वोटर को लुभाने के लिये मुफ्त की संस्कृति

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ललित गर्ग

पंजाब में आगामी विधानसभा चुनावों के मद्देजनर आम आदमी पार्टी के नेता एवं दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल पूरी ताकत लगा रहे हैं, मतदाताओं को लुभाने के लिये कई घोषणाएं कर रहे हैं, इनदिनों उनकी ऐसी ही एक घोषणा चर्चा का विषय बनी हुई है जिसमें उन्होंने एलान किया है कि यदि उनकी पार्टी की सरकार बनी, तो राज्य में 18 साल से ऊपर की सभी महिलाओं के खाते में हर महीने 1,000 रुपये डाले जाएंगे। बुजुर्ग महिलाओं को वृद्धा पेंशन के अतिरिक्त यह राशि मिलेगी। इस योजना को उन्होंने भले ही स्त्री सशक्तीकरण से जोड़ा है, लेकिन यह सीधे रूप में पंजाब की महिलाओं को अपने पक्ष में वोट डालने का प्रलोभन है, लोक-लुभावन घोषणा है। भ्रष्टाचार के खिलाफ बिगुल बजाकर भारतीय राजनीति में अपना सितारा आजमाने वाले अरविन्द केजरीवाल खैरात बांटने एवं मुफ्त की सुविधाओं की घोषणाएं करके चर्चित हो गये हैं। वैसे हर दल में मुफ्त बांटने की संस्कृति का प्रचलन बढ़ता ही जा रहा है। लोकतंत्र में इस तरह की बेतूकी एवं अतिश्योक्तिपूर्ण घोषणाएं एवं आश्वासन राजनीति को दूषित करते हैं, जो न केवल घातक है बल्कि एक बड़ी विसंगति का द्योेतक हैं। किसी भी सत्तारूढ पार्टी को जनता की मेहनत की कमाई को लुटाने के लिये नहीं, बल्कि उसका जनहित एवं विकासमूलक कार्यों में उपयोग करने के लिये जिम्मेदारी दी जाती है। इस जिम्मेदारी का सम्यक् निर्वहन करके ही कोई भी सत्तारूढ पार्टी या उसके नेता सत्ता के काबिल बने रह सकते हैं।
केजरीवाल की यह घोषणा अनेक सवालों को खड़ा करती है। क्या इस तरह की घोषणा से किसी तरह का बुनियादी विकास होता है? क्या यह लोकतंत्र की मूल भावना का हनन नहीं है? क्या पंजाब जैसे समृद्ध प्रांत में ऐसी घोषणा की अपेक्षा है? ऐसी कितनी महिलाएं वाकई इस तरह की राशि के लिये जरूरतमंद हैं? सवाल यह भी है कि 18 साल की सीमा क्यों? किसी लोक-कल्याणकारी योजना में एक से 18 साल की बच्चियों के साथ भेदभाव क्यों करना चाहिए? क्योंकि उनके पास वोट का अधिकार नहीं? चुनावी घोषणापत्रों में रेवड़ियां बांटने की प्रवृत्ति कब तक चलेगी? इन प्रश्नों के उत्तर तलाशना इसलिये जरूरी हो गया है कि सभी राजनीतिक दल विकास को भूल कर अब ऐसी खेरात बांटने एवं मुफ्त की संस्कृति को पनपाने में लगे हैं।
यह कैसा लोकतांत्रिक ढ़ांचा बन रहा है जिसमें पार्टियां अपनी सीमा से कहीं आगे बढ़कर लोक-लुभावन वादे करने लगी हैं, उसे किसी भी तरह से जनहित में नहीं कहा जा सकता। बेहिसाब लोक-लुभावन घोषणाएं और पूरे न हो सकने वाले आश्वासन पार्टियों को तात्कालिक लाभ तो जरूर पहुंचा सकते हैं, पर इससे देश के दीर्घकालिक सामाजिक और आर्थिक हालात पर प्रतिकूल असर पड़ने की भी आशंका है। इससे विकास योजनाओं के पंगु होने एवं जनता में मुफ्तखोरी की मानसिकता पांव पसारने लगी है। प्रश्न है कि राजनीतिक पार्टियां एवं राजनेता सत्ता के नशे में डूबकर इतने गैरजिम्मेवार एवं स्वार्थी कैसे हो सकते है?
प्रश्न है कि क्या सार्वजनिक संसाधन किसी को बिल्कुल मुफ्त में उपलब्ध कराए जाने चाहिए? क्या जनधन को चाहे जैसे खर्च करने का सरकारों को अधिकार है? तब, जब सरकारें आर्थिक रूप से आरामदेह स्थिति में न हों। यह प्रवृत्ति राजनीतिक लाभ से प्रेरित तो है ही, सांस्थानिक विफलता को भी ढकती है, और इसे किसी एक पार्टी या सरकार तक सीमित नहीं रखा जा सकता। कोई सरकार कैंपेन चलाकर आम आदमी की गाढ़ी कमाई के करोड़ों रुपये यह बताने में खर्च कर देती हैं कि किस तरह उन्होंने देश को चमका दिया है। इस तरह का बड़बोलेपन एवं मुफ्त की संस्कृति को पढ़े-लिखे बेरोजगारों ने अपना अपमान समझा। कई बार सरकारों के पास इतने संसाधन नहीं होते कि वे अपने लोगों के अभाव, भूख, बेरोजगारी, प्रदूषण जैसी विपदाओं से बचा सकें। लेकिन जब उनके पास इन मूलभूत जनसमस्याओं के निदान के लिये धन नहीं होता है तो वे मुफ्त में सुविधाएं कैसे बांटते हैं? क्यों करोड़ों-अरबों रूपये अपने प्रचार-प्रसार में खर्च करते हैं?
दक्षिण भारत में, खासकर तमिलनाडु से चली यह मुफ्त बांटने की परम्परा अब लगभग समूचे राष्ट्र मेें हावी है। अर्थव्यवस्था और राज्य की माली हालत को ताक पर रखकर लगभग सभी पार्टियों व सरकारों ने गहने, लैपटॉप, मंगलसूत्र, टीवी, स्मार्टफोन से लेकर चावल, दूध, घी तक बांटा है या बांटने का वादा किया है। यह मुफ्तखोरी की पराकाष्ठा है। मुफ्त दवा, मुफ्त जाँच, लगभग मुफ्त राशन, मुफ्त शिक्षा, मुफ्त विवाह, मुफ्त जमीन के पट्टे, मुफ्त मकान बनाने के पैसे, बच्चा पैदा करने पर पैसे, बच्चा पैदा नहीं (नसबंदी) करने पर पैसे, स्कूल में खाना मुफ्त, मुफ्त जैसी बिजली 200 रुपए महीना, मुफ्त तीर्थ यात्रा, मुफ्त पानी। जन्म से लेकर मृत्यु तक सब मुफ्त। मुफ्त बाँटने की होड़ मची है, फिर कोई काम क्यों करेगा? मुफ्त बांटने की संस्कृति से देश का विकास कैसे होगा? पिछले दस सालों से लेकर आगे बीस सालों में एक ऐसी पूरी पीढ़ी तैयार हो रही है या हमारे नेता ऐसी पीढ़ी निर्मित कर रहे हैं, जो पूर्णतया मुफ्त खोर होगी। अगर आप उनको काम करने को कहेंगे तो वे गाली देकर कहेंगे, कि सरकार क्या कर रही है?
विडम्बना एवं विसंगति की हदें पार हो रही है। ये मुफ्त एवं खैरात कोई भी पार्टी अपने फंड से नहीं देती। टैक्स दाताओं का पैसा इस्तेमाल करती है। हम ’नागरिक नहीं परजीवी’ तैयार कर रहे हैं। देश का टैक्स दाता अल्पसंख्यक वर्ग मुफ्त खोर बहुसंख्यक समाज को कब तक पालेगा? जब ये आर्थिक समीकरण फैल होगा तब ये मुफ्त खोर पीढ़ी बीस तीस साल की हो चुकी होगी। जिसने जीवन में कभी मेहनत की रोटी नहीं खाई होगी, वह हमेशा मुफ्त की खायेगा। नहीं मिलने पर, ये पीढ़ी नक्सली बन जाएगी, उग्रवादी बन जाएगी, पर काम नहीं कर पाएगी। यह कैसा समाज निर्मित कर रहे हैं? यह कैसी विसंगतिपूर्ण राजनीति है? राजनीति छोड़कर, गम्भीरता से चिंतन करने की जरूरत है।
निश्चित रूप से पंजाब की गरीब महिलाओं को ऐसी किसी योजना से लाभ होगा, लेकिन प्रश्न है कि क्या पंजाब में सभी गरीब ही महिलाएं हैं? फिर अमीर एवं समृद्ध महिलाओं को ऐसी सहायता पहुंचाकर केजरीवालजी क्या जताना चाहते हैं? जैसाकि दिल्ली में प्रत्येक परिवार को हर महीने 200 इकाई तक मुफ्त बिजली और 20 हजार लीटर पानी के वादे ने दिल्ली के विकास को अवरुद्ध कर दिया है? सड़के टूटी है, कोई नयी विकास योजना सामने नहीं आयी है। भले ही ऐसी स्थितियों से आम आदमी पार्टी ने लगातार दो चुनावों में शानदार सफलता हासिल की है। लेकिन उसने ऐसी परम्परा का सूत्रपात भी किया है कि उससे प्रेरित होकर उन प्रदेशों की राजनीतिक पार्टियों में भी हास्यास्पद स्तर तक मुफ्त सुविधाओं के वादे की होड़ लगने लगी है, जिन्हें आर्थिक रूप से बीमारू प्रदेशों में गिना जाता है।
वर्तमान दौर की सत्ता लालसा की चिंगारी इतनी प्रस्फुटित हो चुकी है, सत्ता के रसोस्वादन के लिए जनता और व्यवस्था को पंगु बनाने की राजनीति चल रही है। राजनीतिक दलों की बही-खाते से सामाजिक सुधार, रोजगार, नये उद्यमों का सृजन, खेती को प्रोत्साहन, ग्रामीण जीवन के पुनरुत्थान की प्राथमिक जिम्मेवारियां नदारद हो चुकी है, बिना मेहंदी लगे ही हाथ पीले करने की फिराक में सभी राजनीतिक दल जुट चुके हैं। जनता को मुफ्तखोरी की लत से बचाने की जगह उसकी गिरफ्त में कर अपना राजनीतिक उल्लू सीधा करने में लगे हैं। लोकतंत्र में लोगों को नकारा, आलसी, लोभी, अकर्मण्य, लुंज बनाना ही क्या राजनीतिक कर्त्ता-धर्त्ताओं की मिसाल है? अपना हित एवं स्वार्थ-साधना ही सर्वव्यापी हो चला है? हकीकत में मुफ्त तरीकों से हम एक ऐसे समाज को जन्म देंगे जो उत्पादक नहीं बनकर आश्रित और अकर्मण्य होगा और इसका सीधा असर देश की पारिस्थितिकी और प्रगति, दोनों पर पड़ेगा। सवाल यह खड़ा होता है कि इस अनैतिक राजनीति का हम कब तक साथ देते रहेंगे? इस पर अंकुश लगाने का पहला दायित्व तो हम जनता पर ही है। स्वस्थ एवं आदर्श लोकतंत्र में सरकारों का पहला दायित्व यही है कि वे ऐसी योजनाएं लागू करें, जो सर्वांगीण विकास कर सकें।

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