महेश दत्त शर्मा
प्रथम विश्वयुद्ध (1914-1919) तथा द्वितीय विश्वयुद्ध (1939-1945) ने दुनिया को ऐसी अपूरणीय क्षति दी, जिसकी भरपाई वह आज भी कर रही है। हिरोशिमा और नागासाकी के जख्म आज भी नहीं सूखे हैं। हिटलर ने यहूदियों को जो घाव दिए, उनसे वे आज भी आतंकित हैं। पर्ल हारबर का हमला अमेरिकियों में आज भी टीस भर देता है।
यदि हम भारतीय वैदिक साहित्य का अध्ययन करें तो वहाँ भी हमें अनेक दैत्यों और देवों के युद्धों के वर्णन मिलते हैं। दैत्य भी साम्राज्यवाद की लालसा में कभी इंद्र के स्वर्गासन पर हमला करते हैं तो कभी ऋषिमुनियों का कत्लओम करके उन्हें अपनी पूजा करने के लिए बाध्य करते हैं। जैसे हिटलर ने यहूदियों का कत्लओम किया और नाजियों को विश्व में सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करने की कुचेष्टा। तो क्या वे दैत्य ही हिटलर, मुसोलिनी, स्टालिन, हिदेकी तोजो इत्यादि के रूप में जनमे थे? अवतारवाद में यकीन रखने वाले लोग इस दृष्टिकोण के हामी हो सकते हैं। लेकिन यहाँ यह भी जोड़ना आवश्यक है कि हिटलर जैसे ये लोग उन दैत्यों से भी कहीं अधिक भयंकर थे। दैत्य लोगों ने जो कुछ किया अपने अस्तित्व को बचाने के लिए किया। दैत्यों ने अपने ही लोगों से कभी युद्ध नहीं किया। जबकि प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध में तो एक इनसान ने ही दूसरे इनसान के साथ छल किया, बलात्कार किया, लूटखसोट की, नरसंहार व नंगा नाच किया। इन युद्धों में इनसान ने इनसानियत की सारी हदें तोड़कर राक्षसों को भी शम्रिंदा कर दिया।
अगर हम आँकड़ों की बात करें तो इन दोनों युद्धों में लगभग 10 करोड़ लोग मारे गए और अरबों डॉलर की संपित्त स्वाहा हो गई। हालाँकि ये आँकड़े अलगअलग स्रोतों पर अलग हो सकते हैं। अगर इतना मानव संसाधन और आथ्रिक संसाधन हम रचनात्मक कायोर्ं पर खर्च करते तो चंद्रमा पर एक नई पृथ्वी बसा सकते थे।
आज भी अनेक देश युद्ध में लगे हुए हैं। कुछ ने तो युद्ध को ही अपनी राष्ट्रीय नीति का हिस्सा बना लिया है। ऐसे देश जरा पीछे लड़े गए युद्धों पर दृष्टि डाल लें तो उन्हें पता चल जाएगा कि वे कितने पानी में हैं। युद्ध हमेशा विनाश का मार्ग प्रशस्त करते हैं, यह स्मरण रहे। दूसरों का घर जलाने पर उसकी चिनगारी हमें भी निश्चित ही झुलाएगी। स्मरण रखें
आप हिटलर से अधिक ताकतवर नहीं हो सकते जिसके आह्वान पर लाखों लोग कटमरने को तैयार हो गए थे लेकिन युद्ध की आग ने उसे भी लील लिया। उसे पत्नी सहित आत्महत्या करनी पड़ी।
इटली के तानाशाह मुसोलिनी ने राज्यविस्तार की लालसा में हिटलर का साथ दिया और आँख मूँदकर उसकी हाँमें-हाँ मिलाई। परिणाम, उसे चौराहे पर पागल कुत्ते की तरह गोली मार दी गई।
सोवियत संघ के तानाशाह स्टालिन ने तो क्रुरता में दानवों को भी पीछे छोड़ दिया था। वह अपनी सेना के योग्य कमांडरों कर कत्ल करवा देता था ताकि कोई उसकी एकछत्र सत्ता को चुनौती न दे सके। हजारों लोगों को वह बातोंही-बातों में कत्ल करवा देता था। अपनी स्वार्थपूर्ति के आगे इनसान उसे कीड़ेमकोड़ों से भी बदतर नजर आते थे। उसका कहना था कि एक आदमी की मौत एक त्रासदी है और लाखों की आँकड़ा।
जापानी तानाशाह हिदेकी तोजो ने विश्व में अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए युद्ध को हथियार बनाया। पर्ल हारबर पर हमला कराया। आसपास के मुल्कौं पर ताबड़तोड़ हमले किए। शांतिप्रस्तावों को हेंकड़ी के साथ ठुकरा दिया। परिणाम हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु हमले झेलने पड़े। हिरोशिमा में लगभग एक लाख लोग मारे गए और इससे आधे घायल हुए। नागासाकी में एक लाख से कुछ कम लोग मारे गए और लगभग 50 हजार लोग घायल हुए। बाद में युद्धअपराध के लिए इस तानाशाह को फाँसी पर च़ा दिया गया। एक आदमी की गलती की सजा इतने आदमी क्यों भुगतें?
दुनिया में अमन, शांति, विकास और सौहार्द के लिए हिटलर जैसे लोगों की नहीं, गांधी जैसे लोगों की जरूरत है। हिटलर जैसे लोग इनसानियत को तोड़ते हैं और गांधी जैसे लोग राक्षसों को भी इनसान बना देते हैं। हिटलर जैसे लोग मुल्कौं के बीच नफरत फैलाते हैं और आपसी संबंधों में दरार डालने का प्रयास करते हैं; वहीं गांधी जैसे लोग मुल्कौं के बीच प्रेम ब़ाने का प्रयास करते हैं और आपसी संबंधों में आई दरार को पाटने का काम करते हैं।
आप सोच सकते हैं, हमें कैसे लोगों की जरूरत है? हम अपने नेतृत्वकर्ताओं पर देश को अमन और शांति के मार्ग पर आगे बा़ने के लिए दबाव बना सकते हैं। लोकतंत्र में यह किया जा सकता है। जनता की आवाज, जनार्दन की आवाज होती है, यह ध्यान रखें। हमें ही यह तय करना होगा कि हमारे देश में ही नहीं, अपितु दुनिया में कहीं भी युद्ध न हो, क्योंकि युद्ध किसी समस्या का हल नहीं है। युद्ध से हमें तात्कालिक लाभ तो हो सकता है, लेकिन इसके दूरगामी परिणाम पक्ष और विपक्ष दोनों को ही विपरीत भुगतने पड़ते हैं। पिछले अनेक युद्धों के निष्कर्ष पर दृष्टि डालें तो वे हमें झकझोर कर रख सकते हैं।
युद्ध रिक्टर स्केल पर 12 की तीव्रता वाले भूकंप के समान होता है जो कुछेक सेकंडों में ही किसी भी देश को भयानक विनाश के तूफान में झोंकने के लिए काफी होता है। वह पीछे त्रासदी, विनाश, सिसकियाँ, तबाही और न जाने क्या कुछ छोड़ जाता है। उससे उबरने में वषो लग जाते हैं।
एक कहावत है, ‘लबे शीरीं तो मुलक गीरी’। यानी हम मीठी बोली से पूरी दुनिया को वश में कर सकते हैं। आज जब संसार एक ‘वैश्विक गाँव’ बन गया है, ऐसे में युद्ध की सुदूरस्थ धमक भी घर के आँगन में गूँजती सुनाई देती है। इन परिस्थितियों में हमें युद्ध की बात सोचनी भी नहीं चाहिए क्योंकि आज दुनिया चाँद पर पहुँच गई है। उसने अंतरिक्ष में प्रयोगशाला स्थापित कर ली है। जासूसी उपग्रहों की पैनी नजरों से लोगों के स्नानगृह भी निरापद नहीं बचे हैं; ऐसे में युद्ध की एक छोटी सी चिनगारी भी ज्वालामुखी का रूप धारण कर सकती है। तीसरा विश्वयुद्ध कभी छिड़ा तो वह पृथ्वी से ही नहीं; चाँद से, उपग्रहों से, अंतरिक्ष से और न जाने कहाँकहाँ से लड़ा जाएगा। न जाने कौनकौन से घातक अस्त्राशस्त्रों का इस्तेमाल होगा।
आइंस्टाइन ने कहा है, “मुझे यह नहीं मालूम कि तीसरा विश्वयुद्ध कैसे लड़ा जाएगा, लेकिन चौथा विश्वयुद्ध अवश्य ही डंडों और पत्थरों से लड़ा जाएगा।’’
अर्थात तीसरा विश्वयुद्ध हमें पुनः आदिम युग में पहुँचा देगा!