भगवत कौशिक

किसान आंदोलन के नाम पर देश की राजधानी दिल्ली मे हुए बवाल के बाद पूरे देश मे एक सवाल खडा हो गया है कि क्या देश के अन्नदाता के बहाने देश की अखंडता और प्रभुसंपता को चुनौती देकर देशविरोधी ताकतें फिर से सक्रिय तो नहीं हो गई? क्या कुछ राजनैतिक दल अपनी महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए सैकड़ों किसानों की शहादत और हमारे प्रहरी पुलिस और सेना के जवानों पर हमला करने जैसा जंघन्य कृत्य करते रहेंगे और हम चुपचाप सहते रहेंगे।
हमारे देश का अन्नदाता हमेशा से शांतिप्रिय और मेहनत कर अपने काम से काम रखने वाला रहा है।हमेशा से चाहे सरकार किसी भी दल की रही हो किसान और मजदूर हमेशा पिसता रहा है।आजादी से अब तक देश मे अनेक क्रांतिकारी परिवर्तन हुए है जिनमे सुधार की गुंजाइश भी महसूस कि गई और समय समय पर शांतिपूर्वक आंदोलन और बातचीत के माध्यम से हर समस्या का हल निकलता रहा है।
अपना देश इतना बड़ा है कि हर प्रदेश के किसान एक कानून से खुश नहीं हो सकते। देश के अलग-अलग प्रदेशों में अलग-अलग फसलें उगाई जाती हैं। इसलिए अलग-अलग किसानों की अलग-अलग परेशानियाँ हो सकती हैं। पंजाब और हरियाणा के मुख्यतः धान और गेहूँ पैदा करने वाले किसानों की कुछ जायज माँगे हो सकती हैं।
इन्हें नए कानूनों में शामिल किया जाना चाहिए। यह आमने सामने बैठकर और बातचीत में लचीलापन अपनाकर ही हो सकता है।सरकार को भी किसानों की मांगों पर शांतिपूर्वक ढंग से विचार कर आवश्यक व देशहित मे जरूरी संशोधन करने चाहिए।वही अपनी मांगो को लेकर आंदोलन कर रहे लोगों का अड़ियल होकर यह रट लगाना कि ‘कानून वापसी तक घर वापसी नहीं’, एक नितांत अनुचित माँग है। वीटो का ये अधिकार देश में किसी को नहीं है।
हम इसे एक और तरह से देख सकते हैं। पिछले करीब एक साल से पूरी दुनिया कोविड की महामारी से जूझ रही है। भारत में भी अब तक 1 करोड़ 4 लाख से ज्यादा लोग संक्रमित हो चुके हैं। 1,50,000 से ज़्यादा भारतीय कोरोना से जान गँवा चुके है। देश का शायद ही कोई परिवार ऐसा होगा जिस पर कोरोना की मार न पड़ी हो। कारखाने बंद हो गए हैं, छोटे बड़े सभी दुकानदारों को परेशानी है, कामकाज ठप्प हुए हैं, पढ़ाई लिखाई नहीं हो पा रही है, गाँव -गाँव शहर-शहर परेशानियों और तक़लीफ़ों का अंबार है।
लाखों नौजवान रोजगार खो चुके हैं। इससे एक स्वाभाविक दुःख और गुस्सा अंदरखाने लोगों में है। कोरोना की तक़लीफ़ों से पैदा हुए इस दर्द का लाभ उठाकर लोगों में आक्रोश पैदा करने का काम कई स्वार्थी तत्व कर रहे हैं। ये घाव पर मरहम की जगह नमक छिड़कने जैसा है।
भारत में पिछले 2 साल से किसी न किसी मुद्दे को लेकर से भीड़ को इकट्ठा करके लोकतंत्र को बंधक बनाकर अपनी मांगे मनवाने का ट्रेंंड चला हुआ है। इसके पीछे वही लोग हैं जिन्हें बार-बार लोग चुनाव में नकार चुके हैं।
चुनावों में धूल चटाए जाने के बाद कम्युनिस्ट पार्टी किसान आंदोलन के नाम अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षा पूरी करने के लिए किसानों के हितैषी होने का ठोंग करने मे जुटे हुए है। किसान यूनियनें भारत सरकार से समझौता करना भी चाहें पर ये किसानधारी नेता कहते हैं कि किसान कानून वापस लिए जाने से कम कोई समझौता नहीं होगा।
कृषि कानूनों का विरोध करने वाले अधिकतर लोग वामपंथी एक्टिविस्ट और अराजकतावादी तत्व हैं। उनके साथ अन्य विरोधी दल बहती गंगा में हाथ धो रहे हैं। 2014 और 2019 दोनों के चुनावों में हार चुके लोग अब एक चुनी हुई सरकार को कृषि बिलों के नाम पर मात देना चाहते हैं।
तर्क और मुद्दा हर बार अलग होता है पर तरीका एक ही है। किसी संवेदनशील मुद्दे पर आक्रोश पैदा करो और भीड़ को इकठ्ठा कर सरकार की विश्वश्नीयता और नीयत पर सवाल खड़े करो। साथ ही बड़े जतन से बनाई गई संस्थाओं और व्यवस्थाओं को लाँछित करो।
और तो और, कृषि कानूनों के बहाने ऐसे तत्त्व किसानों और उद्योगों के बीच एक कृत्रिम दीवार खड़ी करने का काम कर रहे है। सब जानते हैं कि कृषि और उद्योग एक दूसरे के विरोधी नहीं बल्कि एक नदी के दो किनारों की तरह हैं। देश के विकास की गाड़ी को उन्नत कृषि और आधुनिक उद्योग – दोनों ही पहिए चाहिए।
किसानों को भड़का कर ये मूलतः विकास विरोधी दल उद्योगों को कृषि के सामने खड़ा करना चाहते हैं। यह कैसा विचित्र तर्क है कि जो उद्योग के लिए सही है वह कृषि के लिए गलत है? देश को उद्योग भी चाहिए क्योंकि उन्हीं से रोजगार मिलेगा और कृषि भी चाहिए क्योंकि वही से पेट भरता है।
इन दोनों में कोई द्वंद और विरोधाभास नहीं है। लेकिन कुछ अतिवादी लोग इस देश में उद्योगों के खिलाफ माहौल बना रहे हैं। ये वही लोग हैं जिन्होंने पश्चिम बंगाल को एक अच्छे खासे खुशहाल तथा उन्नत, विकासमान और संपन्न राज्य से अपने शासन में एकदम पिछड़ा राज्य बना दिया। ऐसा वे अब पंजाब में भी करने पर आमादा है।