भारत पर विदेशी हमले , स्व की रक्षा का संघर्ष और उसका परिणाम

– डा० कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

भारत में विदेशी आक्रमणकारियों का इतिहास लम्बा है और उलझन भरा भी है । बहुत दूर न भी जाएँ तो यूनानियों  , शकों और हूणों के हमलों का ज़िक्र तो करना ही पड़ेगा । लेकिन आजकल इतिहास की जो किताबें पढ़ाई जाती हैं , उनमें इनका ज़िक्र चलते चलाते ही किया जाता है । उसका कारण प्रासंगिक है । ये आक्रमण उस काल खंड में देश देशान्तरों पर विजय पा लेने की साम्राज्यवादी चेतना का हिस्सा था । ये आक्रमण सांस्कृतिक आक्रमण नहीं थे । यही कारण है कि हमलावर जीत जाने के बाद भी किसी विजातीय संस्कृति के पदचिन्ह यहाँ स्थापित नहीं कर सके । इसके विपरीत वे यहीं की संस्कृति में विलीन हो गए । उसके बाद आक्रमणों का दूसरा दौर सातवीं शताब्दी के अंतिम दशकों में  अरबों के हमलों से शुरु होता है । ये हमले सप्त सिन्धु क्षेत्र में सिन्ध प्रदेश पर हुए । लेकिन हमलावर तीन सौ साल तक सिन्ध से आगे नहीं बढ़ सके । लेकिन इन तीन सौ साल के कालखंड में उन्होंने मध्य एशिया के अधिकांश हिस्सों पर क़ब्ज़ा कर लिया । लेकिन इतिहास में अरबों के हमले केवल क्षेत्र पर विजय प्राप्त कर लेने की आदिम चाह के कारण नहीं थे बल्कि वे विजित प्रदेशों पर प्रकारान्तर रूप से सांस्कृतिक आक्रमण भी कहे जा सकते हैं । यही कारण है कि  अरबों ने मध्य एशिया के देशों पर केवल कब्जा ही नहीं किया  बल्कि उन्हें इस्लाम पंथ या शिया पंथ में मतान्तरित भी कर वहाँ की संस्कृति का विनाश भी कर दिया । यहाँ तक भारत का ताल्लुक है , तीन सौ साल तक अरब हमलावर तो सिन्ध से आगे नहीं बढ़ सके , लेकिन अब मध्य एशिया के मतान्तरित हो चुके तुर्कों ने हमले शुरु कर दिए । ये हमले एक हज़ार के आसपास महमूद गजनवी से शुरु हुए । जल्दी ही सप्त सिन्धु क्षेत्र इन तुर्कों के क़ब्ज़े में आ गया और बारह सौ के आसपास दिल्ली में गुलाम वंश का शासन स्थापित हो गया । पन्द्रह सौ के आसपास मध्य एशिया से ही मुगलों के हमले शुरु हो गए और उन्होंने अपने शासन का विस्तार भारत के भीतरी हिस्सों तक फैलाया । अरबों , तुर्कों और मुगलों के इन हमलों को इतिहास में ATM के हमलों के नाम से भी याद किया जाता है । एटीएम के हमलावर शासन के साथ साथ भारत के विसंस्कृतिकरण के काम में भी लगे थे । लेकिन विसंस्कृतिकपण या मतान्तरण का उनका तरीक़ा , पशुबल से या धनबल पर ही आधारित था । प्रतीक रूप में वे मंदिर तोड़ कर उनकी जगह मस्जिद बना देते थे या फिर उनके खंडहर वैसे ही रहने देते थे । मुगल काल के अंतिम दिनों में भारत पर पुर्तगालियों , फ़्रांसीसियों और अंग्रेज़ों के हमले शुरु हुए लेकिन भारत भूमि पर  उनका आपसी संघर्ष भी चलता रहा । फ्रांसीसी तो पुदुच्चेरी तक सिमट कर रह गए । पुर्तगाली गोवा से आगे नहीं बढ़ पाए लेकिन अंग्रेज़ों ने लगभग सारे हिन्दुस्तान पर कब्जा कर लिया । एटीएम की तरह अंग्रेज़ी राज का उद्देष्य भी दोहरा था । साम्राज्य विस्तार और विसंस्कृतिकरण । एटीएम शासक भारतीयों को इस्लाम पंथ या शिया पंथ में मतान्तरित करते थे , इसके विपरीत यूरोपीय शासक भारतीयों को ईसाई पंथ में मतान्तरित करते थे ।  लेकिन अंग्रेज़ शासकों का  विसंस्कृतिकरण या मतान्तरण का  तरीक़ा एटीएम से अलग था । शासन बल का प्रयोग तो उन्होंने भी किया लेकिन उनका मतान्तरण का सबसे बड़ा हथियार सेवा का था । सेवा उनका साध्य नहीं था बल्कि साधन था । धन का लालच उनके पास भी था । उसका उन्होंने प्रयोग भी धड़ल्ले से किया लेकिन सेवा के सुनहरी काग़ज़ों में लपेट कर । उन्होंने मंदिर नहीं तोड़े । अलबत्ता बड़े बड़े गिरजा घरों का निर्माण किया । एटीएम ने भारत के सामाजिक जीवन , उसकी सामाजिक संरचना से बहुत ज्यादा छेड़छाड़ नहीं की । उनके राज्य की सीमाएँ भारतीय समाज में गहरे तक नहीं जाती थीं । उन्होंने ऐसा करने की कोशिश भी नहीं की । लेकिन अंग्रेज़ समझ गए थे कि भारतीय/हिन्दु समाज की मूल पहचान या उसके स्वत्व को समाप्त करना है तो यहाँ के समाज को पंगु करना होगा । भारत में समाज स्वनिर्भर रहा है । वह अपने अस्तित्व के लिए राज्य पर निर्भर नहीं रहा । लेकिन अंग्रेज़ी शासन ने इसी सशक्त समाज को निशक्त करने और अपने राज्य को ज्यादा ताक़तवर बनाने का प्रयास किया । उनका षड्यन्त्र था कि भारतीय/हिन्दु समाज राज्य पर निर्भर होना चाहिए । राज्य पर कब्जा अंग्रेज़ों का था ही । अब वे राज्य को ताक़तवर बना कर भारतीय समाज पर कब्जा करना चाहते थे और उसकी मूल पहचान समाप्त कर उसे अपनी पहचान देना चाहते थे । दुनिया के अधिकांश हिस्से पर एटीएम और यूरोपीय साम्राज्यवादी शासक इसे सफलतापूर्वक कर चुके थे । लेकिन आज जब इक्कीसवीं शताब्दी का तीसरा दशक शुरु हो चुका है तो  दुनिया में आश्चर्य व्यक्ति किया जा रहा है कि एटीएम और यूरोपीय ताक़तों के लगभग एक हज़ार साल के शासन के वाबजूद भारत ने अपने स्वत्व की रक्षा कैसे की ? स्वत्व रक्षा की इस कथा और उसके भीतर के संघर्ष को समझने के लिए इस गाथा को दो हिस्सों में बाँटा जा सकता है । 

क. एटीएम काल की संघर्ष गाथा-


             इस संघर्ष गाथा में हम केवल एक कारक की चर्चा करेंगे जिसने हिन्दुस्तान में स्वत्व रक्षा की स्वर्णिम गाथा लिखी । यह है सप्त सिन्धु क्षेत्र से शुरु हुई दशगुरु परम्परा । यह परम्परा मुगलों के हमलों के साथ ही शुरु हुई थी । इस परम्परा की शुरुआत श्री नानक देव जी ने की थी । वे इस परम्परा के प्रथम गुरु थे । श्री तेग बहादुर जी इस परम्परा के नौंवे गुरु थे और उनके पुत्र श्री गोविन्द सिंह जी दशम गुरु थे । गुरु नानक देव जी के सामने सबसे बड़ा प्रश्न था एटीएम के शासन से त्रस्त एवं भयभीत लोगों में से निराशा को दूर करना । इसके लिए उन्होंने लगभग पच्चीस साल तक देश के प्रत्येक हिस्से में भ्रमण किया । इतिहास में इन्हें उदासियाँ कहा जाता है । विदेशी शासक भारतीय प्रतीकों को समाप्त कर रहे थे । देव मूर्तियाँ तोड़ी जा रहीं थीं । गुरु नानक जी ने साकार के स्थान पर निराकार का विकल्प दिया । ईश्वर तो घट घट में व्याप्त है । बाहर के ईश्वर की मूर्ति को कोई तोड़ सकता है , लेकिन भीतर की मूर्ति को कौन तोड़ सकेगा ? बाह्य प्रतीकों की नई व्याख्या कर दी । तुर्क शासक यज्ञोपवीत तोड़ते थे । नानक देव ने नया यज्ञोपवीत उपस्थित कर दिया । उन्होंने कहा , जो यज्ञोपवीत पहनाया जाता है , वह तो मन की क्रिया नहीं हुई , केवल शारीरिक क्रिया बन कर रह गई । यह जनेऊ तुम चार कौड़ी का ख़रीद कर लाते हो और चौके में बैठ कर यजमान को पहना देते हो । फिर यजमान के कान में गुरु मंत्र भी दे देते हो । जनेऊ पहनने वाले का देहान्त हो गया और साथ ही जनेऊ भी समाप्त हो गया । इसलिए सही यज्ञोपवीत कैसा होना चाहिए ? यज्ञोपवीत का क्या अर्थ है , किन गुणों से मिल कर यज्ञोपवीत बनता है । यह महज़ एक रस्म नहीं है बल्कि यह तो मृत्युपर्यन्त चलने वाली साधना है । यज्ञोपवीत कैसा होना चाहिए ? जनेऊ के लिए दया की कपास हो । उस दया रूपी कपास से संतोष रूपी सूत काता गया हो । साधना की गाँठ लगाई हो ।  गुरु नानक देव जी ने यज्ञोपवीत की जो नई परिभाषा दी है उसके अनुसार वह कभी टूटता नहीं, इसे कभी मैल नहीं लगती , यह आग में जल नहीं सकता । सारी देह जल सकती है लेकिन ऐसे यज्ञोपवीत को कोई नहीं जला सकता । दरअसल इस प्रकार का यज्ञोपवीत धारण करना ही असली वज्ञोपवीत साधना है । इस प्रकार के यज्ञोपवीत को भला कोई तुर्क या मुगल क्या तोड़ सकेगा ? गुरु नानक देव अपने युग में ‘स्वत्व’ के आगे आ खड़े हुए संकट से सामना करने के युगानुकूल उपाय तलाश रहे थे । 

               दूसरा उदाहरण ओडीशा के पुरी में जगन्नाथ जी के मंदिर में हो रही आरती का है । पुरी का यह मंदिर उदाहरण रूप में ही लिया जा सकता है । आरती हर मंदिर में होती है । लेकिन अब तो मंदिरों पर ही संकट आ खड़ा हुआ है । जब मंदिर ही नहीं बच रहे तो आरती का यह स्वरूप कैसे बचेगा ? नानक देव भविष्य में देख रहे हैं । उन्होंने आरती का भी नया स्वरूप दे दिया । मंदिर टूट सकता है लेकिन भगवान भक्त के ह्रदय में चला गया । मंदिर टूटेगा तो आरती बन्द हो सकती है लेकिन नानक देव की आरती नए रूप में उपस्थित है जिसे न कोई तुर्क बन्द करवा सकता है न कोई मंगोल । नानक देव जी कहते हैं- आरती तो सर्वत्र  हो रही है । हर क्षण आरती होरही है । सारा गगन थाल है । सूर्य और चन्द्रमा उस थाल में दो दीपक जल रहे हैं । गगन में विखरे तारे इस थाल मेंपड़े मोती हैं । मलय पर्वत से आने वाली सुगन्ध इस आरती का धूप है और वायु चँवर झुला रही है । वनों जंगलोंमें खिले हुए फूल इस आरती को सज़ा रहे हैं । भव खंडन प्रभु यह तेरी कैसी अद्भुत व्यापक आरती हो रही है । हेप्रभु ! तुम्हारा अनहद नाद इस आरती में भेरी की तरह बज रहा है । ये हज़ारों हज़ारों मूर्तियाँ दिखाई दे रही हैं , इनसब में तू ही तो व्याप्त है । हज़ारों हज़ारों तेरे चरण हैं लेकिन फिर भी तेरा कोई चरण नहीं है । समस्त संसार मेंव्याप्त हज़ारों प्रकार की सुगन्ध तुमसे ही निकल रही है । समस्त संसार की ज्योति प्रकाश तुमसे ही निकल रही है। तेरी ही ज्योति सारे संसार में जगमगा रही है । उसी प्रकाश से सभी प्रकाशित हो रहे हैं । गुरु की साखी से हीयह ज्योति प्रकट हो रही है । उस नियन्त्रण को जो अच्छा लगता है वही उसकी आरती का स्वरूप है । मंदिर मेंहोने वाली आरती की इस प्रकार की व्यापक और विस्तृत व्याख्या शायद पहली बार हो रही थी । स्वत्व रक्षा की यह नई रणनीति है । लेकिन यह रणनीति भी अपनी क़ीमत माँगती है । यह क़ीमत दशगुरु परम्परा के पाँचवें गुरु श्री अर्जुन देव जी , नवम गुरु श्री तेग बहादुर जी और दशम गुरु श्री गोविन्द सिंह जी ने चुकाई । हम यहाँ केवल गुरु तेग बहादुर जी की बात करेंगे । 

           गुरु जी ने पंजाब के पुआध क्षेत्र के आनन्दपुर साहिब में अपना आश्रम स्थापित कर लिया था । धीरे धीरेआनन्दपुर विचार विमर्श के एक सशक्त केन्द्र के रूप में उंभरने लगा था । मुग़ल शासन के भारतीयों पर अत्याचारभी तेज हो गए थे । औरंगज़ेब का शासन था । उसने भारतीयों के मतान्तरण की गति बहुत ही तेज कर दी थी ।मुग़ल सत्ता का सामना कैसे किया जाए ? मतान्तरण को कैसे रोका जाए , ताकि भारत की मूल पहचान सुरक्षितरह सके ? कश्मीर घाटी में शाहमीर और चक वंशियों का राज समाप्त हो चुका था । ये दोनों वंश चाहे अपने मूलपंथ को त्यागकर इस्लाम को स्वीकार कर चुके थे लेकिन फिर भी कहीं न कहीं अपनी मूल जड़ों से पूरी तरह पूरीतरह कटे नहीं थे  । बुतशिकन सिकन्दर के शासन काल को छोड़ कर , जिसने बलपूर्वक कश्मीरियों को इस्लाममत अपनाने के लिए विवश किया था, शाहमीरी वंश के किसी दूसरे शासकों ने उतने अत्याचार नहीं किए थे ।अलबत्ता विदेशी सैयदों का मज़हबी शिकंजा उन पर धीरे धीरे जरुर कसने लगा था । परन्तु अब तो कश्मीर  परभी विदेशी मुग़ल सत्ता ने क़ब्ज़ा कर लिया था । औरंगज़ेब गद्दीनशीं था । उसके बारे में प्रसिद्ध था कि वह सवामन जनेऊ उतरवाए बिना पानी नहीं पीता था । इन सब परिस्थितियों पर चर्चा आनन्दपुर में होती थी । गुरु जी केपास देश के हर हिस्से से समाचार आ रहे थे । बंगाल, बिहार और असम की यात्रा तो वे स्वयं ही कर आए थे । वैसे तो सप्त सिन्धु क्षेत्र का अधिकांश भू भाग पहले ही मतान्तरित होकर इस्लाम मत में दीक्षित हो चुका थालेकिन अब औरंगज़ेब बचा हुआ काम भी निपटा लेना चाहता था । उसको कैसे रोका जाए , आनन्दपुर में इन्हींयक्ष प्रश्नों पर विचार होता था । कश्मीर घाटी से भी इन्हीं समस्याओं पर विचार करने और प्रतिरोध के तरीक़े खोजने के लिए 25 मई 1675 को 500 कश्मीरियों का एक   प्रतिनिधि मंडल मटन क्षेत्र के पंडित कृपा राम केनेतृत्व में आया हुआ था । कई दिनों तक विचार विमर्श होता रहा । गुरु तेग बहादुर जी के सामने विकट स्थिति थी। वे समझ गए थे कि इस अत्याचारी विदेशी सत्ता की नींव हिलाने के लिए किसी न किसी महापुरुष को अपनाबलिदान देना पड़ेगा । लेकिन यह प्रयोग ख़तरे से भरा हुआ भी हो सकता था । उस बलिदान से मुग़ल सत्ता काआतंक आम भारतीयों में और ज्यादा गहरा भी हो सकता था । यह भय पैदा हो सकता था कि जिस सत्ता ने इतनेबड़े महापुरुष की हत्या में हिचकिचाहट नहीं दिखाई , वह विदेशी अत्याचारी सत्ता का विरोध कर रहे आमभारतीय के साथ कैसा व्यवहार करेगी ? यह भावना देश में सत्ता के आतंक को और गहरा कर सकती थी ।लेकिन इस आत्मबलिदान का प्रभाव दूसरी प्रकार से भी हो सकता था । इस आत्मबलिदान से भारत में नई चेतनाव उर्जा  की जो चिंगारी प्रज्ज्वलित होगी वह मुग़ल सत्ता को भविष्य में जला कर राख कर सकेगी । यह ऊहापोहकी स्थिति थी । लेकिन देश के जनमानस को श्री तेग बहादुर जी से बेहतर कौन जान सकता था ? वे अभी देश केअधिकांश हिस्से में स्वयं होकर आए थे । जनसाधारण से मिले थे । दशगुरु परम्परा के पूर्ववर्ती गुरुओं ने देश भरमें एक नई जागृति पैदा कर दी थी । प्रथम गुरु श्री नानक देव जी तो हिन्दुस्तान से बाहर मक्का तक जाकर आएथे ।  श्री हरगोविन्द जी ने मीरी-पीरी का संकल्प देकर श्री नानक देव जी के संकल्प को क्रियान्वित करने कीदिशा में बड़ा क़दम उठाया था । अब नवम गुरु तेग बहादुर जी को उस अभियान को उसकी अन्तिम परिणति तकपहुँचाना था । उसी के लिए किसी महापुरुष के आत्म बलिदान की जरुरत थी ।  वे आँखें बन्द कर गहरी सोच मेंडूबे हुए थे , तभी उनके बेटे गोविन्द राय ने पिता से चिन्ता कारण पूछा । पिता ने समस्या बताई और उसकासमाधान भी बताया । किसी महापुरुष को मुग़ल सत्ता का सामना करने के लिए अपना बलिदान देना पड़ेगा ।बालक गोविन्द राय ने उत्तर दिया, आपसे बड़ा महापुरुष इस समय हिन्दुस्थान में और कौन है ? गुरु तेग बहादुरजी को अपने प्रश्न का उत्तर मिल गया था । उन्होंने औरंगज़ेब को संदेश भिजवा दिया,”यदि तेग बहादुर अपना पंथछोड़ पर इस्लाम का पंथ स्वीकार कर लेंगे तो शेष लोग भी मुसलमान हो जाएँगे ।” औरंगज़ेब को लगा कि यहबहुत सरल उपाय है । एक व्यक्ति को इस्लाम में दीक्षित कर लेने से देश के बाक़ी लोग भी इस्लाम पंथ कोअपना लेंगे , इससे अच्छा मौक़ा और क्या हो सकता है । गुरु जी मुग़ल सत्ता को चुनौती देते हुए अपने कुछसाथियों के साथ दिल्ली की ओर चल दिए । मुगल सत्ता ने उन्हें उनके साथियों समेत रास्ते में ही गिरफ्तार कर लिया । दिल्ली में उनके और उनके साथियों के सामने दो ही विकल्प रखे गए – मृत्यु या मतान्तरण । इस्लाम पंथ को स्वीकार करना । सारे देश की आँखें इधर ही लगीं थीं । इन सभी ने पहला विकल्प स्वीकार किया । मृत्यु का विकल्प । गुरु तेग बहादुर जी ने अपने तीन साथियों मति दास जी , सती दास जी , दियाला जी  समेत स्वत्व की रक्षा के लिए मृत्यु का वरण किया । इस आत्म बलिदान ने देश के इतिहास की दिशा बदल दी । यह कथा बहुत लम्बी है । अब इस संघर्ष के दूसरे चरण की चर्चा करें । 

ख. अंग्रेज़ी शासन काल की संघर्ष गाथा-

लक्ष्मी बाई अंग्रेज़ों की ईस्ट इंडिया कम्पनी के शासन के खिलाफ पहला सशस्त्र संघर्ष 1857 में शुरु हुआ । अब तक मुगल शासन की समाप्ति हो चुकी थी । दिल्ली में प्रतीक रूप में लाल क़िला के अन्दर उनका बादशाह रहता था । अंग्रेज़ों के खिलाफ इस संघर्ष में सभी भारतीय एकजुट थे । इसमें वे भारतीय भी शामिल थे जिनके पुरखे एटीएम के शासन काल में कभी इस्लाम या शिया पंथ में मतान्तरित हो गए थे । वे अभी तक अपनी जड़ों से नहीं टूटे थे । लेकिन विदेशी शासक अब भारत के सांस्कृतिक अस्तित्व को ही समाप्त करने का प्रयास कर रहे थे । इस संघर्ष में महारानी लक्ष्मी बाई का नाम सबसे उपर आता है । उसकी संघर्ष गाथा को सुभद्रा कुमारी चौहान ने साहित्य और इतिहास दोनों में ही अमर कर दिया । 

         बुन्देलों हर बोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी 

          ख़ूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी । 

 1857 का यह स्वतंत्रता संग्राम तो असफल हो गया लेकिन लक्ष्मीबाई अपने अभियान में सफल हो गई । 1857 के इस असफल संग्राम ने ही 1947 के सफल संग्राम की नींव रखी थी । लेकिन इसी नींव के एक दूसरे पत्थर थे बिरसा मुंडा । उन्होंने अपनी पढ़ाई की शुरुआत किसी क्रिश्चियन स्कूल से की थी लेकिन वे जल्दी ही समझ गए कि ये ये स्कूल विदेशी ब्रिटिश सत्ता की इनफैंट्री का काम करते हैं । स्थानीय लोगों को पहले चरण में ईसाई पंथ में मतान्तरित करते हैं और दूसरे चरण में उन्हें ब्रिटिश शासन के प्रति स्वामिभक्त बनाते हैं । तीसरे चरण में स्थानीय लोगों की आर्थिकता की रीढ़ पर हमला करते हैं और यहाँ की जमीन पर कब्जा करके अपने पिट्ठूओं के हवाले कर देते हैं । इस रहस्य को जल्दी ही आत्मसात कर लेने के बाद भगवान बिरसा मुंडा ने ब्रिटिश सरकार के खिलाफ वर्तमान झारखंड में व्यापक आन्दोलन छेड़ दिया और देश के ‘स्वबोध’ को जागृत किया । बिरसा मुंडा ने विक्टोरिया के राज के अन्त की घोषणा कर दी । देश की जनता ने उन्हें धरती बाबा कह कर सम्मानित किया । विदेशी सत्ता ने उन्हें  क़ैद कर लिया । वहीं 9 जून 1900 में उनका देहान्त हो गया । लेकिन स्वतंत्रता की जो ज्वाला उन्होंने भारत के जंगलों में जगा दी उसकी तपिश ने विदेशी सत्ता को अन्त तक तपाए रखा । 

          जगदीश चन्द्र बोस ने देश के स्वबोध को विज्ञान के क्षेत्र में पहचाना । विदेशी सत्ता ने भारत में जो शिक्षा पद्धति लागू की थी , उसने देश की मेधा को भारतीय ज्ञान परम्परा से तोड़ने का प्रयास किया था । इससे इस शिक्षा पद्धति से शिक्षित युवा में भारतीय ज्ञान परम्परा के प्रति हीन भावना पैदा हो रही थी । यहाँ तक कहा जाने लगा था कि भारत में विज्ञान की परम्परा थी ही नहीं बल्कि विज्ञान ने नाम पर कल्पना और मिथक थे । जगदीश बसु ने इस क्षेत्र में कार्य करके नए प्रतिमान स्थापित किए ।                  यहाँ महाराष्ट्र के प्रसिद्ध समाज सुधारक महात्मा ज्योतिवा फुले का स्मरण करना होगा । डा० भीमराव रामजी आम्बेडकर उन्हें अपना गुरु मानते थे । ज्योतिवा फुले ने भारतीय/हिन्दु समाज के स्वबोध में स्व को पहचानने और उसके मूल स्वरूप को पुनर्स्थापित करने का भागीरथ प्रयास किया । यह एक प्रकार से आधुनिक युग का महामंथन था जिस में से ज़हर भी निकल रहा था जो शताब्दियों की जड़ता और हालातों ने पैदा किया था । लम्बी अरसे से भारतीय समाज के भीतर रह जाने के कारण अनेक स्थानों पर समाज इस ज़हर को भी अपने स्व का हिस्सा ही मानने लगा था । ज्योतिबा फुले का काम सबसे ज्यादा कंटकाकीर्ण था । उन्हें अपने समाज को ही समझाना था कि यह ज़हर हमारे स्व का हिस्सा नहीं है । यह तो भीतर ही भीतर हमारे स्व को भी ख़त्म कर रहा है और ऐसी परिस्थितियाँ पैदा कर रहा है कि समाज के भीतर लगे इस दीमक के चलते हमारे समाज पर विदेशी कब्जा कर सकते हैं । वे हमारे मन मानस पर नियंत्रण कर सकते हैं । इसलिए बहुत जरुरी है कि इस ज़हर की पहचान कर ली जाने और इससे मुक्त हुआ जाए । फुले इस अभियान के पुरोधा बने । लेकिन उनको अपने इन प्रयासों के कारण समाज के भीतर से ही बहुत विरोध सहना पड़ा । लेकिन वे पीछे नहीं हटे । उनके इन प्रयासों ने ही कालान्तर में भारत में सामाजिक आन्दोलन को जन्म दिया । फुले द्वारा उठाए गए बहुत से प्रश्नों का उत्तर बाद में उन्हीं के शिष्य डा० भीमराव रामजी आम्बेडकर ने ,’शूद्र कौन थे ?’ और ‘अस्पृष्य कौन थे ?’ लिखकर दिया । जब भी भारत में विदेशी शासन काल में स्वत्व बोध के लिए लड़ी जाने वाली लडाई की बात आएगी तो ज्येतिबा फुले गा स्मरण अवश्य होगा । 

          लेकिन एक प्रश्न अवश्य पूछा जाएगा कि स्वत्व की रक्षा की इस लडाई में केवल कुछ गिने चुने महापुरुषों का उल्लेख ही क्यों ? इससे आलेख अधूरा व असंतुलित नहीं हो जाएगा ? इस की एक ही कैफ़ियत है कि इन सभी महापुरुषों की जयन्ती या पुण्यतिथि नवम्बर मास में आती है , इसलिए नवम्बर मास में इनका स्मरण ।

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