही कहते हैं, इसाइयत?
जर्मन थियोलोजिस्ट होल्गर कर्स्टन ने अपनी शोधपूर्ण पुस्तक “क्राईस्ट इन इण्डिया: बिफोर एंड आफ्टर क्रुसिफिक्सान” में यह लिखा है की जीसस क्रोस पर लटकाए जाने के बाद भी जीवित रहे और अनेकों देशों की यात्रा करते हुए अंत में भारत में आये. वो तिब्बत तक भी गए जहाँ उनकी यात्रा का वृतांत पोटाला पेलेस के बौध विहार में लिखा है. यही वृतांत लेह स्थित हेमिस गुम्फा नमक प्राचीन मोनास्ट्री में भी दर्ज था जिसे उन्नीसवीं सदी के रूसी यात्री ने भी देखा था और उस पर लिखा भी था. अनेकों लोग ये मानते हैं की इसा भारत आकर कश्मीर में रहे और वहीँ श्रीनगर में उनका देहांत हुआ और वहीँ उनकी मज़ार/समाधी है.ये विषय गहरी शोध मांगता है लेकिन दुर्भाग्य से पोप और चर्च इस विषय पर सत्यान्वेषण की जगह रोड़े अटकने व विरोध करने पर आमादा हो जाते हैं. शायद कभी कोई इस पर पड़े परदे को हटा सकेगा.