गांधी जी के भाषा विषयक विचार–डॉ. मधुसूदन

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~यदि मेरे पास एकमुखी शक्ति होती, तो आज ही, छात्रों की परदेशी माध्यम द्वारा शिक्षा, रोक देता ।

~~कोई देश नकलचियों को पैदा कर राष्ट्र नहीं बन सकता।

~~हिन्दुस्थान की आम भाषा अंग्रेजी नहीं, हिन्दी है।

~~हिन्दुस्थान को गुलाम बनाने वाले अंग्रेजी जानने वाले भारतीय लोग ही हैं।……”

~~अंग्रेजी भाषा और संस्कृति के, सभी विषयों की दृष्टि दैहिक और भोगवादी है।

~~दुख की बात: हम स्वराज्य की बात भी परायी भाषा में करते हैं।

~~अंग्रेज खुद अपनी सभ्यता से परेशान हैं यह समझने के लिए अंग्रेजी का उपयोग किया जाये।

~~करोड़ों को अंग्रेजी शिक्षा देना उन्हें गुलामी में डालना है।

~~अंग्रेजी शिक्षा पाकर , उस से छुटकारा पाओ, उससे पैसे कमाने का उद्देश्य न हो।

~~अंग्रेज़ी पढनेवाले अनैतिक होने की संभावना गांधी जी ने परखी थी।

~~

(१)

हिन्दुस्थान की आम भाषा अंग्रेजी नहीं पर हिन्दी है।

प्रश्न: क्या गांधी जी ने, अंग्रेजों को भी हिंदी सीखने के लिए कहा था ?

उत्तर: जी हाँ। गांधी जी ने शासक अंग्रेजो को, कहा था. कि …..”हिन्दुस्थान की आम भाषा अंग्रेजी नहीं बल्कि हिंन्दी है। वह आप को (अंग्रेज शासकों को) सीखनी होगी और हम तो, आप के साथ अपनी भाषा में ही व्यवहार करेंगे।……”

(२)

हिन्दुस्थान को गुलाम बनाने वाले अंग्रेजी जानने वाले भारतीय लोग ही हैं।

प्रश्न: गांधी जी, ”हिंद स्वराज” में अंग्रेज़ी के लिए क्या लिखते हैं?

उत्तर: …..गांधी जी ने ‘हिन्द स्वराज’ (पृष्ठ ९१) में लिखा, कि, क्या यह कम अत्याचार है, कि, मुझे मेरे देश में न्याय पाना हो, तो अंग्रेजी भाषा का प्रयोग करना पडता है? बैरिस्टर होने पर भी, मैं स्वभाषा में बोल नहीं सकता। दूसरे किसी व्यक्ति को मेरे लिए तरजुमा (अनुवाद) कर देना पडता है? यह क्या, कम दंभ है? यह गुलामी की हद नहीं, तो और क्या है? इस में मैं अंग्रेजों का दोष निकालूं या अपना ? हिन्दुस्थान को गुलाम बनाने वाले तो हम अंग्रेजी जानने वाले भारतीय लोग ही हैं।……” (क्या स्वतंत्रता के ६५ वर्ष बाद भी यह चल नहीं रहा?)

(३) शासक अंग्रेज़ और काले अंग्रेज़

प्रश्न: शासक अंग्रेज़ और काले अंग्रेज़ों ( सुडो या छद्म भारतीयों ) के लिए गांधी जी क्या कहते हैं?

उत्तर: आप हिन्दुस्थान में ( शासन के लिए )आनेवाले अंग्रेज जो हैं, वे अंग्रेजी प्रजा के सच्चे नमूने नहीं हैं, और हम जो ”आधे अंग्रेज” बने बैठे हैं वे भी सच्ची ”हिन्दुस्थानी प्रजा” के नमूने नहीं कहे जा सकते।

{लेखक: तो आज कल कौन से नमूने दिल्ली में बैठ शासन कर रहें हैं?}

(४) अंग्रेज़ी की दैहिक और भोगवादी दृष्टि

अंग्रेजी भाषा और संस्कृति में विज्ञान, इतिहास और अन्य सभी विषयों की दृष्टि दैहिक और भोगवादी है। यहां अंग्रेजी शिक्षा के साथ अंग्रेजी सभ्यता (?) भी आई थी। गांधी जी ने लिखा, कि, आप को समझना चाहिए कि अंग्रेजी शिक्षा स्वीकार कर, हम ने अपने राष्ट्र को गुलाम बनाया है। अंग्रेजी शिक्षा से दंभ, विलासिता, अत्त्याचार वगैरा बढ़े हैं। अंग्रेजी शिक्षा पाये हुए लोगों ने प्रजा को ठगने में, उसे पीडित करने में कुछ भी उठा नहीं रखा है।

(५) अंग्रेज़ी शिक्षा गुलामी की जड

(वही पृ0 91) गांधी जी ने लिखा, कि, करोड़ों (मिलियन्स) लोगों को अंग्रेजी की शिक्षा देना उन्हें गुलामी में डालने जैसा है। मैकॉले ने शिक्षा की जो बुनियाद (नींव) डाली, वह सचमुच गुलामी की बुनियाद थी। उसने इसी उद्देश्य से अपनी योजना बनायी थी, ऐसा मैं नहीं सुझाना चाहता। लेकिन उस के काम का नतीजा यही निकला है। यह कितने दुख की बात है कि हम स्वराज्य की बात भी परायी भाषा में करते हैं? (वही पृ0 90)

(६)भारत पश्चिमी सभ्यता के मोहपाश में

(वही पृष्ठ 87) भारत पश्चिमी सभ्यता के मोहपाश में है। उन्होंने लिखा, हम सभ्यता के रोग में ऐसे फंस गये हैं कि अंग्रेजी शिक्षा लिये बिना अपना काम चला नहीं सकते। अब, जिसने वह शिक्षा पायी है, वह उसका अच्छा उपयोग करे, अंग्रेजों के साथ के व्यवहार में। और ऐसे हिन्दुस्थानियों के साथ, जो व्यवहार में निज भाषा को समझ न सकते हों, और अंग्रेज खुद अपनी सभ्यता से कैसे परेशान हो गये हैं यह समझने के लिए अंग्रेजी का उपयोग किया जाये।

(७)अंग्रेज़ी पढनेवाले अनैतिक होने की संभावना गांधी जी ने परखी थी।

इसी लिए वे कहते थे, कि, जो लोग अंग्रेजी पढ़े हुए हैं उनकी संतानों को पहले तो नैतिक शिक्षा देनी चाहिए, मातृभाषा सिखानी चाहिए, और हिन्दुस्थान की एक दूसरी (प्रादेशिक) भाषा सिखानी चाहिए। बालक जब आयु में, बडा हो जायें तब भले चाहे तो, अंग्रेजी शिक्षा पायें, और वह भी उस से छुटकारा पाने के उद्देश्य से, न कि उस के द्वारा पैसे कमाने के उद्देश्य से। (वही पृष्ठ 91)

(८)

भारत के अग्रणी नेता ,विद्वान, सुधारक, चिंतक, दृष्टा, मनीषी, इत्यादि, मिलकर, अंग्रेज़ी की विकलांग विवशता ना होती तो –तो भारत आगे बढ चुका होता।

राम मोहन राय और भी और अच्छे सुधारक हो सकते थे, एवं लोकमान्य तिलक और भी बडे विद्वान प्रमाणित होते, यदि दोनों को (उन्हें) विकलांगता पूर्ण अंग्रेज़ी में विचार करने की, और फिर उन विचारों को व्यक्त करने की विवशता ना होती। स्वभाषा में विकास तीव्र गति से होता है।

(९)अंग्रेज़ी शिक्षा अंग्रेज़ी पढे-लिखे भारतीय को खस्सी (नपुंसक) कर गयी है।

गहरे चिंतन के बाद कहता हूँ, कि जिस प्रकार से अंग्रेज़ी शिक्षा दी जा रही है, वह, अंग्रेज़ी पढे-लिखे भारतीय को खस्सी कर गयी है, और उस की भाव-तन्त्रिकाओं पर भारी बोझ डालकर हमें नकलची बना दिया है।

(१० ) कोई देश नकलचियों का वंश पैदा कर के राष्ट्र नहीं बन सकता।

आप कुछ लोगों की उन्नति अंग्रेज़ी द्वारा कर लेंगे।

अंग्रेज़ी एक पराई भाषा देशको निगल रही है।

अंग्रेज़ी से आप व्यक्तिगत उन्नति कर सकते हैं, क्या समग्र भारत की उन्नति आप अंग्रेज़ी से करेंगे?

(११)हर भारतीय भाषा की शत्रु अंग्रेज़ी है।

अंग्रेज़ी एक पराई भाषा देशको निगल रही है। परतंत्र की भाषा होने के कारण, हमारी स्वतन्त्रता में भी एक लांछन है। नहीं, जब तक अंग्रेज़ी रहेगी तब तक हम पूर्ण रूपसे स्वतंत्र नहीं।

भारत का युवा अपने आपको गौरवहीन अनुभव करता है। हीन ग्रन्थि से पीडित अनुभव करता है। इसी लिए वह टूटी-फूटी अंग्रेज़ी बोलता है। इस परतंत्रता के भाव को समझकर ही लगता है, गांधी जी ने कहा था कि

(१२) गांधी जी भी तानाशाह ?

”यदि मैं मेरे पास शासन की एकमुखी शक्ति होती, तो आज के आज, अपने छात्र छात्राओं की परदेशी माध्यम द्वारा होती शिक्षा, रुकवा देता। और सेवा-मुक्त करने का भय दिखाकर सारे प्राध्यापकों एवम् शिक्षकों से, तत्काल बदलाव लाने की माँग करता। पाठ्य पुस्तकें तैय्यार होने तक भी राह ना देखता। वे तो बदलाव के बाद बन ही जाती। यह परदेशी माध्यम ऐसा पाप है, जिसका अविलम्ब उपचार आवश्यक है।” कोई भी भाषा पहले होती है, पाठ्य पुस्तके बाद में आती हैं। कोई उदाहरण है, जहां पुस्तके पहले थी, और बाद में भाषा पैदा हुयी?

महात्मा गांधी —–महात्मा जी का निश्चय स्पष्ट है। विचार कीजिए।

(१३ )

अहिंसा में निष्ठा रखने वाले गांधी, अनेक बार भाईचारे के पक्ष में, समझौता करने वाले गांधी, जब ऐसा तानाशाही निर्णय दृढता पूर्वक व्यक्त करते हैं, तो उसके पीछे उन्होंने गहरा चिन्तन किया होगा ही।

पाठ्य पुस्तकों के लिए भी वे रुकना नहीं चाहते।

एकाध वर्ष में पुस्तकें भी बन जाएगी। खरिददार मिलने पर सारे लेखक दौड कर पुस्तक लिखना प्रारंभ कर सकते हैं। एक बार निर्णय लिया जाए, बाकी सब कुछ एक एक वर्ष जैसे नया छात्र कक्षा पास होते होते आगे बढेगा, वैसे वैसे बनती चलेगी।

—मैं ने कुछ बिंदु विचार स्पष्ट करने के लिए डाले हैं। आप ”हिंद स्वराज” के आलेख, प्रवक्ता पर ही स्पष्टता के लिए देख सकते हैं।

17 COMMENTS

  1. आपका विचार अति सुन्दर है, मैं अभी एक छात्र हूँ, और मैंने अपनी पूरी पढाई हिंदी भाषा में की है, लेकिन इसका एक नुकसान यह हुआ है की अब मुझे अंग्रेजी सिखना पड़ रहा है, क्योंकि मैं upsc की तयारी करना चाहता हूँ और आपको तो पता ही होगा की upsc में हिंदी माध्यम वालों का क्या हाल है?

    • हिंदी माध्यम वालों ने जो अपना अभाग्यापूर्ण हाल बना रखा है इसका दोष स्वयं उनका ही है | यदि उनमें विषय ज्ञान व आत्मविश्वास है और वे राष्ट्र की सेवा करना चाहते हैं, UPSC की प्रतियोगिक परीक्षाओं में केवल हिंदी ही नहीं बल्कि अन्य किसी भारतीय मूल की भाषा को चुना जा सकता है | किसी भी विदेशी भाषा का ज्ञान अच्छा है लेकिन आवश्यक नहीं |

      आपने अपनी पूरी पढाई हिंदी भाषा में की है और यदि आप इसमें कोई एक भी नुकसान देखते हैं जिसके कारण आपको अंग्रेजी सीखने की बाध्यता है तो आप न केवल अपनी व इस क्षेत्र में दूसरों की बाध्यता का निवारण का सोचें | यदि Steel plant को इस्पात का पौधा समझेंगे तो अवश्य ही अंग्रेजी की बैसाखी को त्यागना होगा ! श्री प्रभु करें आप हिंदी माध्यम से प्रतियोगिक परीक्षा में सफल हों और किसी उन्नतिशील पद पर नियुक्त होने पर विदेशी भाषा में नहीं बल्कि अपनी हिंदी भाषा में सोचते परंपरागत भारत में साधारण नागरिकों की मूलभूत आवश्यकताओं को समझ आप उन पर यथायोग्य कार्य करें | आशीर्वाद |

  2. संस्कृत जैसी गहराई और विस्तार क्षमता मैं ने किसी भाषा में नहीं देखी.
    संस्कृत का शब्द रचना शास्त्र जो जानते हैं, उनकी ओर से टिपण्णी अपेक्षित हैं.
    शब्द रचना शास्त्र जाने बिना आपको संस्कृत की महिमा पता नहीं चलेगी.
    प्रवास पर हूँ १४ नवम्बर तक. पश्चात लेख डालूँगा.
    ऐसे विद्वान् जो संस्कृत का शब्द रचना शास्त्र जानते नहीं, पर अज्ञानी होते हुए भी निंदा करते रहते हैं, उन्हें सुझाव देता हूँ. सुझाव: कभी लघु सिद्धांत कौमुदी के तद्धित, कृदंत, प्रत्यय पढ़ें. उपसर्ग रचित शब्द पढ़ें. समास पढ़ें. —-और कुछ व्याकरण पढ़ें.
    आप संस्कृत की अनंत शक्ति मान जाएंगे. जब मैक्समुलर जो संस्कृत और हिंदुत्व को निन्दित करने भेजा गया था, वह बदल कर संस्कृत का भक्त बन गया था, तो आप तो भारतीय ही है, आप अवश्य संस्कृत के भक्त बन जाएंगे, इतना मैं अवश्य कहुंगा.

  3. पिछले दिनों आस्ट्रेलिया की प्रधान मंत्री ने हमारे आत्मसम्मान को ललकारते हुए कहा, ‘भारत अंग्रेज शासित देश है।’ ऐसा तब हुआ जब एक समिति ने आस्ट्रेलिया – भारत संबंधों को और बेहतर बनाने के लिए सभी राजनयिकों को हिन्दी सीखने का सुझाव दिया। इस सुझाव को वहाँ की प्रधानमंत्री ने अस्वीकार करते हुए उक्त टिप्पणी की। सच ही तो है, जो राष्ट्र स्वयं अपनी राष्ट्रभाषा से नजरें चुराता हैं उसे अपने स्वाभिमान को आहत कर
    देने वाली ऐसी टिप्पणियों के लिए तैयार रहना चाहिए। यह दुनिया का सबसे बड़ा आश्चर्य है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के इतने वर्ष बाद भी हम विदेशी भाषा अंग्रेजी की दासता से मुक्त नहीं हो पा रहे हैं। राजधानी दिल्ली का अधिकतर शासकीय कार्य विदेशी भाषा में होता है।

    हर व्यक्ति के लिए आवश्यक ड्राईविंग लाईसंेस पर एक भी शब्द हिन्दी का नहीं। इस सप्ताह हिन्दी, पंजाबी, उर्दू अकादमी तथा साहित्य कला परिषद के संयुक्त तत्वावधान में हो रहे सांस्कृतिक कार्यक्रम के निमंत्रण पत्र में हिन्दी, पंजाबी अथवा उर्दू का एक भी शब्द नहीं। सब अंग्रेजी में होना क्या साबित करता है? क्या स्व-भाषा या राष्ट्रभाषा हिन्दी में कुछ कमी है? सत्य यह है कि हम हीनता-ग्रन्थि के शिकार होकर अनेक भ्रम व पूर्वाग्रहण पाले हुए हैं। आज अंग्रेजी माध्यम के स्कूल लोकप्रिय हो रहे हैं। हमारे बच्चों को हिन्दी में गिनती भी नहीं आती। क्या यह हमारे लिए शर्मनाक बात नहीं है? दरअसल हम भ्रम का शिकार है कि अंग्रेजी अकेली अन्तर्राष्ट्रीय भाषा है जो पूरी दुनिया में समझी व बोली जाती है। सच्चाई यह है कि संयुक्त राष्ट्रसंघ में छह भाषायें चलती हैं। फ्रेंच, अंग्रेजी, रूसी, चीनी, और अरबी।

    भारत की कुल जनसंख्या में आधे से अधिक लोग हिन्दी बोलते समझते व लिखते हैं। अन्य विदेशी भाषियों से हिन्दी कई गुना अधिक बड़ी है फिर भी संयुक्त राष्ट्रसंघ ने हिन्दी को स्वीकृति नहीं दी है तो इसका कारण हमारे प्रयासों का खोखलापन है, हिन्दी का नहीं। कितने लोग मानते हैं कि विश्व की अन्तर्राष्ट्रीय डाक भाषा अंग्रेजी नहीं, फ्रेंच है। अंग्रेजी तो अपने देश इंग्लैंड में भी बड़ी मुश्किल से राष्ट्रभाषा बन सकी थी। फ्रांस में ऐसे 4000 शब्दों की सूची बनाई गई है जो उनकी भाषा में जबर्दस्ती घुस गए थे। एक विधेयक पारित कर इन शब्दों के फ्रेंच में इस्तेमाल रोकने का आदेश दिया गया।

    मेरा स्वयं का अनुभव है कि फ्रांसवासियों में स्व-भाषा के प्रति जबरदस्त आदर है। वे अपनी भाषा को अंग्रेंजी से बेहतर मानते हैं। नीदरलैंड में अंग्रेजी हटाने के लिए एक आंदोलन हुआ क्योंकि उनके अनुसार डच भाषा व संस्कृति को इससे खतरा है। चीन, जापान, कोरिया और वियतनाम में सरकारी फरमान या आदेश अंग्रेजी में आने पर जनता तीव्र विरोध प्रकट करती है। जापानी भाषा दुनिया की सबसे कलिष्ट है। उसकी लिपि में 5000 से अधिक चिन्ह हैं। लेकिन उसके बावजूद वे हर कार्य अपनी भाषा में ही करना पसंद करते हैं।

    अंग्रेजी के बिना ही जापान ने जबरदस्त उन्नति की है। उसके इलैक्ट्रोनिक सामान व उपकरण बनाने में विश्व में सर्वोच्च स्थान प्राप्त देश है जिसके माल की खपत हर जगह है। यही दशा चीन की भी है, जो आज सारी दुनिया के बाजारों पर कब्जा जमा रहा है। अनेक देशों जिनमें लीबिया, ईराक व बांग्लादेश शामिल है ने एक झटके में अंग्रेजी को निकाल बाहर कर दिया।

    कर्नल गद्दाफी ने तो सेना को छह मास में अंग्रेजी हटाने का आदेश दे दिया। ईराक के पिछले शासक ने तो यहाँ तक कह दिया था कि जिसे अंग्रेजी पढ़नी हो वे ईराक छोड़ दें। बांग्लादेश ने ईसाई मिशनरी के संदर्भ में कहा कि इनकी अंग्रेजी से हमारी बंगाली भाषा को खतरा है। माओत्से तुंग ने सत्ता पर काबिज होते ही पूरे चीन में एक ही चीनी भाषा लागू कर दी, जबकि पहले वहां भी 6-7 क्षेत्रीय भाषाएं थी। एक चीनी भाषा होने के कारण भाषायी एकता होने से सभी चीनी स्वयं को एक सूत्र में जुड़े अनुभव करते हैं। स्पष्ट है कि अंग्रेजी कोई सर्वसम्मत अंतर्राष्ट्रीय भाषा नहीं है, जैसा कि हम समझते हैं। यह भी सभी को ज्ञात है कि अंग्रेजी वैज्ञानिक भाषा भी नहीं है। स्वयं अंग्रेज साहित्यकार बर्नाड शा इसे अराजक भाषा घोषित कर चुके हैं क्योंकि हर ध्वनि के लिए कोई तयशुदा शब्द नहीं है। इसके विपरित हिन्दी पूर्णतः वैज्ञानिक भाषा है। विदेशी भाषा की गुलामी अनावश्यक है। जो लोग यह तर्क देते है कि बेहतर क्षमता के लिए अंग्रेजी आवश्यक है उन्हें कौन समझाये कि तमिलनाडु में तीन मुख्यमंत्री सर्वश्री कामराज, एम.जी.रामचंद्रन व करूणनिधि को अंग्रेंजी का ज्ञान नहीं था तो भी उनका काल किसी भी तरह से कमतर नहीं कहा जा सकता।

    कुछ लोग अंग्रेंजी को बनाये रखने के लिए क्षेत्रीय भाषाओं को हिन्दी से लड़ाने की कोशिश कर रहे हैं जबकि तथ्य यह है कि दोनों एक दूसरे की पूरक है। यदि क्षेत्रीय भाषाओं को खतरा है तो विदेशी भाषा से है। राष्ट्रभाषा सम्पूर्ण राष्ट्र के हृदयों को जोड़ती है। सम्पर्क भाषा बनकर आपसी संबंध सुदृढ़ बनाती है। हिंदी पूरे भारत की भाषा है। वह साहित्य की जननी, सभ्यता की पोषिका एवं संस्कृति की प्रेरणा है। श्री गोपालसिंह नेपाली ने एक जगह कहा है – हिंदी में गुजराती का संजीवन है, मराठी का चुहल (विनोद) है, कन्नड का माधुर्य है एवं है संस्कृत का अजस्र स्रोत। प्राकृत ने इसका श्रृंगार किया है और उर्दू ने इसके हाथों में मेंहदी लगाई है। यह आर्यों के स्वरों में गाती है और अनार्यों के ताल पर नाचती है। हिंदी राष्ट्रभाषा है। वस्तुतः हिंदी एक परंपरा का नाम है, एक सततवाहिनी सरिता का नाम है, जिसमें असंख्य नद-नालों की अंजलियां समर्पित होती रहती हैं, जिसमें पूरे भारत के प्राण तरंगित होते रहते हैं।’ हिन्दी को सबसे ज्यादा प्रोत्साहन अहिन्दीभाषियों ने दिया। 1918 में बंगाली लेखक नलिनी मोहन सान्याल ने लंदन विश्वविद्यालय में हिन्दी में शोध् ग्रंथ प्रस्तुत किया। ब्रह्म समाज के नेता बंगला-भाषी केशवचंद्र सेन से लेकर गुजराती भाषा-भाषी स्वामी दयानंद सरस्वती ने जनता के बीच जाने के लिए जन-भाषा हिन्दी सीखने का आग्रह किया। गुजराती भाषी महात्मा गांधी, मराठी-भाषी काका कालेलकर ने सारे भारत में घूम-घूमकर हिन्दी का प्रचार-प्रसार किया।

    नेताजी सुभाषचंद्र बोस की आजाद हिन्द फौज की भाषा हिन्दी ही थी। महर्षि अरविंद घोष हिन्दी-प्रचार को स्वाधीनता-संग्राम का एक अंग मानते थे। न्यायमूर्ति श्री शारदाचरण मित्र कहा करते थे- यद्यपि मैं बंगाली हूं तथापि इस वृद्धावस्था में मेरे लिए वह गौरव का दिन होगा जिस दिन मैं सारे भारतवासियों के साथ हिन्दी में वार्तालाप करूंगा।’ बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय और ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने भी हिन्दी का समर्थन किया था। आज भी तमिलनाडू निवासी डॉ. बालशौरि रेड्डी से पंजाब के डॉ. हरमहेन्द्र सिह बेदी तक, जम्मू-कश्मीर के डॉ. चमनलाल सप्रू से शिलांग के अकेला भाई तक साहित्य के माध्यम से हिन्दी सेवा में सक्रिय है। वर्धा में स्थापित महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय जिसके वर्तमान कुलपति डा.गोपीनाथन मलयालम भाषी है, इस दिशा में बहुत महत्वपूर्ण कार्य कर रहा है। दुनिया के पचास से अधिक देशों हिन्दी में पठन-पाठन की सुविधा है। अनेक देश हिंदी कार्यक्रम प्रसारित कर रहे हैं, जिनमें बीबीसी, यूएई क़े हम एफ-एम, जर्मनी के डॉयचे वेले, जापान के एनएचके वर्ल्ड और चीन के चाइना रेडियो इंटरनेशनल की हिंदी सेवा विशेष रूप से उल्लेखनीय है। हिन्दी की वर्तमान दशा के लिए हमारी शिक्षा पद्धति और शासन व्यवस्था-दोनों जिम्मेदार हैं।

    अगर देश पर हावी अंग्रेजियत को हटाना है तो शिक्षा पद्धति में आमूलचूल परिवर्तन लाना होगा। पहली से लेकर 10 कक्षा तक की शिक्षा से भारतीय भाषाओं का प्रयोग अनिवार्य करना होगा। विज्ञान, भूगोल आदि की पढ़ाई मातृभाषा में ही कराने का प्रावधान करना होगा। उसके बाद भी अंग्रेजी को एक अतिरिक्त विषय के रूप में पढ़ाया जाना चाहिए। जब एक व्यक्ति अपनी भाषा में प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त करेगा, तो उस भाषा के प्रति उसका मोह और सम्मान आजीवन बना रहेगा। हिन्दी की मौजूदा स्थिति के लिए प्रशासन भी कम दोषी नहीं है। संसद से लेकर निम्न पदों तक सभी कार्य अंग्रेजी भाषा में किये जाते हैं। क्या संसद में हिन्दी भाषा में काम-काज नहीं यिका जा सकता? तर्क दिया जाता है कि सभी लोग हिन्दी नहीं जानते। क्या कभी उनसे पूछा गया है कि सभी लोग अंग्रेजी भी नहीं जानते।

    अंग्रेजी जानने वालों का प्रतिशत हिन्दी भाषा जानने वालों से बेहद कम है, इस तथ्य को जानने के बाद भी मातृभाषा में काम क्यों नहीं किया जाता? अगर समस्या तेलुगू, बंगाली या अन्य क्षेत्रीय भाषाओं की है तो उनके लिए अनुवादक नियुक्त किये जा सकते हैं। सूचना प्रौद्योगिकी के विकास का इस्तेमाल बखूबी कर सकते हैं। हम भारतीयों को अपनी उस मानसिकता में बदलाव लाना होगा कि हिन्दी जानने वाले व्यक्ति का बौद्धिक स्तर अंग्रेजी भाषा जानने वाले व्यक्ति के बराबर नहीं हो सकता, वह शीर्ष पर नहीं पहुंच सकता। इस तरह की मानसिकता में बदलाव लाने की जिम्मेवारी सिर्फ सरकार की नहीं है। हिन्दी के प्रचार-प्रसार और सम्मान के लिए हम सभी को स्वयं आगे आना होगा। साल में एक बार ‘हिन्दी दिवस मनाने जैसे कर्मकाण्ड से ही हिन्दी को वह सम्मान नहीं मिल सकता, जिसकी वह हकदार है। आईए स्वयं से ही शुरूआत करें।

    • आर्य जी सुन्दर सर्वोचित सविस्तार अभिव्यक्ति.
      आपका यह आलेख स्वतंत्र रूपसे छपने पर अधिक पाठक पढ़ पाएंगे, विचार करें.
      किन शब्दों में कृतज्ञता व्यक्त करूँ?
      असमर्थ हूँ.
      साथ देते रहें.
      सप्रेम, सादर, नमन.

  4. इसका अर्थ तो फिर स्पष्ट है कि भारत सरकार किसी प्रकार से भी भारतीय नहीं है. इसका अर्थ यह भी हुआ ही भारत अभीतक आज़ाद नहीं हुआ है, आज़ादी के लिए अभी और संघर्ष करना पडेगा.

    • शांतनु आर्य जी की प्रदीर्घ टिपण्णी निश्चित पढ़ें.
      स्वतंत्रता में अभी भी क्षतियां हैं.

      १४ भारतीय शोधक बैठे अंग्रेजी में आपस में वार्तालाप कर रहे थे.
      निकट से जाने वाले परदेशी ने पूछा क्या आपकी अपनी राष्ट्र (?) भाषा नहीं ?
      कोई उत्तर दे न पाए.
      नमस्कार-और बहुत बहुत धन्यवाद.

  5. किसी भी भाषा का विकास विचारों की पवित्रता से होता है। आज संस्कृत इसलिए पढ़ी जा रही है, कि भागवत, वेद, गीता की भाषा संस्कृत है। यही वह मार्ग है जिस से हम, उन ज्ञान के श्रोत तक पहुंचेगे।

    हिन्दी भाषा में, कबीर, तुलसी, प्रेमचंद के विचार हैं, और इसलिए उन विचारों की गंगा में नहाने का अद्भुत सुख तभी मिलेगा जब हमें हिन्दी का ज्ञान या उस से प्रेम हो।

    अँग्रेजी भी उसी तरह ही भाषा है किन्तु शासक वर्ग ने इसे कानून और व्यवस्था के सीमित कर उसके प्रति दुर्भावना भर दी। लेकिन अँग्रेजी भी हिन्दी या संस्कृत की ही पोती है।

    कृष्ण गोपाल मिश्र

  6. पहली‌बात तो यह कि मधुसूदन जी ने हम सबका बहुत उपकार किया है जो उऩ्होंने दूध में से मक्खन निकालकर हमें परोस दिया है।

    क्या यह आश्चर्य नहीं कि जिस गाँधी को देश के पिता तथा महात्मा की संज्ञा दी गई थी और जिसके एक शब्द पर लाखों लोग निकल पड़ते थे, उसी के इतने सुविचारित तथा दृढ़ कथनों को किसी ने भी नहीं सुना !! या सुनकर अनसुना कर दिया !!

    क्या अब बहुत देर हो गई है ?
    देश भक्तों के लिये तो जब भी बात समझ में आ जाए वही समय आन्दोलन करने के लिये सही‌है।
    मधुसूदन जी का धन्यवाद

  7. निज भाषा उन्नति है , सब उन्नति का मूल” |अपनी भाषा की उन्नति और प्रगति ही हमारे सभी उन्नति और प्रगति का आधार है |हम अपनी भाषा भूल गए , माता को भूल गए और र्संस्कृति को भूल गए , राष्ट्र को भूल गए और भौतिकता के गुलाम हो गए |अब हमारे उपर मूर्ख भी शासन कर सकता है |जब मै JNU में प्रथम वर्ष की छात्रा थी तो किसी ने मुझे सलाह दी थी की एक प्रोफेसर है उनसे Hello कभी मत बोलना नहीं तो B + से ज्यादा grade कभी नहीं मिलेगा| मुझे लगा कम से कम एक प्रोफेसर तो ठीक है |(मैने अपने मन में सोचा )|मै तो हिंदी भाषा मे पढकर आई थी और भारतीय संस्कृति ही मेरा आचरण था |उस समय JNU भारत की धरती पर एक विदेशी विश्वविद्यालय के रूप मे बड़ा प्रसिद्ध था |मुसीबत का इतना बड़ा पहाड़ मेरे उपर |मेरी शादी हो चुकी थी और अब मेरे माता पिता सब अधिकार खो चुके थे मेरे उपर |यह एक लम्बी कहानी है …………………….|हिंदी बोलना , शाकाहारी होना और अपने brother in law के सामने कुर्सी पर बैठ जाने का दंड भोगना ,यह सब मेरे मिश्रित जीवन का हिस्सा चलता रहा|
    संस्कृति विहीन अंग्रेजी मे पढे लिखे भारतीय लोग अंग्रेजी मे ही सोचते है |आज हमारे भारत की दुर्दशा का कारण यही भारतीय है |भारतीयता को जानने और समझने की कोसिस कौन करता है | जब तक अपनी भाषा नहीं जानेगे तब तक अपने बारे मे कुछ भी सही जानना संभव नहीं |
    एक प्रसिद्ध भारतीय प्रोफेसर से मेरी बात हो रही थी तो उन्होने कहा की यदि हम संस्कृत को हिंदी जैसे पहले बोलना सीखे धीरे धीरे फिर लिखना पढ़ना बाद मे तो संस्कृत भी हिंदी की तरह आसानी से आम भाषा बन जायेगी |मुझे भी यह बात सही लगी |

  8. अव्यवहारिक लगते हुए भी मैं संस्कृत का पक्षधर हूँ.
    गांधीजी ने हिन्दी जिसे वे बादमे हिन्दुस्तानी कहने लगे हिन्दू-मुस्लिम एकता के हथियार के रूप में देखने लगे जबकि भारत की समस्या अंग्रेजों के आने पहले से थी इस्लामी तलवार की धार पर देश था
    सरल संस्कृत ही भारत की राष्ट्रभाषा हो सकती है

  9. ये विचार आज भी प्रासंगिक हैं जबकि इन्हें होना नहीं चाहिए था|
    हमने खुद ही इस जंजीर को पैरों में बाँध रखा है, यह सोचकर की यह सोने की है|
    हिंदी का बाजार बढ़ेगा तो हीन भावना भी विलुप्त हो जायेगी|

  10. प्रिय डॉ. शशि एवं धनंजय चौबे जी, सहमत हूँ।

    एक गोष्ठी में १२-१४ भारतीय शोधकर्ता भोजन के समय साथ बैठे अंग्रेज़ी में वार्तालाप कर रहे थे।तब निकट से जाते अमरिकन ने पूछा,कि, आप की अपनी भाषा नहीं क्या? जो आप अंग्रेज़ी में आपस में बोल रहे हैं?
    लाज आई उत्तर नहीं था, किसीके पास।

    जनगणना से केवल ०.०२१ % ही अंग्रेज़ी भाषी भारतीय (प्रायः ५०० में १) प्रमाणित हुए हैं।
    इस अंग्रेज़ी ने ही भारत को आज तक गुलाम रखा हुआ है।
    धन्यवाद। प्रायः १५ से २० लेख संस्कृत और हिन्दी दोनो पर डाले हैं, प्रवक्ता में। देख ने की कृपा करें। धन्यवाद।

    • आज से दस वर्ष के पहिले, मैंने अपने पिता जी को अपना एक बिजनेस कार्ड दिया और यह कहा की वे इसे अपने पास हमेशा रखें क्योंकि उनके पास कोई पहिचान पत्र या पता नहीं होता था। उन्होने वह कार्ड वापस कर दिया और कहा कि यह अङ्ग्रेज़ी मे है, इसलिए उसे कोई कैसे पढ़ सकता है, और उन्हें उसकी कभी कोई जरूरत नहीं होगी।

      मेरे पिता जो आज 80 वर्ष से भी अधिक के हैं, और प्राकृतिक जंगल और गाओं मे ही रहते हैं, और संस्कृत के विद्वान हैं, उन्होने कहा कि, मनुष्य की कोई भाषा नहीं होती।

      उन का यह विश्वास है, कि भाषा, दो प्राणियों के समझ का तात्कालिक प्रयोग है। यदि कुत्ते से बात करनी हो, तो कुत्ते की तरह तू तू करके उसे बुलाओ तभी वह आएगा। यदि, किसी जर्मन, से परिचय करना है, उस से डच में बोलना पड़ेगा। अंग्रेज़ से अँग्रेजी में। बच्चों से उनकी तोतली भाषा।

      यह इस बात पर निर्भर है, कि जिस से बात करनी है, वह क्या समझता है। याने, मनुष्य की अपनी भाषा नहीं होती, वह जिस से बात करना चाहता है, उसी से उसी की भाषा जान कर, उस से बात कर, उसे वहीं छोड़ देता है।

      भाषा, व्याकरण नहीं है, व्याकरण स्मृति के लिए है, किन्तु, कवि या दार्शनिक उस व्याकरण का अतिक्रमण कर जाते हैं। तुलसीदास जो संस्कृत के महान पंडित थे, राम चरित मानस को अवधी में लिखा। और वे उसे अँग्रेजी में भी लिख सकते थे यदि अंग्रेज़ उसके ग्राहक या प्रेमी होते।

      धन्यवाद

      • बोली और भाषा में अंतर होता है.
        आप बोली को भाषा तो समझ नहीं रहे ना?
        हिंदी –राष्ट्रीयता व्यक्त करती है,—– अंग्रेजी नहीं.
        संस्कृत आध्यात्मिकता व्यक्त करती है.
        संस्कृत में गाली ढूंढने से भी नहीं मिलेगी.
        परमाकाश, चिदाकाश, महदाकाश ऐसे अनेकों शब्द संस्कृत का आयाम व्यक्त करते हैं.
        जहन्नुम, काफिर ऐसे शब्द भी नहीं मिलेंगे. आपके विचार को संस्कृत ब्रह्मांडीय अनंत विस्तार देती है.
        इस पर विचार करें. इसी कारण हिन्दू उदारामतवादी बनने में सक्षम है. किसी का बुरा नहीं सोचता.बहुत समय से अत्याचार सहकर कुछ बर्ताव बदला अवश्य है.
        आगे कभी लिखूंगा. आपका पूरा संतोष संक्षेप में करने में असमर्थ हूँ.

  11. गाँधी टोपी भी आजकल गायब होती जा रही है| गाँधी के आदर्श की तो बात ही छोड दे | अंग्रजी एक अपूर्ण भाषा जिसमे व्यक्ति पूरी तरह से व्यक्त नहीं कर सकता जिसके कारण व्यक्त करते समय मन और वचन में छण भर के लिए असंतुलन पैदा होता है

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