गांधी, कोविड और बदलता समाज

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मनोज कुमार
महात्मा गांधी को प्रति वर्ष उनके जन्म उत्सव 2 अक्टूबर हो या शहीद दिवस 30 जनवरी को स्मरण करने की परम्परा रही है. यह परम्परा उन कारणों से है जिसमें युवा पीढ़ी को गांधी विचार और दर्शन के बारे में बताने और समझाने के लिए होता है. 2021 में जब शहीद दिवस पर गांधीजी का स्मरण कर रहे हैं तब कई नए प्रसंग और नई स्थितियां हमारे समक्ष हैं. स्वाधीनता के बाद संभवत: हम पहली बार कोरोना जैसे रोग से जूझ रहे हैं जिसने हमारा पूरा सामाजिक तानाबाना ना केवल नष्ट किया बल्कि पूरे समाज को आर्थिक बदहाली में ढकेल दिया है. हालांकि कोविड-19 के पहले हम सब समर्थ थे और हमारा सामाजिक तानाबाना गहरा था, यह कहना भी बेमानी होगा लेकिन बीता साल 2020 सबक देने वाले साल के रूप में याद किया जाएगा. कोरोना नाम की इस बीमारी ने हमारा बहुत कुछ छीना तो उससे ज्यादा हमें दिया है. सबसे अहम बात है कि हम गांधी दर्शन की ओर वापस लौटने लगे हैं. एक-दूसरे को बेहतर ढंग से समझ कर लालसापूर्ण जीवन की कैद से बाहर आकर एक-दूसरे के प्रति चिंतित और अनुरागी हुए हैं. धन लिप्सा की दौड़ पर आंशिक विराम लगा है. स्वयं को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में हम अग्रसर हुए हैं. गांधीजी का विचार इन्हीं बिंदुओं पर केन्द्रित था और वे जिसकी कल्पना करते थे, वह कल्पना आज पूरे तौर पर भले ही साकार ना हुआ हो लेकिन अपनी जमीन बनाने लगी है.
अंधेरे से आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ रहे हमारे समाज में गांधीजी कल भी आदर्श के रूप में उपस्थित थे और आज तो जैसे वे हमारी जरूरत बन गए हैं. कोविड-19 के दरम्यान ज्यादतर घरों के कार्य हम स्वयं करते थे. यह गांधी दर्शन का एक बिंदु है. गांधीजी अपना कार्य स्वयं करने के पक्षधर थे. कोविड के दौर में गांधी दर्शन को हमने मजबूरी में माना. इसके पीछे हमारा स्वार्थ था लेकिन चले हम गांधी के रास्ते पर ही. कल की मजबूरी आज हमें मजबूती दे रही है. हम सब ने पूरा ना सही, बहुत कुछ काम अपने हाथों से करना सीख लिया है.
गांधी जी मितव्ययता पर जोर देेते थे. कोराना ने भी हमें मितव्ययी बना दिया है. हालांकि मितव्ययता की यह आदत भी मजबूरी में हमें अपनाना पड़ा क्योंकि काम-धंधे बंद हो जाने के कारण आवक कम होती गई तो थोड़े में गुजारा करना सीखना पड़ा. अभी भी जो आर्थिक हालात हैं, वह हमें फिजूलखर्ची की इजाजत नहीं देते हैं. शायद अब हमें मितव्ययी होने का पहले ढोंग करना पड़ता था, अब वह हमारी जीवनशैली बनती चली जा रही है. गांधी दर्शन आज हमारे जीवन में इस तरह प्रवेश कर लिया है.
कोविड-19 ने हमें यह भी सीखा दिया कि जीवन में स्वच्छता का क्या महत्व है? भारत सरकार ने जब स्वच्छ भारत अभियान का श्रीगणेश किया तो समाज अचंभित था कि क्या ऐसा भी कोई अभियान चलाया जा सकता है. लेकिन कोविड-19 ने सीख दी कि स्वच्छता से नहीं रहोगे तो धडक़नें कभी भी रूक सकती हैं. जीवन के मोह ने हमें स्वच्छता की डोर से बांध दिया. गांधीजी स्वच्छता के पैरोकार रहे हैं और वे इस बात पर भी जोर देते थे कि अपनी गंदगी स्वयं को साफ करना सीखना चाहिए. अनेक बार सार्वजनिक तौर पर संडास को साफ कर स्वच्छता का संदेश दिया है. डॉक्टरों की भी राय रही है कि हमें अपने हाथ भोजन से पहले साफ कर लेना चाहिए लेकिन पाश्चात्य संस्कृति में हम भूल गए थे. आज कोविड-19 के डर से ही सही, हम गांधी दर्शन की ओर लौट रहे हैं.
गांधीजी हमेशा कहते थे कि मशीनों से आदमी के हाथ बेकार हो जाएंगे. लेकिन विकास की अंधाधुंध दौड़ में गांधी दर्शन नेपथ्य में चला गया था. कोविड-19 के समय रोजगार की दिक्कतों ने हमें मशीन से मुक्त कर नवाचार की ओर लौटाया है. अब हम गृह उद्योग और कुटीर उद्योग को आर्थिक उन्नति के लिए श्रेष्ठ मानने लगे हैं. केन्द्र और राज्य सरकार ने इस दिशा में प्रेरित और प्रोत्साहित किया है. मध्यप्रदेश में स्व-सहायता समूह को इतना सबल बनाया गया कि उन्होंने कोविड-19 से उपजे संकट से पार पा लेने में एक नईदुनिया का निर्माण किया है. इस तरह अब हम आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ रहे हैं.
गांधी दर्शन हमारे जीवन के हर पहलु को छूता है और एक सहज और सरल जीवन का सूत्र देता है. हम भागते चले जा रहे थे लेकिन कोविड-19 ने हमें रोक दिया. हम सब अपनी परम्परा और परिवार के पास लौट आए. यह सच है कि सालोंं से परिजनों की आपस में कोई बातचीत नहीं थी. जो बातचीत थी, वह औपचारिक था. बहुत अधिक एक-दूसरे पर जरूरतों की पूर्ति ही हमारा संवाद बना हुआ था लेकिन जब हम और आप घरों में बंद हुए. एक-दूसरे के करीब आए तो ज्ञात हुआ कि इसके पहले तो हम दूर चले गए थे. एक बार फिर हमारी आपकी घर-वापसी हुई थी. गांधीजी परिवार को सबसे बड़ा मानते थे और आज हम उनकी बातों को मानने के लिए विवश हैं. हालांकि आरंभिक दौर में यह विवशता थी लेकिन अब यह हमारी खुशी है. प्रसन्नता है.
गांधीजी भौतिक रूप से ना सही, कहीं भी हैं तो उन्हें इस बात की प्रसन्नता हो रही होगी कि उनका दर्शन आज भारतीय समाज का दर्शन बन गया है. आर्थिक, सामाजिक और व्यक्तिगत स्तर पर हमारी जीवनशैली अब सहज और सरल होने लगी है. सबसे बड़ी बात यह है कि हम हमने अपने लोभ-लालच पर नियंत्रण प्राप्त करने में स्वयं को सक्षम कर लिया है. आज गांधीजी को इस बात से संतोष होगा कि लोग केवल गांधी दर्शन और गांधी विचार की बात नहीं करते हैं बल्कि समय उन्हें अपने जीवन में उतारने का अवसर भी देता है. कोविड-19 ने गांधी दर्शन की ओर लौटने के लिए प्रेरित किया. अंधेरे से आत्मनिर्भरता की ओर बढऩे के लिए हौसला दिया तो हम बार बापू को सच्चे मन से श्रद्वांजलि अर्पित करते हैं.

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मनोज कुमार
सन् उन्नीस सौ पैंसठ के अक्टूबर माह की सात तारीख को छत्तीसगढ़ के रायपुर में जन्म। शिक्षा रायपुर में। वर्ष 1981 में पत्रकारिता का आरंभ देशबन्धु से जहां वर्ष 1994 तक बने रहे। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से प्रकाशित हिन्दी दैनिक समवेत शिखर मंे सहायक संपादक 1996 तक। इसके बाद स्वतंत्र पत्रकार के रूप में कार्य। वर्ष 2005-06 में मध्यप्रदेश शासन के वन्या प्रकाशन में बच्चों की मासिक पत्रिका समझ झरोखा में मानसेवी संपादक, यहीं देश के पहले जनजातीय समुदाय पर एकाग्र पाक्षिक आलेख सेवा वन्या संदर्भ का संयोजन। माखनलाल पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय, महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी पत्रकारिता विवि वर्धा के साथ ही अनेक स्थानों पर लगातार अतिथि व्याख्यान। पत्रकारिता में साक्षात्कार विधा पर साक्षात्कार शीर्षक से पहली किताब मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी द्वारा वर्ष 1995 में पहला संस्करण एवं 2006 में द्वितीय संस्करण। माखनलाल पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय से हिन्दी पत्रकारिता शोध परियोजना के अन्तर्गत फेलोशिप और बाद मे पुस्तकाकार में प्रकाशन। हॉल ही में मध्यप्रदेश सरकार द्वारा संचालित आठ सामुदायिक रेडियो के राज्य समन्यक पद से मुक्त.

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