विविधा

खाद्यान्न महंगाई और विषम होती परिस्तिथियाँ

-पंकज चतुर्वेदी

सन २००८ में आयी आर्थिक मंदी के बाद से विश्व भर में तमाम देशों की आर्थिक सेहत खराब बनी हुई है, कभी ऐसा लगता है कि अब हालत ठीक है तो कभी स्तिथि खराब लगने लगती है। इस बड़े आर्थिक प्रहार के बाद से दो वित्तीय वर्ष पूर्ण होने के उपरांत भी आर्थिक मंदी से अपेक्षित राहत नहीं मिल सकी है और ये आर्थिक मंदी सीधे–सीधे बढती महंगाई के लिये जिम्मेदार है।

इस महंगाई ने बाकी चीजों के साथ सबसे ज्यादा खाद्यान्न की दर को प्रभावित किया हैं। खाद्यान्न महंगाई की मार से प्रत्यक्षतः आम आदमी ही प्रभावित होता है। आज भी भारत या उसके जैसे विकासशील देशों में अधिकांश आबादी अपनी कमाई का लगभग साठ प्रतिशत हिस्सा खाद्यान्न के लिए खर्च कर रहा है, यानि कमाई का एक बड़ा भाग पेट की भूख शांत करने में जा रहा है।

इस खाद्यान्न महंगाई से निपटने के लिए, देश निर्यात का सहारा लेते है वस्तुतः ये संकट से निपटने का दीर्घकालिक उपाय नहीं किन्तु तात्कालिक रूप से समस्या से निजात तो मिल ही जाती हैं। लेकिन विगत सप्ताह रूस ने जो को सन २००९ -१० का दुनिया का तीसरा गेहूं उत्पादक देश हैं, ने गेहूं निर्यात पर प्रतिबन्ध लगा दिया है।रूस में इस बार भीषण गर्मी और सूखे से फसल उत्पादन में भारी गिरावट आयी है और इसी कारण से रूस ने ये कदम उठाया है।

रूस के इस निर्णय से अंतर्राष्ट्रीय बाजार में गेहूं की कीमतों में भारी तेजी देखी गयी है। रुसी खाद्यान्न संघ के आंकलन के अनुसार रूस ने गत वर्ष लगभग इक्कीस मिलियन टन से भी अधिक मात्रा में गेहूं का निर्यात किया था, और इस बार इस पर रोक लग जाने से कीमतों के लगभग पचास फीसदी की बढ़त देखी गयी जो पिछले तीस वर्षों में सबसे बड़ी वृद्धि है। रूस के इस कदम से विश्व की गेहूं निर्भरता अमरीका ,अर्जेन्टीना व आस्ट्रेलिया जैसे गेहूं निर्यातक देशों पर बढ़ जायेगी क्योकि इस बार कनाडा और यूरोप के अन्य देश भी गेहूं की अच्छी पैदावार को तरस रहे हैं। हमारे पड़ोसी पाकिस्तान में भी भीषण बाढ ने इस संकट को और भी गहरा दिया है।

इस सब का सीधा असर भारत जैसे देश पर भी होगा जहाँ आज भी सरकार खाद्य पदार्थों की बढाती कीमतों के जिन्न से संघर्षनरत है और वर्त्तमान समय में यह देश में एक बड़ा राजनितिक मुद्दा भी बना हुआ है।

यह सब उस गरीब और निर्धन तबके पर सीधी –सीधी मार है जो निसंदेह इस संकट के लिए जिम्मेदार नहीं है, लेकिन इस के दुष्परिणाम सबसे ज्यादा इसी तबके को झेलने पड़ेंगे। गरीब स्कूल और अस्पताल से दूर रहा कर अपना कम चला सकता है, पर खाना खाए बगैर कैसे कम चलेगा और यह ही सबसे बड़ी परेशानी का सबब है। भारत में खाद्यान्न महंगाई का सरकारी आंकड़ा भी गत ३१ जुलाई को ११.४ प्रतिशत के चौकाने वाले स्तर पर था। अब तक के सरकारी प्रयास सुरसा के मुख कि तरह बढती इस खाद्यान्न महंगाई को नियंत्रित करें में नाकाफी रहें है और ये चिंता हर आम और खास भारतीय को खाए जा रही हैं।

इस सबसे चिंतित विश्व बैंक नें विभिन्न गेहूं निर्यातक राष्ट्रों से अपील करी है कि वे निर्यात रोकने के इस निर्णय पर पुनर्विचार करें या कोई अन्य वैकल्पिक मार्ग खोजें क्यो कि इससे बढते वैश्विक खाद्यान्न संकट की आग में और घी पड़ रहा है और अगले वर्ष तक स्तिथियाँ और विषम होने का अंदेशा है। विश्व बैंक की अध्यक्षा नगोजी ओकोनजो के अनुसार विश्व बैंक के अनुसार दुनिया छब्बीस देश ऐसे है जिनमें खाद्यान्न कीमतें बहुत तेजी से ऊपर नीचे हो रहीं है। जिनमें एशिया और अफ्रीका के गरीब देश शामिल है, जहाँ पहले से ही लोग भोजन को तरस रहें है या अपर्याप्त मात्रा में भोजन कर रहें है।

इस सब के बीच एक अमरीकन शोध ने और चिंतित और भयभीत कर दिया है कि एशियाई देशों में चावल उत्पादन की मात्रा लगातार घटती जा रही है और पिछले पच्चीस वर्षों में ये उत्पादन क्रमश् घटता जा रहा है, और इस का कारण जलवायु परिवर्तन है इस जलवायु परिवर्तन ने एशियाई देशों में रात के तापमान में वृद्धि करी है और ये बढा तापमान ही चावल के उत्पादन को बुरी तरह से प्रभावित कर रहा है। क्‍योंकि चावल की फसल पानी से भरे खेत में कम तापमान होने पर ही सही ढंग से पनप पाती है।

गेहूं संकट पर तो विश्व बैंक की दया दृष्टी पड़ गयी है सो उसके लिए सन २००८ में विश्व बैंक ने लगभग ८०० मिलियन डालर की निधि स्वीकृत करी थी और उसमें से १.३ बिलियन डालर विभिन्न राष्ट्रों को इस संकट से जूझने के लिए दिए भी गए। मगर अब ये चावल की समस्या भी सताने लगी है इस पर आज नहीं तो कल सोचना ही पड़ेगा।

भारत के लिए बड़ी चिंता ये है कि आज भी हमारी अधिकांश भोजन आवश्‍यकता गेहूं और चावल के उत्पादन पर ही निर्भर है।यदि इन दोनों की उत्पादकता या आवक किसी भी तरह से प्रभावित होती है तो हमारी अर्थ-व्यवस्था और सामाजिक समीकरण दोनों ही बुरी तरह से गड़बड़ा जाते है।

आज खाद्यान्न महंगाई ने देश में अन्य प्राथमिकताओं को पीछे कर एक बड़ा सवाल पैदा कर दिया है। सरकार एवं शासन दोनों ही परेशानी में है कि इस संकट से कैसे निपटा जाएँ। यदि गेहूं –चावल की पैदवार किसी भी कारणों से कम होती जाये व इसके अंतर्राष्ट्रीय निर्यात पर भी प्रतिबन्ध लग जाये तो आने वाले समय में ये संकट एवं पीड़ा और भी कष्टदायी व विकराल रूप ले लेगी।

शीघ्र ही भारत के लोक एवं तंत्र दोनों को ही अपने –अपने स्तर पर मिलकर इस दिशा में प्रयास करें होंगे क्यो कि ये संकट हम सब का है, खाली सरकारों का नहीं और यदि सब साथ मिलकर प्रयास करेंगे और अपना शत–प्रतिशत योगदान देंगे तो कोई भी समस्या हम भारत वासियों के लिए बड़ी नहीं है। नहीं तो कही ऐसा न हो कि लाल बहादुर शास्त्री जी के जैसा आह्वान कर भोजन बचाने की मुहिम चलानी पड़े।