संसद संवाद की बजाय संघर्ष का अखाड़ा कब तक?

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– ललित गर्ग –

बिहार में वोटर लिस्ट रिवीजन पर संसद में गतिरोध जारी है, जिससे कामकाज बाधित हो रहा है। आज संसद का दृश्य सार्थक संवाद की बजाय किसी अखाड़े से कम नहीं लगता। बहस के स्थान पर बैनर, तख्तियां और नारों की गूंज सुनाई देती है। संसद जहां नीति निर्माण होना चाहिए, वहां प्रतिदिन कार्यवाही स्थगित हो रही है। यह विडंबना है कि जनप्रतिनिधि जिन मुद्दों को लेकर चुने जाते हैं, उन्हीं मुद्दों पर चर्चा की बजाय वे मेजें थपथपाने, वेल में उतरने और माइक बंद कराने में लगे हैं। संसद का हंगामा केवल दृश्य नहीं, एक राजनीतिक पतन की ओर संकेत करता है। जब एक ओर सरकार संवाद से बच रही है और दूसरी ओर विपक्ष केवल दिखावटी विरोध में लिप्त हंगामें बरपा रहा है, इन त्रासद एवं विडम्बनापूर्ण स्थितियों में देश की जनता के मुद्दे पीछे छूट रहे हैं। विपक्ष और सत्ता के बीच जारी इस टकराव में बहस के बजाय बहिष्कार और गतिरोध हावी हो चुका है। मानसून सत्र की शुरुआत उम्मीदों से भरी थी, नए विधेयकों, जनहित की बहसों और लोकतांत्रिक विमर्शों की। लेकिन यह सत्र भी पुराने ढर्रे पर चल पड़ा, विरोध, स्थगन, नारेबाजी और हंगामे की भेंट चढ़ता लोकतंत्र।
विपक्ष बिहार में चल रहे वोटर लिस्ट रिवीजन पर चर्चा चाहता है। इसमें ईवीएम की पारदर्शिता, मतदाता सूची में गड़बड़ी और चुनाव आयोग की निष्पक्षता जैसे गंभीर मुद्दे शामिल हैं। इसके साथ ही मणिपुर की स्थिति, बेरोजगारी, महंगाई, पेगासस जासूसी, किसानों की समस्याएं और हाल ही में आई बाढ़ एवं आपदा राहत जैसे मुद्दे भी विपक्ष के एजेंडे में हैं। लेकिन विपक्ष इन और ऐसे जरूरी मुद्दों पर चर्चा का माहौल बनाने की बजाय सरकार को घेरने की मानसिकता से ग्रस्त है। संसद की प्रासंगिकता तभी है जब उसमें देश की सच्चाइयों की प्रतिध्वनि हो और विपक्ष इसमें सकारात्मक भूमिका निभाये। गतिरोध के कारण दर्जनों विधेयक लंबित हैं, डेटा प्रोटेक्शन बिल, महिला आरक्षण बिल, वन नेशन वन इलेक्शन पर चर्चा, कृषि कानूनों में संशोधन, आदि। ये सब विधेयक केवल कानून नहीं हैं, बल्कि करोड़ों भारतीयों के जीवन से जुड़े ज्वलंत प्रश्न हैं। लेकिन दुर्भाग्यवश, विपक्ष सार्थक बहस से भाग रहा है या बहस में अड़ंगा डाल रहा है। सत्ता पक्ष भी कोई बीच का रास्ता निकालता हुआ दिखाई नहीं दे रहा है। दोनों की यह रस्साकशी देश के लोकतांत्रिक स्वास्थ्य को कमजोर कर रही है। कोई भी पक्ष झुकने को तैयार नहीं दिख रहा। लेकिन, इसका असर संसद के कामकाज पर पड़ रहा है। दोनों सदनों का कीमती वक्त हंगामे में जाया हो रहा है और यह कोई पहली बार नहीं हो रहा है। पिछले वर्षों में इस तरह की गतिविधियां आम हो गई हैं।
विपक्ष चाहता है कि सरकार एसआईआर पर चर्चा कराए। लेकिन, सरकार नियमों का हवाला देकर कह रही है कि चुनाव आयोग स्वायत्त संस्था है और मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबित है, इसलिए चर्चा नहीं हो सकती। जवाब में, राज्यसभा में विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खरगे ने भी 2023 की एक रूलिंग निकाल कर उपसभापति को पत्र लिख दिया है। दोनों पक्ष नियमों के सवाल पर अड़े हैं, लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि ये नियम सदन की कार्यवाही को सुचारू रूप से चलाने के लिए बनाए गए हैं, न कि कामकाज ठप्प कराने के लिए। मानसून सत्र शुरू होने के पहले ही अंदाजा था कि एसआईआर पर हंगामा होगा। इसके पीछे विपक्ष की अपनी आशंकाएं हैं। शुरुआत से ही यह प्रक्रिया विवादों में रही है। आधार और वोटर कार्ड को मान्य डॉक्युमेंट्स में शामिल न करने से लेकर बड़ी संख्या में लोगों को वोटर लिस्ट से बाहर निकालने तक, इसमें कई पेच फंसे हैं। चुनाव आयोग ने संशोधित वोटर लिस्ट का ड्राफ्ट जारी कर दिया है और इसमें 65 लाख नाम हटाए गए हैं। सुप्रीम कोर्ट ने इन लोगों की पूरी जानकारी मांगी है।
संसदीय कार्य मंत्री किरेन रिजिजू ने पिछले दिनों कहा था कि अगर विपक्षी दलों का हंगामा जारी रहता है, तो देशहित में सरकार के सामने विधेयक पारित कराने की मजबूरी होगी। लेकिन, लोकतंत्र के लिए यही बेहतर होगा कि दोनों पक्ष सदन का इस्तेमाल रचनात्मक बहस के लिए करें। आम नागरिक संसद से समाधान की उम्मीद करता है, न कि शोरशराबा। जब लाखों युवा रोजगार की बाट जोह रहे हैं, किसान कर्ज में डूब रहे हैं, और आमजन महंगाई से त्रस्त है, तब संसद में ठहाके नहीं, तकलीफों की चर्चा जरूरी है। यह सवाल अब बार-बार उठ रहा है कि क्या संसद केवल दिखावटी बन गई है? अगर सरकार विपक्ष को केवल बाधा मानकर चलती है और विपक्ष केवल विरोध के लिए विरोध करता है, तो लोकतंत्र की आत्मा मरती है। जैसाकि पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था, “संसद को ठप्प करना आसान है, लेकिन संसद को चलाकर देश की उम्मीदों को साधना ही असली लोकतंत्र है।”चुनाव आयोग एसआईआर की जरूरत को बता चुका है और शीर्ष अदालत ने भी उसे माना है। यह जरूरी भी है, क्योंकि भ्रष्ट वोटरों से चुनी जाने वाली सरकारें भी भ्रष्ट ही होती है। इसलिये चुनाव की इस विसंगति की सफाई होना जरूरी है, इस पर चर्चा की मांग को लेकर सत्ता पक्ष-विपक्ष के बीच गतिरोध बना हुआ है तो बातचीत से इसका हल निकालना होगा ताकि संसद का कामकाज सुचारुरूप से चल सके। लोकतंत्र में सदन चलाने की जिम्मेदारी सरकार की होती है। लेकिन इसमें विपक्ष का सहयोग भी अपेक्षित होता है, दोनों को अपना यह दायित्व समझना चाहिए।
संसद का हर सत्र, हर मिनट करदाताओं की गाढ़ी कमाई से चलता है। हर व्यवधान लाखों रुपये की बर्बादी है। यह नैतिक रूप से भी चिंताजनक है कि जनप्रतिनिधि बहस से अधिक हंगामे में समय गंवा रहे हैं। समाधान यही है कि सत्ता पक्ष विपक्ष की बात सुने, संवाद को प्राथमिकता दे। विपक्ष भी रचनात्मक विरोध करे, अनावश्यक बहिष्कार से बचे। लोकतंत्र बहस से ही मजबूत होता है, बहिष्कार से नहीं। वोटर लिस्ट रिवीजन पर चर्चा होनी चाहिए। जरूरी विधेयकों पर बहस होनी चाहिए। संसद को संकल्प का मंच बनना चाहिए, संग्राम का नहीं। जब तक संसद जनहित के सवालों पर गूंजेगी नहीं, तब तक लोकतंत्र अपंग ही रहेगा। जैसा कि डॉ. राधाकृष्णन ने कहा था-संसद केवल कानून बनाने का स्थान नहीं, यह राष्ट्र के विवेक की आवाज है।’ लेकिन जब यह विवेक ही हंगामे में दब जाए, तो संविधान की आत्मा कराह उठती है। आज जरूरत है कि संसद को नई दिशा, नया दृष्टिकोण और नई मर्यादा मिले। संसद की गरिमा केवल आसनों से नहीं, आचरण से बनती है। संसद में वही नेता दिशा दे सकते हैं, जो अपने निजी या दलगत हित से ऊपर उठकर राष्ट्रहित की सोच रखते हैं। जब तक संसद के सदस्य यह नहीं समझेंगे कि वे जनता के प्रतिनिधि हैं, न कि अपने दल के प्रचारक, तब तक दिशा भटकती रहेगी।
विपक्ष लोकतंत्र की आंख है। लेकिन जब यह आंख केवल अंधविरोध में अंधी हो जाए, तो लोकतंत्र की दृष्टि धुंधली हो जाती है। विपक्ष को सद्बुद्धि दे सकता है, जनता का दबाव। जब जनता यह स्पष्ट रूप से जताए कि उसे रचनात्मक, नीति आधारित विपक्ष चाहिए न कि नारेबाज नेता, तब विपक्ष को भी सुधरना पड़ेगा। विपक्ष को आत्मचिंतन करना चाहिए कि क्या वह जनता की लड़ाई लड़ रहा है या केवल सत्तालोलुप राजनीति कर रहा है? मीडिया को चाहिए कि वह हंगामे को महिमामंडित करने के बजाय, नीति और तर्क आधारित बहस को आगे बढ़ाए। संसद में विवाद होना लोकतंत्र की शक्ति है, लेकिन वही विवाद अगर दिशा विहीन हो जाए, तो वह कमजोरी बन जाता है। आज जरूरत है कि संसद की गरिमा को पुनर्स्थापित किया जाए, विपक्ष अपनी भूमिका को गंभीरता से निभाए और सरकार भी अहंकार छोड़कर संवाद को अवसर दे। संसद यदि सचमुच “लोक का मंदिर” है, तो वहाँ केवल सत्ता की पूजा नहीं, लोकमंगल की बात होनी चाहिए।

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