जीवन की सफलता हेतु वेदाध्ययन की आर्ष-शिक्षा पद्धति को अपनाना आवश्यक

0
187

-मनमोहन कुमार आर्य
संसार में अनेक भाषायें हैं। इन भाषाओं की अपनी-अपनी व्याकरण प्रणालियां हैं। संसार की प्रथम भाषा संस्कृत है। संस्कृत का आरम्भ सृष्टि के आरम्भ में परमात्मा के चार ऋषियों को वेद ज्ञान के उपदेश से हुआ। यह चार ऋषि थे अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा तथा यह उपदेश चार वेद ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद के नाम से प्रसिद्ध है। चारों वेद आज अपने मूलस्वरूप सहित हिन्दी आदि अनेक भाषाओं में अपने यथार्थ अर्थों सहित विद्यमान हैं। वेद सब सत्य विद्याओं के पुस्तक हैं। ऐसा महर्षि दयानन्द सहित सृष्टि के आरम्भ से ऋषि जैमिनी आदि सभी वेदज्ञ ऋषियों का मत रहा है। ऋषि दयानन्द ईश्वर का साक्षात्कार किये हुए योगी थे। अतः उन्होंने वेदाध्ययन करने के साथ योग समाधि आदि साधनों से ईश्वर साक्षात्कार सहित वेद के सिद्धान्तों एवं मान्यताओं की सत्यता का भी साक्षात्कार किया था, ऐसा विदित होता है। वेदाध्ययन सहित ऋषि दयानन्द जी की ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका तथा सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों का अध्ययन करने पर इस तथ्य की पुष्टि होती है। वर्तमान समय में लोग वेदविद्या व शिक्षा से दूर तथा अंग्रेजी व वेदों के विपरीत अनार्ष वा अवैदिक शिक्षा के निकट है। इस शिक्षा से मनुष्य ईश्वर व आत्मा सहित अपने कर्तव्यों यथा ईश्वर की स्तुति-प्रार्थना-उपासना सहित मनुष्य के इतर नित्यकर्मों यथा दैनिक अग्निहोत्र देवयज्ञ, पितृयज्ञ, अतिथि यज्ञ तथा बलिवैश्वदेव यज्ञ से परिचित नहीं हो पाते। वेद, रामायण तथा महाभारत आदि के अध्ययन से मनुष्यों को ज्ञान प्राप्त होने सहित आत्मा पर जो संस्कार पड़ते हैं, उनसे भी मनुष्य लाभान्वित नहीं हो पाते। अतः आधुनिक शिक्षा व ज्ञान विज्ञान की प्राप्ति सहित देश व विश्व के सभी बालक-बालिकाओं को वेदाध्ययन में भी प्रवृत्त होना चाहिये और संस्कृत पाठशालाओं व गुरुकुलों के आचार्यों से आर्ष संस्कृत व्याकरण की पाणिनी-अष्टाध्यायी पद्धति का अध्ययन करना चाहिये। ‘जहां चाह वहां राह’, इस कहावत के अनुसार प्रयत्न करने पर मनुष्य आधुनिक विषयों के साथ साथ आर्ष शिक्षा को भी ग्रहण कर सकते हैं। सत्यार्थप्रकाश तथा ऋग्वेदादिभाष्य-भूमिका सहित ऋषि दयानन्द एवं वैदिक विद्वानों के वेदों के भाष्य एवं दर्शन व उपनिषदों के हिन्दी व अंग्रेजी भाष्यों व टीकाओं के अध्ययन से भी मनुष्य कुछ सीमा तक वेद ज्ञान, वैदिक सिद्धान्तों व मान्यताओं से परिचित हो सकते हैं। अतः सबको वैदिक साहित्य के मुख्य ग्रन्थों दर्शन, उपनिषद, मनुस्मृति आदि सहित सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका एवं ऋषि दयानन्द तथा आर्य विद्वानों के वेदभाष्यों का अध्ययन भी अवश्य करना चाहिये।

जब हम सृष्टि को देखते हैं तो मन में विचार आता है कि क्या इस सृष्टि के उत्पत्तिकर्ता तथा पालनकर्ता ईश्वर ने सृष्टि के आदि वा आरम्भ काल में अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न मनुष्यों को मनुष्य के कर्तव्य व अकर्तव्यों का ज्ञान कराया था? क्या परमात्मा का दिया हुआ वह ज्ञान आज भी सुलभ है? इस प्रश्न पर विचार करने तथा ऋषियों के ग्रन्थों को देखने पर ज्ञात होता है कि चार वेद ही वह ज्ञान है जो परमात्मा ने सृष्टि की आदि में चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य तथा अंगिरा के माध्यम से देश देशान्तर के सभी लोगों के लिए दिया था। मनुष्य ग्रन्थों में शतपथ ब्राह्मण प्राचीनतम ग्रन्थ है। इसमें वर्णन है कि परमात्मा ने चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य तथा अंगिरा को क्रमशः ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद का ज्ञान दिया था। वेदों का यह ज्ञान मनुष्य मात्र के लिए उपयोगी एवं कल्याणप्रद है। इसकी शिक्षायें साम्प्रदायिक न होकर मनुष्यमात्र का हित एवं कल्याण करने वाली हंै। इस चतुर्वेद ज्ञान से मनुष्य की सर्वांगीण उन्नति होती है तथा मनुष्य अपने जीवन के उद्देश्य को जानकर तपरूप साधना के द्वारा ईश्वर व आत्मा का साक्षात्कार करके जीवात्मा के जन्म के आधार कर्मों को निष्काम व कर्तव्य भावनाओं से कर जन्म व मरण से मुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त होते हैं। इन विषयों पर उपनिषदों व दर्शन आदि का अध्ययन करने पर समुचित प्रकाश पड़ता है तथा मनुष्य की सभी भ्रान्तियां दूर होती हैं। मनुष्य की आत्मा अध्ययन व स्वाध्याय से सन्तुष्ट होती है। यही कारण रहा है कि 1.96 अरब वर्ष पूर्व उत्पन्न आदि-सृष्टि से लगभग पांच हजार वर्ष पूर्व हुए महाभारत युद्ध के समय तक आर्यावर्त-भारत सहित पूरे विश्व में वेदों के आधार पर समाजिक व शासन की व्यवस्था विद्यमान थी। देश व विश्व के सभी मनुष्य वैदिक मान्यताओं के अनुसार जीवन व्यतीत करते थे। महाभारत युद्ध के हानिकारक परिणामों से समाज में अव्यवस्था उत्पन्न हुई जिस पर नियन्त्रण न हो पाने के कारण तथा वेदाध्ययन सीमित, संकुचित व बन्द हो जाने के कारण समाज में अज्ञान, अन्धविश्वास तथा कुरीतियों का प्रचलन हुआ। इस अन्धकार के युग में ही देश व देश के बाहर अनेक अविद्यायुक्त मतों का आविर्भाव हुआ। सभी मत अविद्या से युक्त हैं जिसका दिग्दर्शन ऋषि दयानन्द जी ने अपने विश्व प्रसिद्ध ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में सप्रमाण कराया है। सभी अवैदिक मतों में कुछ मात्रा में विद्या व ज्ञान की बातें भी हैं परन्तु कुछ हानिकारक मान्यतायें व सिद्धान्त भी हैं जिससे मनुष्यों में परस्पर प्रेम, सौहार्द उत्पन्न होने के स्थान पर परस्पर दूरी होने के साथ समय समय पर संघर्ष भी होते हैं। 

वेदों के सिद्धान्त ईश्वर प्रदत्त तथा सत्य पर आधारित हैं। अतः इनको मानने व धारण करने पर मनुष्य पूरी वसुधा को कुटुम्ब वा परिवार की भावना देखता व आचरण करता है। परस्पर की सभी समस्याओं का निवारण सत्य को अपनाकर तथा कुछ त्याग का परिचय देते हुए किया जा सकता है। अतः आज आर्ष विद्या के मूल व सर्वोपरि उच्च ज्ञान से युक्त ग्रन्थ वेदों को जानने व उनके प्रचार की महती आवश्यकता है। इसी कारण से ऋषि दयानन्द जी ने वेदों के अध्ययन एवं प्रचार पर सर्वाधिक बल दिया। उन्होंने कहा कि वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है तथा वेदों का पढ़ना-पढ़ाना तथा सुनना व सुनाना सब आर्यों वा सत्य का ग्रहण करने वाले मनुष्यों का परम धर्म वा कर्तव्य है। उन्होंने सत्यार्थप्रकाश में वैदिक शिक्षा व्यवस्था पर भी प्रकाश डाला है। सत्यार्थप्रकाश का दूसरा समुल्लास बालक-बालिकाओं की शिक्षा पर है जो सभी मनुष्यों के पढ़ने योग्य है। इसी की प्रेरणा से ऋषि भक्त स्वामी श्रद्धानन्द, पूर्व नाम महात्मा मुंशीराम जी, ने हरिद्वार के निकट कांगड़ी ग्राम में सन् 1902 में एक गुरुकुल खोला था। यह गुरुकुल वर्तमान में गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय के नाम से प्रसिद्ध है। इस गुरुकुल की अनेक उपलब्धियां हैं। वेदाध्ययन ही सभी गुरुकुलों का अभीष्ट हुआ करता है। वेदों का जानने व समझने के लिए वेद के आर्ष व्याकरण अष्टाध्यायी-महाभाष्य पद्धति का अध्ययन आवश्यक होता है। यह अध्ययन आर्यसमाज के विद्वानों द्वारा संचालित अनेक गुरुकुलों में कराया जाता है। ऋषिभक्त स्वामी प्रणवानन्द सरस्वती जी सम्प्रति बालक व बालिकाओं के देश में सात-आठ गुरुकुल चलाते हैं। इन सबमें आर्ष व्याकरण की अष्टाध्यायी-महाभाष्य पद्धति से अध्ययन कराया जाता है। आर्ष व्याकरण का अध्ययन पूरा करने पर मनुष्य में वह योग्यता आ जाती है कि वह वेद के पदों वा शब्दों के अर्थ जानकर उनका व्याकरणानुसार अर्थ व तात्पर्य जान सके। वेदों को यथार्थरूप में जानने वाले व्यक्ति को ही वैदिक विद्वान कहा जाता है। बिना आर्ष-व्याकरण पढ़े वेदों का अर्थ-ज्ञान नहीं होता। सभी सुधी मनुष्यों को चाहिये कि वह अपने बच्चों को आधुनिक शिक्षा के साथ उन्हें वैदिक शिक्षा में प्रवृत्ति उत्पन्न करने वाले ग्रन्थ व्यवहारभानु, संस्कृत वाक्य प्रबोध, सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि का भी अध्ययन करायें। वेदाध्ययन करने से ही मनुष्य को सांसारिक व जीवनयापन हेतु आवश्यक व उचित ज्ञान की प्राप्ति होती है। यदि ऐसा नहीं करेंगे तो हमारा जीवन अधूरा जीवन रहेगा। हम मनुष्य जीवन का पूरा सदुपयोग नहीं कर पायेंगे। मनुष्य जीवन हमें परमात्मा से अपनी आत्मा सहित परमात्मा व उसकी सृष्टि को इसके वास्तविक रूप में जानने तथा आत्मा, शरीर तथा सृष्टि को साधन बनाकर ईश्वर को प्राप्त करने के लिए मिला है। इसी से आत्मा की उन्नति होकर अभ्युदय एवं निःश्रेयस की प्राप्ति होती है। निःश्रेयस मोक्ष को कहते हैं। मोक्ष में जीवात्मा अवागमन वा जन्म-मृत्यु के बन्धन से छूट जाता है और ईश्वर के सान्निध्य में सुख वा आनन्द की अनुभूति करता है। इसका विस्तृत वर्णन हम सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ के नवम् समुल्लास में पढ़ सकते हैं। हम आशा करते हैं कि सभी विद्वान ऋषि दयानन्द के शिक्षा विषयक विचारों का अपनी पूरी क्षमता से देश देशान्तर में प्रचार करेंगे और लोगों को आर्ष विद्या की प्राप्ति के लिए प्रेरित करेंगे। ऐसा होने पर ही विश्व का सुधार व कल्याण हो सकता है। 

आज के युग में मनुष्य जहां धनोपार्जन तथा भौतिक सुखों की प्राप्ति में अपना जीवन लगा व खपा रहा है वहां यह भी आवश्यक है कि वह अपनी आत्मा सहित परमात्मा के सत्यस्वरूप को जाने और वेद व शास्त्रों में विहित अपने कर्तव्यों सहित सत्यासत्य पर विचार व निर्णय कर सत्य का ग्रहण कर अपने जीवन की लौकिक एवं पारलौकिक उन्नति को सुनिश्चित करे। हमें यह ज्ञात होना चाहिये कि वेदाध्ययन किए बिना हम सुख व दुःख के बन्धनों से मुक्त नहीं हो सकते। वेदाध्ययन के लिए आर्षव्याकरण का अध्ययन तथा ऋषियों के मार्ग का अनुगमन आवश्यक एवं अनिवार्य 

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

12,689 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress