धर्मांतरण पर गांधीजी के बयान और सुप्रीम कोर्ट का फरमान

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                                     मनोज ज्वाला
     भारतीय सर्वोच्च न्यायालय ने रिलीजियस-मजहबी संस्थाओं की
धर्मान्तरणकारी गतिविधियों पर चिन्ता जताते हुए इसे राष्ट्रीय सुरक्षा के
लिए खतरा बताया है और केन्द्र सरकार को इसकी रोकथाम के बावत सख्त कदम
उठाने का फरमान जारी किया है ।  मालूम हो कि सर्वोच्च न्यायालय की एक
खण्डपीठ ने वरिष्ठ अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय की उस याचिका पर सुनवाई के
दौरान ऐसी चिन्ता जतायी है जिसमें कहा गया है कि विदेशी धन से संचालित
रिलीजियस मजहबी संस्थाओं द्वारा देश भर में भोले-भाले लोगों को
लोभ-लालच-प्रलोभन दे कर अथवा भयभीत कर जबरिया धर्मांतरित कर देने का धंधा
व्यापक पैमाने पर चल रहा है, जिससे व्यक्तियों की धार्मिक स्वतंत्रता का
हनन हो रहा है । इस याचिका पर सुनवाई के दौरान कोर्ट ने कहा है कि देश का
कोई भी व्यक्ति स्वेच्छा से कोई भी धर्म अपनाने के लिए तो स्वतंत्र है ;
किन्तु धर्मांतरण्कारी संस्थाओं द्वारा धोखाधडी-लोभ-लालच-भय-प्रलोभन आदि
हथकण्डों के सहारे किया जाने वाला सुनियोजित धर्मांतरण एक गम्भीर मामला
है, क्योंकि इससे व्यक्ति की ‘अन्तरात्मा’ प्रभावित होती है । सर्वोच्च
न्यायालय का मानना है कि इस प्रकार के धर्मांतरण से राष्ट्र की
एकता-अखण्डता व राष्ट्रीय सुरक्षा के समक्ष खतरा उत्त्पन्न हो सकता है ;
अतएव इसे रोका जाना अनिवार्य है । जाहिर है सर्वोच्च न्यायालय की यह
चिन्ता व मान्यता भारत के ‘राष्ट्रीय युवा’- स्वामी विवेकानन्द और महान
स्वतंत्रता सेनानी महर्षि अरविन्द के चिन्तन-उद्बोधन पर आधारित है ।
मालूम हो कि स्वामी विवेकानन्द ने कह रखा है कि “धर्मांतरण एक प्रकार से
राष्ट्रान्तरण है” । धर्म से विमुख हुआ व्यक्ति जब ‘रिलीजन’ व ‘मजहब’ को
अपना लेता है, तब वह प्रकारान्तर से भारत के विरुद्ध हो जाता है ;
क्योंकि धर्म तो भारत की आत्मा है, जबकि ‘रिलीजन’ व ‘मजहब’ अभारतीय
अवधारणा हैं । इसी तरह से महर्षि अरविन्द  का कथन है कि “धर्म (सनातन) ही
भारत की राष्ट्रीयता है और धर्मांतरण से भारतीय राष्ट्रीयता क क्षरण
अवश्यम्भावी है” । भारत के इतिहास और भूगोल में यह तथ्य सत्य सिद्ध हो
चुका है । भारत-विभाजन अर्थात पाकिस्तान-सृजन और खण्डित भारत के भीतर
यत्र-तत्र रिलीजियस-मजहबी जनसंख्या के बढते आकार से उत्त्पन्न विभाजनकारी
पृथकतावादी आन्दोलन इसके प्रमाण हैं । सर्वोच्च न्यायालय की उपरोक्त
चिन्ता को इसी परिप्रेक्ष्य में समझा जा सकता है । इसी कारण से महात्मा
गांधी भी धर्मांतरण का मुखर विरोध करते रहे थे एवं चर्च-मिशनरियों की
गतिविधियों पर लगातार सवाल उठाते रहते थे और यहां तक कह चुके थे कि
स्वतंत्र भारत में धर्मांतरणकारी संस्थाओं का कोई स्थान नहीं होना चाहिए
। ‘क्रिश्चियन मिशन्स- देयर प्लेस इन इण्डिया’ नामक पुस्तक के ‘टॉक विथ
मिशनरिज’ अध्याय में महात्मा गांधी के हवाले से कहा गया है कि “भारत में
आम तौर पर ईसाइयत का अर्थ भारतीयों को राष्ट्रीयता से रहित बनाना तथा
उनका युरोपीकरण करना है ।”  आगे वे कहते हैं- “भारत में ईसाइयत
अराष्ट्रीयता एवं युरोपीकरण का पर्याय हो चुकी है । चर्च-मिशनरियां
धर्मांतरण का जो काम करती रही हैं उन कामों के लिए स्वतंत्र भारत में
उन्हें कोई भी स्थान एवं अवसर नहीं दिया जाएगा ; क्योंकि वे समस्त
भरतवर्ष को नुकसान पहुंचा रही हैं । भारत में ऐसी किसी चीज का होना एक
त्रासदी है ।” सन 1935 में चर्च-मिशन की एक नर्स ने महात्मा गांधी से हुई
एक भेंटवार्ता में जब यह पुछा था कि “क्या आप कन्वर्जन (धर्मांतरण) के
लिए मिशनरियों के भारत-अगमन पर रोक लगा देना चाहते हैं ? तब गांधीजी ने
जो उत्तर दिया था सो सर्वोच्च न्यायालय की उपरोक्त चिन्ता के
परिप्रेक्ष्य में आज भी प्रासंगिक है- गांधीजी ने कहा था – “अगर सत्ता
मेरे हाथ में हो और मैं कानून बना सकूं तो मैं धर्मांतरण का यह सारा धंधा
ही बन्द करा दुंगा ।”(सम्पूर्ण गांधी वांग्मय- खण्ड 61)
       बावजूद इसके आज देश भर में ऐसी रिलीजियस-मजहबी संस्थाओं का जाल
बिछा हुआ है, जो शिक्षा-स्वास्थ्य-सेवा के विविध प्रकल्पों और सामाजिक
न्याय व समता-स्वतंत्रता के विविध आकर्षक सब्जबागों एवं विकास-परियोजनाओं
की ओट में देसी-विदेशी धन के सहारे छलपूर्वक धर्मांतरण का धंधा संचालित
कर रही हैं । इन संस्थाओं की कारगुजारियों के कारण यहां कभी ‘असहिष्णुता’
का ग्राफ ऊपर की ओर उठ जाता है , तो कभी  ‘दलितों की सुरक्षा ’ का ग्राफ
नीचे की ओर गिरा हुआ बताया जाता है । ये संस्थायें भिन्न-भिन्न प्रकृति
और प्रवृति की हैं । कुछ शैक्षणिक-अकादमिक हैं , जो शिक्षण-अध्ययन के नाम
पर भारत के विभिन्न मुद्दों पर तरह-तरह  का शोध-अनुसंधान करती रहती हैं ;
तो कुछ संस्थायें ऐसी हैं , जो इन कार्यों के लिए अनेकानेक संस्थायें खडी
कर उन्हें साध्य व साधन मुहैय्या करती-कराती हुई विश्व-स्तर पर उनकी
नेटवर्किंग भी करती हैं । ‘डी०एफ०एन०’ (दलित फ्रीडम नेटवर्क) संयुक्त
राज्य अमेरिका की एक ऐसी संस्था है , जो भारत में दलितों के अधिकारों की
सुरक्षा के नाम पर उन्हें भडकाने के लिए विभिन्न भारतीय-अभारतीय
संस्थानों का वित्त-पोषण और नीति-निर्धारण करती है । इसके प्रमुख
कर्त्ता-धर्ता डॉ० जोजेफ डिसुजा नामक अंग्रेज हैं, जो ‘ए०आई०सी०सी०’(आल
इण्डिया क्रिश्चियन काउंसिल) के भी प्रमुख हैं  । डी०एन०एफ० के लोग खुद
को भारतीय दलितों की मुक्ति का अगुवा होने का दावा करते हैं । वस्तुतः
धर्मान्तरण और विभाजन ही डी०एफ०एन० की दलित-मुक्ति परियोजना का गुप्त
एजेण्डा है , जिसके लिए यह संस्था भारत में दलितों के उत्पीडन की
इक्की-दुक्की घटनाओं को भी बढा-चढा कर दुनिया भर में प्रचारित करती है ,
तथा दलितों को सवर्णों के विरूद्ध विभाजन की हद तक भडकाने के निमित्त
विविध विषयक ‘उत्त्पीडन साहित्य’ के प्रकाशन-वितरण व तत्सम्बन्धी विभिन्न
कार्यक्रमों का आयोजन करती-कराती है । डी०एफ०एन० का नियमित पाक्षिक
प्रकाशन- ‘दलित वायस’ भारत में पाकिस्तान की तर्ज पर एक पृथक ‘दलितस्तान’
राज्य की वकालत करता रहता है । डी०एफ०एन० को अमेरिकी सरकार का ऐसा
वरदहस्त प्राप्त है कि वह अमेरिका-स्थित दलित-विषयक विभिन्न सरकारी
आयोगों के समक्ष भारत से दलित आन्दोलनकारियों को ले जा – ले जा कर
भारत-सरकार के विरूद्ध गवाहियां भी दिलाता है ।   डी०एफ०एन० दलितों को
भडकाने वाली राजनीति  के लिए ही नहीं , बल्कि भारत के बहुसंख्य समाज के
विरूद्ध दलित-उत्पीडन और उसके निवारणार्थ विभाजन की वकालत-विषयक
शोध-अनुसंधान के लिए भी शिक्षार्थियों व शिक्षाविदों को फेलोशिप और
छात्रवृत्ति प्रदान करता है । इसने कांचा इलाइया नामक उस तथाकथित भारतीय
दलित चिंतक को उसकी पुस्तक- ‘ह्वाई आई एम नॉट ए हिन्दू’ के लिए पोस्ट
डॉक्टोरल फेलोशिप प्रदान किया है , जिसमें अनुसूचित
जातियों-जनजातियों-ईसाइयों और पिछडी जाति के लोगों को  सवर्णों के
विरूद्ध सशस्त्र युद्ध के लिए भडकाया गया है ।
          पी०आई०एफ०आर०ए०एस०(पॉलिसी इंस्टिच्युट फॉर रिलीजन एण्ड स्टेट)
अर्थात ‘पिफ्रास’ अमेरिका की एक ऐसी संस्था है , जिसका चेहरा तो समाज और
राज्य के मानवतावादी लोकतान्त्रिक आधार के अनुकूल नीति-निर्धारण को
प्रोत्साहित करने वाला है , किन्तु इसकी खोपडी में भारत की
वैविध्यतापूर्ण एकता को खण्डित करने  और हिन्दुओं (दलितों) के धर्मान्तरण
की योजनायें घूमती रहती हैं  ।   इन धर्मान्तरणकारी मिशनरी संस्थाओं का
एक वैश्विक गठबन्धन भी है, जिसका नाम- एफ०आई०ए०के०ओ०एन०ए० (द फेडरेशन आफ
इण्डियन अमेरिकन क्रिश्चियन आर्गनाइजेसंस आफ नार्थ अमेरिका) अर्थात
‘फियाकोना’ है । ये दोनो संगठन एक ओर विश्व-मंच पर भारत को ‘मुस्लिम-ईसाई
अल्पसंख्यकों का उत्त्पीडक देश’ के रुप में घेरने की साजिशें रचते रहते
हैं, तो दूसरी ओर भारत के भीतर नस्लीय भेद एवं सामाजिक फुट पैदा करने के
लिए विभिन्न तरह के हथकण्डे अपनाते रहते हैं ।
           इसी तरह से डी०एफ०एन० जहां भारत के भीतर बहुसंख्यक समाज के
विरूद्ध दलितों और अल्पसंख्यकों को भडका कर धर्मांतरण के सहारे विखण्डन
की दरार को चौडा करने में लगी हुई है , वहीं भारत के बाहर वैश्विक मंचों
पर भारतीय राज्य-व्यवस्था को अक्षम-अयोग्य व हिन्दूवादी होने का
दुष्प्रचार कर इस देश में अमेरिकी हस्तक्षेप का वातवरण तैयार करने में भी
सक्रिय है । ऐसे में भारत की सम्प्रभुता व अखण्डता की सुरक्षा के लिए
धर्मांतरण पर रोक लगाने के बावत सरकार को निर्देशित करने वाले सर्वोच्च
न्यायालय  की चिन्ता वाजीब है । उसे तो इन विखण्डणकारी विदेशी संस्थाओं
के देसी कारिन्दों के विरुद्ध भी स्वतः संज्ञान लेना चाहिए ।
   मनोज ज्वाला

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