धर्मपत्नी के लिए

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डॉ. सतीश कुमार

तुम कुछ नहीं भी कहती,
मैं बहुत कुछ सुन लेता हूँ।
सब कुछ समझ भी लेता हूँ,
कह नहीं सकता।
पर, मेरा अनकहा तुम सुन भी लेती हो,
तुम गुन भी लेती हो।

तुमने संभाला है जैसे अब तक,
बस यूँ ही संभाले रहना।
तुम नहीं तो मैं कुछ नहीं।
मेरे सुख-दुःख, हंसी-उल्लास का
आदि-अंत तुम्हीं तो हो।
मेरे होने, न होने से शायद तुम्हें
कोई फर्क न पड़े
पर तुम्हारे न होने से मरुस्थल है मेरी जिंदगी।

तुम्हारा मेरी जिंदगी में आना,
धीरे-धीरे मेरा अंग -प्रत्यंग बन जाना,
सहज नहीं रहा होगा तुम्हारे लिए।
पर, बिना बताये, बिना जताये
सब कुछ सहज ही कर लेती हो तुम।

मेरे घर ही नहीं,
मेरे जीवन में रची-बसी हो तुम।
जब तक चले सांस
यूँ ही बना रहे तुम्हारा साथ।

मैंने तुम्हें कहा नहीं कभी,
जताया भी नहीं कभी।
पर, अंर्तबाह्य दृष्टि से
सुंदरता की मूरत हो तुम।
मेरे हर अच्छे-बुरे फैसले पर,
हाँ ही की है तुमने।
‘ना ‘ जैसे तुम्हारे शब्दकोश में है ही नहीं।

कब तेरे सपने मेरे,
मेरे सपने तेरे बन गये,
पता ही नहीं चला।
मैं जैसा हूँ, जिस सोच का हूँ,
वैसा ही स्वीकारा तुमने।
तुम जैसी हो,
तन से, मन से और सोच से
वैसा ही स्वीकारा मैंने भी।

न कभी तुम्हें मुझसे,
न कभी मुझे तुमसे ,
बहुत कुछ पाने की अपेक्षा रही।
जो कुछ मिला तुम्हें मुझसे,
मुझे तुमसे,
वह हमेशा हमारी अपेक्षा से ज्यादा ही रहा।
तुम मेरे जीवन के लिए हो बेहद जरुरी,
जैसे पतंग के लिए होती है डोरी।

हम जिंदगी के हर रंग को जी लेंगे,
तेरा साथ रहेगा तो कांटों की चुभन भी सह लेंगे।
तू-तू ,मैं-मैं करते-सुनते,
जिंदगी के सब रंग जीते,
हर हाल में एक दूसरे का सहारा बनते, हम।

तुमने मेरे मकान को घर बनाया, संवारा।
हे ईश्वर!बिन मांगे दिया इतना,
और देना बस इतना-सा,
कदम से कदम मिला,
साथ-साथ चलें हम हमेशा।

डॉ.सतीश कुमार
एसोसिएट प्रोफेसर
शहीद भगत सिंह(सांध्य) महाविद्यालय

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