‘गंगा-जमुनी तहजी़ब का प्रतीक उर्दू’

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जुबां ऐसी कि सब समझे,
बयां ऐसी कि दिल मानें।
-अनिल अनूप
उर्दू गंगा-जमुनी तहजीब का प्रतीक उर्दू को हम सभी एक मीठी जुबान के नाम से भी जानते हैं। उर्दू भाषा में जितनी अदब और तहजीब है, उतनी ही ये बोलने और समझने में भी आसान है। उर्दू मूल रूप से एक भारतीय भाषा है। उर्दू ज़ुबान मुगलकाल में आर्मी कैम्प में वजूद में आई। भाषाई तौर पर उर्दू कई देशी-विदेशी भाषाओं का संगम है। उर्दू में हिन्दी, अंग्रेजी, लातीनी, तुर्की, संस्कृत, अरबी और फारसी जैसी भाषाओं के अल्फाज़ शामिल हैं।
उर्दू भारतीय उपमहाद्वीप में लगभग हर जगह समझी जाने वाली जुबान है। उर्दू ने अपनी इस खासीयत की वजह से न सिर्फ क्षेत्रिय व्यापार को बढ़ाने में अहम भूमिका निभाई है, बल्कि देश को एकता के सूत्र में पिरोने में भी अहम योगदान दिया है। दक्षिण के राज्यों में जहां एक तरफ हिन्दी की मुख़ाल्फत खुलेआम होती है। वहीं इन राज्यों में रहने वाले मुसलमानों का उर्दू प्रेम देखते ही बनता है। उर्दू और हिन्दी लिखने और पढऩे में भले ही अलग-अलग हो, लेकिन इन दोनों जुबानों को बोलने वाले एक दूसरे को बआसानी समझ लेते हैं। लिहाजा उर्दू के सहारे हिन्दी भी दक्षिण के राज्यों में आसानी से समझी जाती है।
इतना ही नहीं अगर बात हिन्दी फिल्मों की जाए तो उर्दू के बगैर हिन्दी फिल्मों का सपना भी डरावना लगता है। बोलचाल की भाषा में भी हम जाने अनजाने ज्यादातर उर्दू अल्फाज का ही इस्तेमाल करते हंै। एक बार मैंने अपने कुछ दोस्तों से पूछा की आप कौन सी भाषा बोलते हैं। जवाब में सभी ने कहा हिन्दी। मैंने कहा कि अगर मैं ये साबित कर दूं कि आप उर्दू बोल रहे हैं तो… इसपर सबने कहा तुम साबित ही नहीं कर सकते हो। इस पर मैंने कहा चलों तुम अपने शरीर के दस अंगों के नाम बताओ… तो उन्होंने गिनाना शुरू कर दिया। सिर, बाल, नाक, कान, आंख, दांत, जबान, होठ, गला, हाथ और पैर । फिर मैंने पूछा कि बताओ इनमें से कितनी हिन्दी है? सबने कहा, सभी हिन्दी है। मैंने कहा ये सभी उर्दू है। इस पर सभी बोले कैसे? मैने कहा ज़बान की हिन्दी है जीभा। कान को हिन्दी में कहते हैं कर्ण और आंख को नेत्र । इतना कहना था कि बाकी बचे शब्दों की हिन्दी वे ख़ुद बताने लगे और बोले यार तू तो सही कह रहा है। हम तो बस लिखते हिन्दी हैं लेकिन जब बोलने की बारी आती है तो बेधड़क उर्दू अल्फाज का इस्तेमाल करते हैं। यानी जाने अनजाने में ही सही हम इस हिन्दुस्तानी ज़ुबान उर्दू को अपने गले से लगाकर रखे हुए हैं। हालात ये है कि जीवित रहने के लिए जिन तीन बुनियादी चीज़ों- रोटी, कपड़ा और मकान का जो नारा आय दिन लगाते है, वे भी उर्दू के अल्फाज हैं। इतना ही नहीं इस दुनिया से रुखसती के वक्त जो एक चीज़ हम अपने साथ लेकर जाते है। वो कफन भी उर्दू लफ्ज है।
अकबर इलाहाबादी ने सफल संवाद की विशेषता बताते हुए लिखा था कि..
जुबां ऐसी कि सब समझे,
बयां ऐसी कि दिल मानें।
उर्दू इस शेर के अर्थ पर पूरी तरह खरी उतरती है। उर्दू जुबान की मीडिया जगत में अपनी अलग ही पहचान है। भारतीय मीडिया के लिए सफल संवाद स्थापित करने में उर्दू ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। हिन्दी अख़बार, रेडियो और टीवी चैनलों में तो उर्दू के बिना सब कुछ अधा-अधूरा लगता है। हेडलाइन बनाने की बात हो या मामला स्क्रिप्ट को दिलकश अंदाज में पेश करने की। उर्दू के बिना कही भी निखार नहीं आता है। रेडियो और टीवी चैनलों में इस्तेमाल होने वाली भाषा तो निहायत ही सरल, सहज और आम बोल-चाल की उर्दू प्रधान भाषा होती है। न तो ये पूरी तरह से हिन्दी होती है और न ही उर्दू। इसलिए रेडियो और टीवी की भाषा को हिन्दी या उर्दू न कह कर हिंदुस्तानी जुबान कहा जाता है।
उर्दू की इस उपयोगिता के बावजूद भी आज उर्दू को वो सम्मान नहीं मिला जो उसे मिलना चाहिए। दरअसल देश के विभाजन के बाद उर्दू को पाकिस्तान में राष्ट्र भाषा के तौर पर पहचान मिली। बस क्या था। सांप्रदायिकता की आग में झुलस रहे लोगों ने पाकिस्तान के साथ ही उर्दू को भी सांप्रादायिक रंग दे दिया। इसके बाद देखते ही देखते भारतीय सरजमीन पर वजूद में आई ये जुबान भारतीयों के लिए ही पराई हो गई। पाकिस्तान में उर्दू को भले ही राष्ट्र भाषा का दर्जा मिल गया हो लेकिन आज भी वहां की बहुसंख्यक आबादी पंजाबी बोलती है। इतना जरूर है कि भारत ही तरह पाकिस्तान में भी लगभग सभी जगह उर्दू समझी जाती है।
देश की आजादी में अहम भूमिका निभाने वाली इस जुबान को अलग थलग करने ने में सरकारी पॉलिसी भी एक हद तक जिम्मेदार है। देश की आजादी के साथ ही उर्दू, रोजगार परक और सरकारी दफ्तरों में इस्तेमाल में आने वाली जुबीन न रहकर देश के अल्पसंख्यकों की जुबान बन कर रह गई। ग़ुलामी की प्रतीक अंग्रेजी को जहां सरकारी काम काज की भाषा के तौर पर स्वीकार किया गया। वहीं उर्दू को मदरसों और उर्दू अखबारों के भरोसे छोड़ दिया गया।
आम बोल चाल और देश की दूसरी बहुसंख्यक की मादरी जुबान होने की वजह से स्कूलों और कालेजों में इसे मादरी जुबान के तौर पर पढ़ाने का फैसला हुआ। वहीं सरकारी दफ्तरों में उर्दू ट्रांस्लेटर रखने का प्रावधान भी किया गया। लेकिन देश के ज्यादातर राज्यों में ये नियम कानून सिर्फ कागज का गठ्ठा बन कर ही रह गया है। इस पर न तो सरकारें अमल करती हंै और न ही उर्दू के ठेकेदारों को इसकी चिंता है। देश के ज्यादातर प्राइमरी, हाई स्कूल और इण्टर कालेज में उर्दू के पठन-पाठन का कोई इंतजाम नहीं है। सरकारों ने उर्दू अकादमी खोल कर कुछ लोगों को उर्दू के नाम पर पेट पालने का जरिया जरूर दे दिया है। जो साल में एक बार उर्दू दिवस के मौके पर कोई मुशायरा कराना ही अपनी जिम्मेदारी समझते हैं। इनका इस ओर बिल्कुल ही ध्यान नहीं है कि उर्दू को कैसे ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल की भाषा बनाई जाए।
इन्हें इस बात की भी फिक्र नहीं है कि उर्दू का फरोग़ कैसे हो । इसके साथ ही उर्दू अकादमियों के तरफ से उर्दू को जदीद टेक्नोलॉजी और रोजगार से जोडऩे के प्रयास भी नदारद है। उर्दू में शोध कार्य तो बहुत ही दूर की बात है इस ओर तो शायद उर्दू अकादमी के लोग सोच भी नहीं पाते हैं।
उर्दू के नाम पर राजनीति तो खूब होती है, लेकिन अगर कुछ नहीं बदलती है तो वह है उर्दू की हालत। पिछले दिनों संसद में एक बार फिर उर्दू की बदहाली पर लग-भग सभी राजनीतिक दलों के नेता घरियाली आसूं बहाते नजऱ आए। लेकिन उर्दू के विकास के नाम पर जो कुछ करने की बात कही गई, वह थी उर्दू अखबारों को प्रोत्साहन पैकेज की बात। किसी ने ये सुझाव नहीं दिया कि उर्दू को किस तरह रोजग़ार परक ज़बान बनाई जाए। यूं तो सरकार ने पहले से ही उर्दू के विकास के लिए एक उर्दू चैनल भी खोल रखा है। देश में एक उर्दू यूनिर्वसिटी भी खोल दी है, ताकि उर्दू प्रेमी अपनी आला तालीम यहां से हासिल कर सकें, लेकिन सवाल पैदा ये होता है कि उर्दू पढऩे के बाद जब रोजगार ही नहीं मिलेगा तो कोई उर्दू पढऩे क्यों जाएगा?
लिहाज़ा उर्दू को जीवित रखने के लिए ये निहायत ही जरूरी है कि उर्दू पढऩे वाले को रोजगार दिया जाए। दूसरी बात ये कि जब प्राइमरी और मिडिल लेवल पर ही उर्दू नदारद है तो आला तालीम के लिए उर्दू के छात्र कहां से आएंगे। अगर सरकारें वाकई उर्दू के प्रती संजीदा है तो सबसे पहले प्राइमरी और मिडिल लेवल पर शिक्षकों की भर्ती की जानी चाहिए। इस से एक ओर हज़ारों उर्दूदां को रोजगार मिलेगा। वहीं दूसरी ओर छात्र-छात्राओं के लिए उर्दू पढऩा आसान हो जाएगा । जो लोग शिक्षक की कमी की वजह से चाह कर भी उर्दू नहीं पढ़ पाते हैं। उनके अधिकारों की रक्षा भी होगी
आज देशभर में उर्दू की हालत निहायत ही बदतरीन है। हालात ये है कि सरकारी दफ्तरों के बाहर लगे बोर्डो को भी अब उर्दू में लिखने की ज़रूरत नहीं समझी जा रही है। जहां कही उर्दू में लिखा भी होता है तो वह भी ग़लत लिखा होता है। यही वजह है कि दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित इस पर अपनी चिंता जताने के साथ ही उर्दू दाम से इन बोर्डों को दुरुस्त करने में सहयोग की अपील कर चुकी है।
विविधताओं से भरे भारत में एक कहावत आम है कि “कोस-कोस पर पानी बदले तीन कोस पर बोली” लेकिन इस विविधता में एक बात खास है कि ये सभी बोलियां एक दूसरे के विरोधी नहीं बल्कि पूरक हैं। लिहाजा देश की एकता और अखण्डता को बरकरार रखने के लिए विविधता का सम्मान जरूरी है।
-अनिल अनूप

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