समान शिक्षा के बिना आरक्षण

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प्रमोद भार्गव

यह हमारे ही देश में संभव है कि शिक्षा में बुनियादी सुधारों की बजाय आरक्षण को हथियार बनाकर उसके दोहन के प्रसाय किए जाते हैं। मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक बदलाव में जो उत्साह दिखा रहे हैं, उनकी पृष्ठभूमि में शिक्षा में गुणवत्ता की दृष्टि से सुधार लाना कम, शिक्षा का अंग्रेजीकरण और शिक्षा को निजी शिक्षा केंद्रों के टापुओं में बदलने की कवायद ज्यादा है। जबकि हमारे उददेश्य यह होने चाहिए कि शिक्षा क्षेत्र से एक तो असमानता दूर हो, दूसरे वह केवल पूंजी से हासिल करने का आधार न रह जाए। इस नजरिये से आर्इआर्इटी परिषद ने आर्इआर्इटी में प्रवेश का जो पैमाना तय किया है, उसे सहमति से स्वीकार लेना चाहिए। परिषद के निर्णय के अनुसार छात्रो की योग्यता का मापदण्ड परीक्षा से उत्तीर्ण हुए शीर्ष 20 फीसदी छात्रों को आर्इआर्इटी में प्रवेश के काबिल माना जाएगा। इससे एक तो अंग्रेजी और हिन्दी दोनों ही माध्यमों से पास होने वाले छात्रों को प्रवेश मिलेगा। दूसरे ग्रामीण अंचलों में सरकारी पाठशाओं में पढ़ रहे छात्रों को भी सीधे आर्इआर्इटी में सरलता से प्रवेश कर लेने की सुविधा हासिल होगी। यह पैमाना आरक्षण और जातीय मसले से छुटकारे का कालांतर में एक उत्तम उपाय सबित हो सकता है।

यह हल आर्इआर्इटी चेन्नर्इ के संचालक मण्डल के अध्यक्ष एएन शर्मा के सुझाव पर सर्वसम्मति से निकाला गया है। इस समझौते के मुताबिक 2013 में आर्इआर्इटी में दाखिल बोर्ड परीक्षा में प्राप्त प्राप्तांकों अथवा रैंक के आधार पर होगा। साथ ही यह शर्त भी लागू होगी कि चयनित छात्र अपने राज्य या केंद्रीय बोर्ड के शीर्ष 20 फीसदी छात्रों मे से होंगे ।इससे पहले मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा जिस साझा प्रवेश परीक्षा का प्रस्ताव रखा था, उसे आर्इआर्इटी दिल्ली और कानपुर के संचालक मण्डलों ने प्रस्ताव लाकर निरस्त कर दिया। बोर्ड परीक्षा में शीर्ष 20 फीसदी आने वाले छात्रों को आर्इआर्इटी की एक और परीक्षा से गुजरना होगा। इस एडवांस परीक्षा में केवल शीर्ष डेढ़ लाख सफल छात्रों को परीक्षा देने की इजाजत दी जाएगी। इस फैसले से अब अलग-अलग आर्इआर्इटी के लिए अलग-अलग प्रवेश परीक्षा आयोजित करने की जरूरत नहीं रह जाएगी। छात्रों को भी अलग-अलग आर्इआर्इटी के प्रवेश-पत्र भरने और फिर अलग-अलग स्थानों पर परीक्षा देने जाने के झंझट से मुकित मिलेगी।

चूंकि इस पैमाने में सभी राज्यों के और केंद्रीय मण्डलों के शीर्ष 20 फीसदी छात्रों को मुख्य परीक्षा में बैठने का अवसर मिलेगा, जाहिर इससे सरकारी शिक्षा संस्थानों में पढ़कर आने वाले छात्रों को भी आर्इआर्इटी में प्रवेश का स्वर्णिम मौका हाथ लगेगा। वर्तमान परिदृश्य में सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले ज्यादातर छात्र मध्यम और निम्न आय वर्ग से तो हैं ही, पिछड़ी और अनुसूचित व अनुसूचित जनजाति के छात्रों की संख्या भी इन्हीं स्कूलों में ज्यादा है। यही नहीं ये छात्र हिन्दी माध्यम से भी पढ़कर राज्य-मण्डलों की प्रावीण्य सूचियों में नाम दर्ज कराकर अपनी प्रतिमा का लोहा मनवा रहे हैं। आर्इआर्इटी में प्रवेश के इस नए आधार पर जब परिणाम की अंतिम सूची जारी होगी तो मेरा विश्वास है कि हम पाएंगे कि आरक्षित वर्ग के छात्रों की संख्या आरक्षण के तय प्रावधानों से कहीं अधिक होगी। यदि ऐसा होता है तो यह पैमाना आरक्षण मुक्त समान शिक्षा की दिशा में एक ऐतिहासिक कदम होगा ?

हमारा संविधान प्रत्येक भारतीय नागरिक को सामाजिक न्याय व अन्य सामाजिक स्तरों, जैसे बौद्धिक, सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक और सांस्कृतिक विकास के समान अवसरों की वकालात करता है। शिक्षा ही एक ऐसा आत्मबल है, जो व्यकित को निजी स्तर पर सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में प्रगति व स्थापना के लिए जीवटता प्रदान करता है। इसलिए सत्ता संचालकों का यह दायित्व बनाता है कि वे पूंजी आधारित शिक्षा के चंद उपनिवेश स्थापित करने की बजाय हर नागरिक को समान शिक्षा के माध्यम सामाजिक न्याय उपलब्ध कराने के समान अवसर सुलभ कराएं। जिससे दलित, पिछड़े एवं अभावग्रस्त बच्चों को शिक्षा हासिल करने के एक समान अवसर मिल सकें। खासतौर से वंचित समाज की इसी मकसद पूर्ति के लिए संविधान की धारा 45 में दर्ज नीति-निर्देशक सिद्धांत सभी के लिए शैक्षिक अवसरों की समानता तय करने का प्रावधान प्रकट करते हैं। इसी उददेश्य से 14 वर्ष की आयु तक के सभी बालक-बालिकाओं को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा देने की पैरवी संविधान करता है, जिसे अब अनिवार्य शिक्षा कानून के माध्यम से अमल में लाने की कोशिशें तेज हुर्इ हैं। हालांकि निजी-स्कूल इस कानून को ठेंगा दिखाने से भी बाज नहीं आ रहे हैं। जाहिर है केंद्र व राज्य सरकारों को अनिवार्य शिक्षा के स्वप्न को साकार करने की दृषिट से अभी कुछ और कड़े कदम उठाने होंगे।

हालांकि केंद्र सरकार जिस इकतरफा सोच के चलते शिक्षा में निजी क्षेत्र की भागीदारी और प्रतिस्पर्धा परिक्षाओं को कोचिंग-कक्षाओं से जोड़कर पूंजी आधारित प्रतिभा-विकास को प्रोत्साहित कर रही है, उस पर भी अंकुश लगाने की जरूरत है। क्योंकि यह सुविधा सिर्फ वे छात्र हासिल कर पा रहे हैं, जो जाति, पद और पूंजी के आधार पर आभिजात्य श्रेणी में आ गए हैं। निजी विधालय इस कुरीति को प्रोत्साहित कर शिक्षा को जबरदस्त मुनाफे का बाजार बनाने में लगे हैं। इस कुरीति की हकीकत यह है कि जो छात्र किसी निजी स्कूल में नियमित विधार्थी होता है, वही छात्र कोटा या इन्दौर में रहकर प्रतिस्पर्धा परीक्षाओं की नियमित कोचिंग ले रहा होता है। इस छूट के लिए निजी स्कूल पालकों से अतिरिक्त धन वसूली करते हैं। दोहरी पढ़ार्इ करने वाले ऐसे छात्रों को यदि प्रतिस्पर्धा परीक्षाओं मे ंपरीक्षा देने से रोक दिया जाए तो अभावग्रस्त छात्रों का दाखिला इंजीनियरिंग और मेडीकल कालेजों में एकाएक बढ़ जाएगा ? आरक्षण मुक्त शिक्षा में समानता की दृषिट से यह भी एक अच्छी पहल होगी। आरक्षण को बढ़ावा देना ही है तो अब कोशिशें ये होनी चाहिए कि सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले छात्रों को प्रतिस्पर्धा परीक्षाओं में प्रात्रता हासिल करने के लिए आरक्षण दिया जाए। इस उपाय से वंचित व आर्थिक रूप से अभावग्रस्त तबके को महत्व तो मिलेगा ही, देश की हिन्दी समेत सभी राजभाषाओं के महत्व को अंगीकार भी कर लेने का सिलसिला शुरू हो सकता है।

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