प्रयासों की समग्रता से मिली आज़ादी

0
180

                   १९९९ में अटल बिहारी वाजपई की एनडीए की सरकार के दौरान जब परमाणु परीक्षण हुआ तो इसकी आलोचना करने वाले कम ना थे. वामपंथी और ‘सेक्युलर’ दलों का तर्क था कि ये कदम दुनिया में देश की ‘शांतिप्रिय’ छवि को नुकसान पहुंचनें वाला है. लेकिन इस सबके बीच बड़े ही अप्रत्याशित रूप से परमाणु-परीक्षण का  जिसने  स्वागत किया वो  कोई और नहीं बल्कि ‘शांति का नोबल पुरूस्कार’ पाने वाले बोद्ध धर्म-गुरु दलाई लामा थे. चीन के हाथों तिब्बत में अपने असहाय बोद्ध अनुयाइयों की दुर्दशा देख उन्हें  शक्ति के महत्व का अंदाज़ा हो चला था. वैसे आज सीमा पर भारत-चीन के बीच युद्ध की स्थिति को देख सभी  देशवासियों को भी पता चल चुका है कि उस समय उठाया गया वो कदम कितना दूरदर्शी था.

                  किसी भी बात को लेकर बेसुध हो, अतिरेक हो उठाना सदैव ही हानिकारक होता है, भले ही बात उच्च मानवीय मूल्यों की ही क्यूँ ना हो. अंग्रजों के विरुद्ध आज़ादी की लड़ाई में अपने को झोंक देने वाले  क्रांतिकारी इस सबक से वंचित न थे — और गांधीजी के एकछत्र प्रभाव में जोर पकड़ते ‘अहिंसावाद’ के उपरांत भी उन्होंने सशस्त्र संघर्ष का मार्ग चुना. इस धारा की अग्रिम पंक्ति में जिन्हें हम  पाते हैं उनमें से एक थे सरदार भगत सिंह, जिनका बलिदान दिवस पूरा देश आगामी २३ मार्च को मानाने जा रहा है. उनका कहना था – ‘क्रांति, मानवता की ओर से मनुष्य को अमूल्य भेंट है. युद्ध हमेशा नए उत्साह, अदम्य साहस और दृढ़ संकल्प के साथ लड़ा जाना चाहिए तभी समाजवादी  मूल्यों पर टिके राष्ट्र की स्थापना हो सकेगी.’

                      क्रन्तिकारी विचारों का बीज भगत सिंह के अन्दर अपने घर के वातावरण के कारण से बचपन में ही पड़ गया था. उनके पिताजी आर्य समाजी थे; साथ ही क्रन्तिकारी भी— जिसके कारण अपने दो भाइयों के साथ उन्हें सजा भी काटनी पड़ी थी.  भगत सिंह के अन्दर क्रांति के विचार और प्रखर तब हो उठे, जब १९१९ में ब्रिटिश सरकार नें ‘रोलेट-अधिनियम’ पारित कर किसी को भी गिरफ्तार करने का निरंकुश अधिकार पा लिया. स्कूली छात्र की अल्पायु में ही वे इसके विरुद्ध चले आन्दोलन  में कूद पड़े. फिर तो आगे चलकर असहयोग-आन्दोलन, नौजवान भारत सभा से लेकर हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक पार्टी की स्थापना में उनकी भूमिका के चलते धीरे-धीरे वे उनके प्रेरणा-स्त्रोत बन गए जिनके अन्दर  देश की मुक्ति की चाहत थी.  पर जब ये महसूस होने लगा कि लोगों में आज़ादी के लिए सर्वस्व त्याग भावना जगाने का समय आ चुका है, तो ये तय हुआ कि केन्द्रीय विधानसभा के भवन में बम फेका जाये . इसकी जिम्मेदारी भी बटुकेश्वर दत्त के साथ भगत सिंह पर आई . ८ अप्रैल १९२९ को धमाका हुआ, पर दोनों नें निर्भीकता के साथ बिन भागे अपनी ग्रिफ्तारी दी. आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई; और फिर आगे चलकर सांडर्स-हत्या और लाहौर षड्यंत्र केस में म्रत्युदंड. २३ मार्च १९३१ को सुखदेव, राजगुरु के साथ उन्हें फांसी पर चढ़ा दिया गया.                      सच है, केवल अहिंसा,धारना और आन्दोलनों से ही नहीं बल्कि प्रयासों की समग्रता से आज़ादी फलीभूत हुई है. आगे भी समस्त प्रकार के जरूरी उपाय करके ही देश को विश्व में शक्ति-सम्पन्नता का सिरमोर बनाया जा सकता है. अमेरिका के एक देश के रूप में निर्माण में जिनका  सर्वाधिक योगदान रहाथा , ऐसे जार्ज वाशिंगटन की एक सुप्रसिद्ध उक्ति है कि -‘युद्ध की तैयारी ही शांति की रक्षा का सबसे प्रभावी तरीका है.’ हमारी  युद्ध की इस तैयारी का ही परिणाम है कि अपने को अजेय मानने का भ्रम पालने वाले चीन को अंतत: पीछे हटने को बाध्य होना पड़ा. एक ही विचार से सदा के लिए  देश को बंधक बनाये रखने की मंशा पालने वालों की यदि अटल-सरकार नें उस समय बात मान ली होती तो परिणाम ठीक उलट भी हो सकते  थे.

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

15,482 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress