‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ और ‘इस्लामिक आतंकवाद’

पेरिस में 16 अक्टूबर को एक शिक्षक की नृशस हत्या करके एक बार फिर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रहार करके भड़के हुए इस्लामिक आतंकवाद ने सभ्य समाज को भयभीत करने का दुःसाहस किया है। विस्तार से समझने के लिए प्राचीन इतिहास को छोड़ते हुए 21 वीं सदी के आरम्भ से अब तक की कुछ घटनाओं पर विचार करना उचित रहेगा। स्मरण करना होगा कि डेनमार्क के एक समाचार पत्र “जिलैंड्स पोस्टेन” में सितंबर 2005 में व उनके बाद 2006 में कुछ अन्य यूरोपियन व अमेरिकन पत्रिकाओं में प्रकाशित इस्लाम के पैगम्बर मोहम्मद से सम्बंधित चित्रों के विरोध में भारत सहित अनेक देशों में महीनों हिंसक व अहिंसक प्रदर्शनों के पीछे कौन सी सोच थी? डेनमार्क के इस कार्टूनिस्ट कर्ट वेस्टरगार्ड ने ऐसी भयावह स्थिति पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा था कि “कार्टूनों से मुसलमान नहीं बल्कि आतंकवाद भड़का है”। उनके सिर पर कुछ भारतीयों सहित अन्य देशों के भी मुल्ला-मौलवियों ने लाखों डालरों तक का ईनाम घोषित किया था। अफगानिस्तान में तो इस कार्टून छापने के विरोध में सौ आतंकियों का आत्मघाती दस्ता भी गठित किया था। इसी कड़ी में यह भी स्मरण करना चाहिये कि लगभग सन् 2005 के आसपास नीदरलैंड की एक फ़िल्म “सबमिशन” के निर्माता की एक मुस्लिम कट्टरपंथी ने हत्या इसलिए कर दी गई थी कि उसमें मुस्लिम महिलाओं के साथ होने वाले अमानवीय व्यवहारों को दर्शाया गया था।इसी संदर्भ में सन् 2012 के समाचारों से यह भी ज्ञात हुआ था कि उस वर्ष इस्लाम आधारित अमरीकी फिल्म “इनोसेंस ऑफ मुस्लिम्स” पर भी विभिन्न देशों के अनेक स्थानों पर 2005-2006 के भांति ही हिंसक व अहिंसक प्रदर्शन हुए थे।
अभिव्यक्ति के विचार को बनाये रखने के लिए 2011 में पैगम्बर मोहम्मद के चित्रों को फ्रांसीसी व्यंग पत्रिका “शार्ली अब्दो” ने प्रकाशित किये थे। उस समय भड़के हुए मुस्लिम आतंकवादियों के हमले से इस पत्रिका का कार्यालय जला था परंतु कोई मौत नहीं हुई थी। लेकिन भड़के हुए 3 मुस्लिम आतंकवादियों ने 7 जनवरी 2015 को “शार्ली अब्दो” पत्रिका के कार्यालय पर आक्रमण करके वहां उपस्थित पत्रकारों व कुछ अन्य लोगों की ए. के. 47 से गोलियां मार कर कुल 12 लोगों हत्या की थी जिसमे पत्रिका के सम्पादक औऱ कार्टूनिस्ट स्टीफन कार्बोनियर भी थे। लेकिन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के समर्थन का सशक्त प्रमाण यह भी है कि वीभत्स कांड को मूर्खतापूर्ण बताते हुए पत्रिका के स्तंभकार पैट्रिक पैलोक्स ने कहा था कि “हम सभी दुखी हैं, डरे हुए हैं, लेकिन हम इसे इसलिए छापेंगे क्योंकि हमलावरों (आतंकियों) के मंसूबे कामयाब नहीं होने देना चाहते।” उस समय विश्व में अभिव्यक्ति के पक्ष में यह भी सन्देश गया था कि जिस पत्रिका की लगभग 60 हज़ार प्रतियां छपती थी उसकी आतंकी हमले के बाद वाले अंक की लगभग 70 लाख प्रतियां प्रकाशित हुई और 18 भाषाओं में भी मुद्रण होने से अन्य देशों में भी उपलब्ध हुई थी। इसका उद्देश्य स्पष्ट था कि हमारी लड़ाई हमला करने वाले मुसलमान आतंकियों से नहीं व बल्कि यह इस्लामिक आतंकी विचारधारा से संघर्ष है। इससे यह भी संदेश गया था कि ऐसे हमलों से वे भयभीत नहीं होंगे एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करके उसे आगे भी बढाएंगे। इसी के समर्थन में यूरोप व जर्मनी के कई समाचार पत्रों ने भी उन्हीं दिनों में इन कार्टूनों को प्रकाशित किया था। वहां के एक दैनिक समाचार पत्र हैम्बर्गर मार्गेनपोस्ट के कार्यालय को भी आतंकवादियों ने जलाने का दुःसाहस किया था लेकिन कोई मौत नहीं हुई थी।
लेकिन ऐसे कट्टरपंथी आतंकियों के उसी वर्ष नवम्बर में पेरिस में एक बडे दर्दनाक हमले से पुनः विश्व को चेताया था कि इस्लाम में धार्मिक आस्थाएं सर्वोपरि होती है।इसी धर्मांधता का दुष्परिणाम अब पुनः चुनौती दे रहा है। जब पेरिस के उपनगर के एक मिडिल स्कूल में इस माह के आरम्भ में बच्चों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का पाठ पढ़ाते हुए शिक्षक सैमुअल पैटी ने अपनी कक्षा में इस्लाम के पैगम्बर मोहम्मद के कैरिकेचर को दिखाकर मुस्लिम देशों के ईशनिंदा कानून को समझाने का प्रयास किया। जिससे भड़के हुए एक 18 वर्षीय चेचेन्या मूल के मुस्लिम शरणार्थी ने अल्लाह हू अकबर… का नारा लगाते हुए शिक्षक पैटी की एक तेज हथियार से गर्दन काट कर दर्दनाक हत्या कर दी। क्या इस 16 अक्टूबर की घटना को इस्लामिक आतंकवाद से जोड़ना अनुचित होगा?
इसके अतिरिक्त वर्षों से न जाने कितने वीभत्स हत्याकांडों का उत्तरदायित्व इस्लामिक आतंकवादियों ने अपने ऊपर लेते हुए कहा कि “वे अल्लाह की राह पर अल्लाह के लिए अपनी जान देते हैं”। इस पर भी कुछ इस्लामिक विशेषज्ञ बार-बार इस्लाम को उदार, शान्तिप्रिय,अहिंसक व मानवतावादी आदि बता कर कट्टरपंथी जिहादी शिक्षा देने वाले सभी मौलानाओं व उलेमाओं आदि को बचाने का कार्य बड़े सुंदर ढंग से करते है। ऐसे इस्लामिक विशेषज्ञों व मौलानाओं आदि के बाह्य रूप को सही ठहराने के लिए स्वार्थवश कुछ मानवता व धर्मनिरपेक्षता के समर्थक भी सक्रिय हैं। जिससे अधिकांश सभ्य समाज इस्लाम की कट्टरवादी व अत्याचारी प्रवृत्ति को समझ ही नहीं पाता।
सामान्य रूप से इस्लाम को मानने वालों को ही विश्वासी व ईमान वाला माना जाता हैं। जबकि इस्लाम पर विश्वास व ईमान न लाने वालों को इस्लामिक शिक्षाओं के अनुसार काफ़िर कहा जाता हैं। इतना ही नहीं ऐसे सभ्य समाज को घृणास्पद बना कर धरती पर रहने के अधिकार से भी वंचित करने तक का विचार देने के कारण ही आज वैश्विक शांति संकट में घिर चुकी है। जबकि कुछ इस्लामिक विद्वान जिहादी अत्याचारों की अनदेखी करते हुए इस्लाम में गैर मुस्लिम समाज के प्रति किसी भी प्रकार का विरोध, घृणा व हिंसा के समर्थन में खड़े रहते हैं। इस्लाम में ईशनिंदा पर मृत्यु दंड का सबसे बड़ा ऐतिहासिक प्रमाण बसंत पंचमी के दिन सन् 1732 में हुए वीर हकीकत राय के बलिदान को भुलाया नहीं जा सकता।आज भी पाकिस्तान सहित अनेक मुस्लिम देशों में कुरान, अल्लाह व मोहम्मद पर कोई टिप्पणी करता है तो उसको कठोर दंड दिया जाता है।पिछले वर्ष अभिव्यक्ति के प्रति उत्तर में की गई अभिव्यक्ति पर लखनऊ में प.कमलेश तिवारी की हत्या क्या इस्लामिक शिक्षाओं का दुष्परिणाम नहीं है? यहां इस्लाम की पवित्र पुस्तक के प्रति आपत्तिजनक व्यवहार के सच्चे-झूठे आरोपों की आड़ में साम्प्रदायिक दंगों के इतिहास का विवरण देने की आवश्यकता नहीं है।
अगर अभिव्यक्ति पर बार-बार इस्लाम के ऐसे कट्टरपंथी अनुयायी
मानवता को लहूलुहान करते रहेंगे तो किसी भी लोकतांत्रिक देश में संविधान और विधान का शासन कैसे व्यवस्थित रह पाएगा? यह दुःखद है कि लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं पर धर्मान्ध इस्लामिक विचारधारा के प्रहारों पर नियंत्रण पाना आज एक वैश्विक चुनौती बनती जा रही है।जरा सोचो जब दिवंगत पेंटर एम.एफ.हुसैन द्वारा हिन्दू देवी-देवताओं के आपत्तिजनक चित्रों का बार-बार प्रदर्शन होता था तो उससे आहत होने वाले बहुसंख्यक हिंदुओं ने कभी हिंसा का मार्ग नहीं अपनाया। ऐसे समय में धैर्य रखते हुए आक्रोशित हिंदुओं ने भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत आवश्यक कार्यवाही करके ही विरोध किया था। लेकिन यह विचार आज तक जीवित है कि उस समय मुस्लिम समाज व तथाकथित धर्मनिरपेक्ष समाज का हुसैन को समर्थन न मिलता तो वे हिन्दू देवी-देवताओं व भारत माता को इस तरह अपमानित करने का दुःसाहस न कर पाते।
क्या “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता” इस्लामिक जगत को स्वीकार नहीं, जबकि “इस्लामिक आतंकवाद” के कारण शतकों से भारत सहित अनेक देशों में उन लाखों-करोड़ों मासूम व निर्दोष गैर मुस्लिमों का रक्त बहाना इस्लामिक जगत की मौन स्वीकृति को दर्शाता है। इस सत्य को झुठलाया नही जा सकता कि मुसलमानों ने भारतीय सनातन धर्म सहित अन्य गैर मुस्लिम सभ्यताओं व संस्कृति को नष्ट-भ्रष्ट करने के लिए जितने अत्याचार किये हैं सम्भवतः अन्य किसी भी समुदाय ने नहीं किया होगा। हमारे देश में तो शतकों से हिंदुओं को अपमानित करके नष्ट करने के अध्याय भरें पड़े हैं जिससे हम आज तक मुक्त होने को तड़प रहे हैं।
ऐसे में इस्लामिक जगत के नीतिनियन्ता इस्लाम के अत्याचारों को छिपा कर कब तक मानवता की रक्षा कर पाएंगे? जबकि धरती पर मानवता को अंधकार में ढकेलने वाला इस्लाम केवल कुरान और तलवार के बल पर अपने को सर्वश्रेष्ठ धर्म/मजहब के रूप में स्थापित करने के जिहादी लक्ष्य को पाने के लिए संकल्पित है। इन प्रतिकूल परिस्थितियों में भी तथाकथित इस्लामिक विद्वान अपने भाषणों व लेखों आदि से इस्लाम को शान्ति का धर्म / मजहब बता कर वैश्विक समाज में सहिष्णुता के भ्रम को बनाये रखना चाहते हैं। वैश्विक जिहाद से जूझती मानवता को मुक्त करने के लिए यह भी अच्छा होगा कि हज़ारों मुस्लिम आतंकवादी संगठनों व उनके लाखों लड़ाकों को घृणा व हिंसा का मार्ग छोड़ कर शांति व प्रेम का पाठ पढ़ाने का कार्य इस्लामिक धर्म गुरुओं व विद्वानों को करना चाहिये।इसीलिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को आहत करने वाले इस्लामिक आतंकवाद को नियंत्रित करने के लिए अंतरराष्ट्रीय मंचों पर बार-बार इस्लामिक विद्वानों को इस्लाम की कट्टरपंथी विचारधारा में आवश्यक संशोधन करने का परामर्श दिया जाता है।

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