प्रमोद भार्गव
यह आश्चर्यजनक है कि पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह को सीबीआई की विशेष अदालत ने प्रथम दृष्ट्या कोयले
की दलाली में दोषी पाया है। सिंह अब एक अभियुक्त के रूप में 8 अप्रैल को न्यायालय के समक्ष पेश होंगे, वह भी
आपराधिक षड्यंत्र रचने, भ्रष्टाचार और अमानत में खयानत करने जैसे गंभीर आरोपों में। ये धारा 120 बी और
409 के तहत आने वाले ऐसे आरोप हैं, जो यदि सिद्ध हो जाते है तो आरोपी को आजीवन कारावास की सजा तक
हो सकती है। यह एक ऐसा विचित्र मामला है जिसमें सीबीआई ने जांच में पर्याप्त सबूत नहीं मिलने की बात
कहकर खात्मा रिपोर्ट पेश कर दी थी। लेकिन विशेष न्यायाधीश भरत पारासर के कड़े रुख से मामला उलट गया
और अदालत ने खात्मा रिपोर्ट खारिज कर पूर्व प्रधानमंत्री से पूछताछ के आदेश दिए और अब वे अभियुक्त के रूप
में अदालत के कठघरे में है। मनमोहन दोषी ठहराए जाते है अथवा नहीं यह तो काल के गर्भ में है, लेकिन उन पर
हुई इस कानूनी कार्यवाही से यह तथ्य स्थापित हुआ है कि वर्तमान परिदृष्य में बड़े से बड़ पदाधिकारी भी अपने
उत्तरदायित्व से बच नहीं सकता।
कोयला घोटाले से जुड़ी चैदहवीं एफआईआर दर्ज होने के वक्त से ही यह आशंका प्रबल हो गई थी कि कानून के लंबे
हाथों की गिरफ्त में पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कभी भी आ सकते है, क्योंकि यह वही प्राथमिकी थी, जिसमें देश
के प्रसिद्ध उद्योगपति कुमार मंगलम् बिड़ला के साथ पूर्व कोयला सचिव प्रकाश चंद्र पारिख के नाम शामिल किए
गए थे। हालांकि बिड़ला और पारिख दोनों की ही छवि मनमोहन सिंह की तरह साफ सुथरी मानी जाती है इसीलिए
पारिख ने तत्काल पलटवार करते हुए तार्किक सवाल उठाया था कि यदि कोल खण्डों के आंबटन में कोई षड्यंत्र
हुआ है तो बतौर कोयला मंत्री डॉ मनमोहन सिंह का नाम भी षड्यंत्रकारियों की आपराधिक सूची में फ़र्स्ट
कांसिपिरेटर मसलन प्रथम साजिशकर्ता के रूप में दर्ज होना चाहिए, क्योंकि फाइल पर अंतिम हस्ताक्षर उन्हीं के हुए
हैं। लिहाजा उन्हें क्लीन चीट नहीं दी जा सकती है? अब जाकर पारिख की वाणी फलीभूत हुई है।
दरअसल सीबीआई ने 9 साल पहले ओड़िसा में बिड़ला की कंपनी हिंडालको को 2005 में तालाबीरा-2 और
तालाबीरा-3 कोलखण्ड आवंटित किए थे। ये दोनों खण्ड सरकारी कंपनी नायवेली को दरकिनार करके दिए गए थे।
जाहिर है, साजिश की गई और इस साजिश में प्रधानमंत्री के शामिल होने की आशंका पर शक की सूई इसलिए जा
टिकती थी, क्योंकि उन्होंने सरकारी कंपनी को दरकिनार किए जाने के विषय पर कोई सवाल उठाने की बजाय
पारिख द्वारा भेजी फाइल पर दस्तखत कर दिए थे। यही वह समय था जब बिड़ला ने खदान आबंटन के लिए
प्रधानमंत्री को पत्र लिखे थे और उनसे निजी मुलाकात की थी। इस बसबत जनवरी 2015 में सीबीआई ने मनमोहन
सिंह से पूछताछ भी की थी। यहां यह भी गौरतलब है कि प्रधानमंत्री ने सिब्बू सोरेने के बाद कोयला मंत्रालय का
प्रभार संभाला था और कोयले के सभी आवंटन उन्हीं के कार्यकाल में हुए थे। यही नहीं प्रधानमंत्री के कोयला मंत्री
रहने के दौरान कोल खण्ड ऐसी कंपनियों को दिये गए जिनकी न तो कोई बाजार में साख थी और न ही इस क्षेत्र
में काम करने के अनुभव थे।
पहली बार कोल खण्डो के आवंटन से जुड़ी गड़बड़ियां कैग की अंकेक्षण प्रतिवेदन, ऑडिट रिपोर्ट से सामने आई
थी। उसमें तथ्यात्मक आशंकाएँ जताई गईं थीं। इसी से एहसास हो गया था कि इस रिपोर्ट के अर्थ गंभीर मायनों के
पर्याय हैं। लेकिन तात्कालीन सरकार ने उस समय केवल यह जुमला छोड़कर बरी हो जाने की कोशिश की थी कि
नीति पारदर्शी थी और उसमें कोई अनिमियता या गलती नहीं हुई थी। वैसे नीतियां तो सभी पारदर्शी और जन
कल्याणकारी होती हैं, लेकिन निजी स्वार्थपूर्तियों के लिए उन पर अपारदर्शिता का मुलल्मा चढ़ाकर ही भ्रष्टाचार के
द्वार खोले जाते हैं। अपारदर्शिता और अनीति का यही खेल कोल खण्डो के आवंटन में बरता गया और पलक
झपकते ही चुनिंदा निजी कंपनियों को 1.86 लाख करोड़ रूपए का लाभ पहुंचा दिया गया।
कोल खण्डों के आबंटन में गड़बड़ियां हैं, इसकी उठा-पठक लंबे समय से चल रही है। दल अण्णा ने
मनमोहन सिंह समेत 15 केबिनेट मंत्रियों पर दस्तावेजी साक्ष्य पेश करके भ्रष्टाचार के अरोप लगाए थे। इन
आरोपों से भी यह आशंका जगी थी कि मनमोहन सिंह सरकार का मंत्रीमण्डल अलीबाबा चालीस चोरों का समूह है।
दल के सहयोगी अरबिंद केजरीवाल और प्रसिद्ध वकील प्रशांत भूषण ने ये आरोप सुप्रीम कोर्ट, हाईकोर्ट और कैग
की रिपोर्टों के आधार पर लगाए थे। किंतु तब इनके पास कैग की रिपोर्ट के अधूरे दस्तावेज अनाधिकृत तौर से आए
थे, इसलिए तब सरकार ने प्रधानमंत्री का बचाव इस बिना पर कर लिया था कि कैग की जिस रिपोर्ट का हवाला
अण्णा दल दे रहा है, वह अभी तक संसद में पेश ही नहीं हुई है। इसलिए ये सब आरोप सरकार और प्रधानमंत्री
को बदनाम करने के लिए गढ़े हुए हैं। किंतु बाद में कैग ने ’परफोर्मेंस ऑडिट आफ कोल ब्लाक एलोकेशंस’ नामक
रिपोर्ट संसद में पेश की तो कोयला धोटाला अधिकृत रूप से देश के सामने आ गया। बाद में सीबीआई की जांच
से भी इस घोटाले की तस्दीक हो गई थी।
हालांकि मनमोहन सरकार कोयले की कालिख मिटाने के अनेक उपायों में भी लगी रही थी। घोटाले से जुड़ी 18
फाइलें भी गायब कर दी गई थीं। जो फाइलें गायब हुई थी, उनमें 45 कंपनियों के दस्तावेज नत्थी थे। इस मसले से
यह आशंका पुख्ता हुई थी कि सरकार कोल खण्ड आवंटन से जुड़े प्रधानमंत्री को बचाना चाहती है क्योंकि गायब
हुई फाइलें प्रधानमंत्री के उस कार्यकाल से जुड़ी थीं जब उनके पास कोयला मंत्रालय का अतिरिक्त प्रभार था। इसी
सिलसिले में सीबीआई को सरकार द्वारा स्थिति रिपोर्ट बदलने के लिए भी मजबूर किया गया था। जिसका
खामियाजा तबके कानून मंत्री अश्विनी कुमार को इस्तीफा देकर भुगतना पड़ा था।
मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री रहते हुए देशभर में भूसंपदा के रूप में फैले कोयले के ये टुकड़े बिना किसी
नीलामी के पूंजीपतियों को बांट दिये गए थे। जबकि कोयला सचिव पारिख ने नोटशीट पर बाकायदा टीप दर्ज की
थी कि प्रतिस्पर्धी बोलियों के बिना महज आवेदन के आधार पर खदानों का आबंटन किया गया तो इससे सरकारी
खजाने को बड़ी मात्रा में नुकसान होगा। हुआ भी यही। कैग ने उस समय तय किया था कि देश मे अब तक का
सबसे बड़ा घोटाला 1.76 लाख करोड़ रूपये का 2जी स्पेक्ट्रम था और अब यह कोयला घोटाला 1.86 लाख करोड़
रूपये का हो गया है।
2003 में जब पहली बार मनमोहन सिंह देश के प्रधानमंत्री बने थे तब उन्होंने कोयला मंत्रालय अपने ही अधीन
रखा। 2004 में सरकार ने नीलामी के जरिए कोल खंड देने का फैसला किया। लेकिन इस हेतु न तो कोई वैधानिक
तौर-तरीके बनाए और न ही कोई प्रक्रिया अपनाई। लिहाजा प्रतिस्पर्धा बोलियों को आमंत्रित किए बिना ही निजी क्षेत्र
की कंपनियों को सीधे नामांकन के आधार पर कोल खण्ड आबंटित किए जाने लगे। देखते – देखते 2004 – 2009 के
बीच रिपोर्ट के मुताबिक 342 खदानों के पट्टे 155 निजी कंपनियों को दे दिए गए। इनमें 25 नामी कंपनियां तो
ऐसी थीं, जिन्हें औने – पौने दामों में सीधे नामांकन के आधार पर कोल खंड दिए गए। इनमें एस्सार पावर, हिंडालको
इंइस्ट्रीज, टाटा स्टील, टाटा पावर और जिंदल पावर व जिंदल स्टील के नाम शामिल हैं। इनके साथ ही संगीत
कंपनी से लेकर गुटखा, बनियान, मिनरल वाटर और समाचार पत्र छापने वाली कंपनियों को भी नियमों को धता
बताकर कोल खंड आबंटित किए गए। इनमें से जिन कंपनियों ने अनुबंध में नए उर्जा संयंत्र लगाने का वायदा किया
था, उनमें से किसी ने भी नया उर्जा संयंत्र नहीं लगाया। इसके उलट निजी कंपनियों को कोल खंड देने के ये
दुष्परिणाम देखने में आए कि जिन कोयला खदानों में निजीकरण होने से पहले आठ लाख मजदूर व कर्मचारी
रोजगार पाते थे, उनमें घट कर तीन लाख रह गए थे।
इस घोटाले से जुड़े जो क्रमबद्ध तथ्य व सबूत सामने आए हैं, उनके लपेटे में अब पूर्व प्रधानमंत्री हैं। इस कार्यवाही
से देश में यह संदेश गया है कि अब न्यायिक प्रक्रिया से बड़े से बड़ा राजनेता या पदाधिकारी का बचना मुश्किल
है। इससे इस मान्यता को भी बल मिला है कि कानून से ज्यादा ताकत किसी पद या व्यक्ति की नहीं है। हालांकि
मनमोहन सिंह के पहले नरसिंह राव को भी वर्श 2000 में सांसद रिश्वत कांड में दोषी ठहराया जा चुका है। उन्हें
तीन साल की सजा भी सुनाई गई थी, हालांकि दिल्ली उच्च न्यायालय ने राव को दोषमुक्त कर दिया था।
बहरहाल, मनमोहन सिंह ने ठीक ही कहा है कि उनके पास अपना पक्ष रखने और खुद को निर्दोष साबित करने का
अवसर है। अच्छा है, सिंह निर्दोश साबित हों, किंतु यह कार्यवाही एक ऐसी मिसाल बनने जा रही है, जो लोकसेवकों
को जबावदेही बरतने के लिए विवश करेगी।
मनमोहन सिंह व्यक्तिगत रूप से बिलकुल साफ़ छवि के व्यक्ति हैं , लेकिन उनकी पार्टी ने चंदा ले जो कार्य करवाये वे उनके लिए सरदर्द बन जायेंगे वास्तव में मनमोहन सिंह को जिस प्रकार सोनिया व उनकी मंडली ने जिस प्रकार मोहरा बनाया उस से वे अनभिज्ञ रहे और वे सब तो एक और जा कर बैठ गए पर इनके गले में घंटी बंध गयी है। अब चाहे मोदी सरकार को कांग्रेस कितना ही कोसे लेकिन यह फांस एक बार तो बदनामी की वजह बन ही गयी भला कोयले की कालिख इतनी आसानी से साफ़ थोड़े ही न होती है यदि वे आरोप मुक्त हो भी गए तो भी एक बार की बदनामी पार्टी के लिए तो सबक होगी ही , देखो क्या होता है क्योंकि मनमोहन सिंह ने कम से कम व्यक्तिगत लाभ तो इस से नहीं पाया है यह निश्चित है , पर सोनिया या पार्टी ने कितना कमाया इसका अंदाज नहीं व पता चलेगा भी नहीं अमूमन इस प्रकार के मुकदमों में गबन राशि तो कभी वापिस मिलती नहीं सिवाय सजा के इसलिए देश को हुए नुक्सान की क्षतिपूर्ति कभी नहीं होती हां मुकदमेबाजी में समय धन व शक्ति का जरूर अपव्यय जरूर होता है