पीढ़ियाँ करती हैं जयगान सृजन के इतिहास का

डॉ . दीपक आचार्य

रचनात्मक प्रवृत्तियाँ और सृजन धर्म हमेशा सर्वोपरि महत्त्व रखता है और यही वह कारण है जो समाज और परिवेश को युगों और सदियों तक जीवन्त बनाये रखते हुए यादगार रहता है।

बात चाहे बुनियादी जरूरतों की सहज उपलब्धता की हो या सुख-सुविधाओं और स्वाभिमानी जीवन निर्वाह के लिए जरूरी संसाधनों की। जो गतिविधि व्यक्ति या परिवार केन्द्रित परिधियों का संकीर्ण दायरा छोड़कर सामुदायिक या सार्वजनीन हो जाती है वह सामाजिक सरोकारों का स्वरूप धारण करती हुई विराट हो जाती है। फिर इसका प्रभाव व उपादेयता भी इतनी व्यापक हो जाती है कि वह लक्ष्य समूह तक बंधे रहने के सारे दायरों का मोह छोड़ कर जन-जन की हो जाती है।

इनका असर सम-सामयिक लोक जीवन पर तो सकारात्मक छाप छोड़ता ही है, आने वाली कई पीढ़ियां भी इन प्रवृत्तियों के साथ ही इनके निर्माताओं, सूत्रपात के भागीदारों तथा तत्कालीन व्यवस्था और जन-मन की सृजन शक्तियों का स्मरण करते हुए आदर-सम्मान और श्रृद्धा के साथ जयगान करती हैं।

सृजन धर्म का निर्वाह सभी लोग करते हैं लेकिन यादगार वे ही साबित हो पाते हैं जो जनोम्मुखी और सार्वजनीन उपयोग के हुआ करते हैं। यही कारण है कि स्मृतियों के कैनवास पर वे लोग आज भी सुनहरी मुस्कराहट बिखेरते हुए देखे जा सकते हैं जिन्हांेने अतीत में लोकहित के ऐसे-ऐसे काम किये हैं जिन्हांेने समाज और क्षेत्र का भूगोल बदल कर नया इतिहास रच दिया।

इसी लोकोन्मुखी व अविस्मरणीय कार्य-श्रृंखला को निरन्तर बरकरार रखते हुए आज भी ऐसे ऐसे काम हो रहे हैं या किए जा सकते हैं जिन्हें युगों तक जनमानस पटल पर स्थायी रखा जा सकता है।

सृजन अपने आप में विराट और आक्षितिज पसरा हुआ शब्द ही नहीं, इतिहास बनाने का संकल्प है। इसे जो लेता है वह भी निहाल हो जाता है, और वे सब भी निहाल हो जाते हैं जिनके लिए संकल्प ग्रहण किया जाता है।

सृजन धर्म का अवलम्बन भी वही कर सकता है जिसमें सकारात्मक व लोक कल्याणकारी चिंतन के साथ ही ईश्वरीय गुणों का अंश समाहित होता है।

सृजनात्मक प्रवृत्तियों को अंगीकार करने वाले लोग अपने जीवन में सदैव बिंदास रहते हैं। इनकी मौजूदगी मात्र ही वातावरण में आनन्द भाव का सृजन कर देने में समर्थ होती है। इसका मूल कारण यह है कि ये लोग जीवन निर्माण के धवल पक्ष को अपना चुके होते हैं।

इस वजह से नकारात्मकता, मनोमालिन्य व कुटिलताओं के केन्द्रीय सूत्र इनसे स्वाभाविक दूरी बनाये रखते हैं और यही वजह है कि ऐसे मनीषी व्यक्तित्व भले ही मलीन वृत्तियों वाले लोगों की नापसन्द रहें, मगर अपने क्षेत्र से लेकर संसार भर के अच्छे लोग उन्हें हृदय से स्वीकारते भी हैं और आत्मीय भाव से पसन्द भी करते हैं। यह अलग बात है कि ये सज्जन लोग भले ही इसकी अभिव्यक्ति में स्वाभाविक रूप से कृपण रहते है।

जीवन व्यवहार का शाश्वत सत्य यही है कि लोग जिन्हें हृदय से स्वीकार करते हैं उनके लिए वाणी गौण हो जाती है। इसके ठीक विपरीत जो लोग उथले और मलीन मना हुआ करते हैं वे किसी भी सज्जन व्यक्ति को हृदय से स्वीकार नहीं कर पाते हैं और इसीलिये इन लोगों का पूरा ध्यान होंठांे से की जाने वाली वाज़िब या गैर वाज़िब मुस्कान अथवा तारीफ तक ही सिमट कर रह जाता है और यह सब कुछ औपचारिकताओं व होंठों के यांत्रिक संचालन से ज्यादा कोई भाव रख नहीं पाता।

इन दोनों ही तरह के लोगों के सिवा एक तीसरा पक्ष होता है जो हृदय से स्वीकार भी करता है व होंठों से तारीफ भी करता है और वह भी सच्चे मन से। लेकिन यह तीसरे प्रकार के व्यक्तित्व पहुंचे हुए संत-महात्मा या देवदूत ही हो सकते हैं।

आज इसी प्रकार के संकल्प लेने का समय है जो हमारी भावी पीढ़ियों को सुख-चैन व जीने का शाश्वत सुकून प्रदान कर सके। इस गौरवशाली परम्परा का आस्वादन करने वाले वंशज भी अपने पुरखों के त्याग व कर्मयोग का नित दिन स्मरण करते हुए प्रेरणा पाते रहते हैं। आदिकाल से चली आ रही इन सृजनधर्मी परम्पराओं के प्रवाह को अक्षुण्ण बनाये रखते हुए तीव्रतर व व्यापक स्वरूप देना मौजूदा पीढ़ी का फर्ज व धर्म दोनों ही है ।

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