मृतप्राय किसान आंदोलन को टिकैत के आंसुओं की ‘संजीवनी’

सुशील कुमार’नवीन’

बिना ‘जन’ कोई भी जन आंदोलन कामयाब नहीं हो सकता। ये ‘जन’ ही तो हैं जो हर वक्ता को बेबाक बोलने का,निर्भीक हो आगे बढ़ने का जोश भरते हैं। ‘जन’ का उत्साह और नाराजगी का डर हर एक शब्द को बोलने में, कदम आगे बढ़ाने से पहले सोचने पर मजबूर करता है। किसान आंदोलन भी ‘जन’ के दम पर ही संचालित रहा है। जब तक भीड़ का आलम था, जोश में कोई कमी नहीं थी। सरकार के निमंत्रण पर अपनी ही बातों को मनवाने की पूरी अकड़ थी। मंत्रियों से बातचीत में किसी तरह का दबाव नहीं माना जा रहा था। 

      आंदोलन स्थल पर एक के बुलाने पर दस आने को तैयार थे। किसी चीज की कोई कमी नहीं थी। न भीड़ की न व्यवस्था की। ‘जन’ ही अपने आप सब कुछ बिना कहे सम्भाल रहे थे। मंगलवार तक सब कुछ अपनी जगह पर सही था।इसी दौरान ‘जन’ की ही एक हरकत पर्वत ज्यूं अड़े खड़े किसान आंदोलन की चूलें हिला गई। जब तक है जान.. का दम्भ भरने वाले ‘जन’ चुपके से वहां से निकलने शुरू हो गए। मेरी तरह सभी ने मान ही लिया कि अब आंदोलन खत्म। रात तक धरने पर बैठे गिनती के ‘जन’ को पुलिस अब आसानी से उठा इसका ‘द एन्ड’ कर देगी। 

      लगभग होना भी यही था। क्योंकि लालकिले पर जो हुआ वह वास्तव में हर किसी की देशप्रेम की भावनाओं को झकझोरने वाला था। गुस्सा वाजिब भी था। हमारे लिए तिरंगे से बड़ा कोई नहीं है। शाम होते-होते किसान सोशल मीडिया पर देश के सबसे बड़े दुश्मन करार दिए जा चुके थे। चुप्पी धारण किये बैठे नेता और अधिकारी सामने आने लगे। लगा अब तो किसानों के लिए कयामत की रात आ ही गई। दो माह तक चला आंदोलन अब समाप्त हो ही गया। दिल्ली घटना के बाद स्थानीय सरकारें भी एक्टिव मोड में दिखीं। बन्द पड़े टोल प्लाजाओं को हर हाल में शुरू करवाने और धरनों को खत्म कराने के निर्देश भी जारी हुए। विभिन्न चैनलों ने भी माहौल ऐसा बनाकर छोड़ दिया कि रात को किसी भी समय बड़ी कार्रवाई हो सकती है।

  अब तक जोश से लबरेज किसान नेताओं को भी इस तरह एकदम आंदोलन के हल्के पड़ने की उम्मीद नहीं थी। यही वजह रही कि आंदोलन की ये हालत देख किसान नेता राकेश टिकैत भी अपनी भावनाओं को रोक न सके। साफ ऐलान कर दिया कि जब तक गांव से पानी नहीं आएगा, वो एक बूंद पानी की हलक में नहीं उतारेंगे। इसी दौरान उनकी आंखों से बह निकले आंसू टर्निंग प्वाइंट बन गए। लगभग मृतप्राय किसान आंदोलन को यही आंसू ‘संजीवन’ ज्यूं एक बार फिर जीवनदान दे गए। 

    आंदोलनों के अनुभवी टिकैत ‘जन’ की ताकत को सही पहचानते हैं। अपने अंदाज में जब ‘जन’को फिर आह्वान्वित किया तो घरों में रजाइयों में दुबका पड़ा ‘जन’ एक बार फिर रजाई छोड़ दिल्ली की और दौड़ पड़ा। रातों-रात पंचायतों का दौर शुरू हो गया।तुरन्त फैसले ले दिल्ली कूच शुरू हो गया। टिकैत की आंखों से निकले आंसुओं ने अपनी ताकत दिखा दी। एक बार फिर कदम दिल्ली की और बढ़ चले। जगह-जगह से फिर एकजुटता का आह्वान होने लगा है।

      आंदोलन आगामी दिनों में चल पाएगा या नहीं। सरकार और किसान नेताओं के आंदोलन को लेकर अगले कदम क्या होंगे। यह तो अभी भविष्य के गर्भ में है पर एकबारगी तो मृतप्राय आंदोलन में टिकैत के आंसुओं की संजीवनी ने जान डाल दी है। सोशल मीडिया पर बल्ली सिंह चीमा की ये पंक्तियां भी ट्रेंड करने लगी हैं- 

‘ ले मशालें चल पड़े हैं लोग मेरे गांव के  

अब अंधेरा जीत लेंगे लोग मेरे गांव के।’

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