गणतंत्र के लक्ष्य को साधने की चुनौती-

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अरविंद जयतिलक

26 जनवरी 1950 को भारत ने संसार को एक नए गणराज्य के गठन की सूचना दी। संविधान की भावना के अनुरुप ही भारत एक प्रभुतासंपन्न गणतंत्रात्मक धर्मनिरपेक्ष समाजवादी राज्य बना। देश में संविधान का शासन है और संसद सर्वोच्च है। देश की स्वतंत्रता के उपरांत हमारा उद्देश्य एक शक्तिशाली, स्वतंत्र और जनतांत्रिक भारत का निर्माण करना था। ऐसा भारत जिसके सभी नागरिकों को विकास और सेवा का समान अवसर मिले। ऐसा भारत जिसमें जातिवाद, क्षेत्रवाद, भाषावाद, आतंकवाद, नक्सवलवाद, छुआछुत, हठधर्मिता और मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण के लिए स्थान न हो। पर सवाल यह है कि क्या आजादी के इन सात दशकों में हमने इन लक्ष्यों को हासिल कर लिया? क्या समाज में व्याप्त छुआछुत और शोषण को मिटाया जा सका है? क्या हाशिए पर खड़े लोगों को उनका वाजिब अधिकार मिला है? क्या आर्थिक विषमता की खाई खत्म हुई है? क्या महिलाओं के प्रति समाज का नजरिया बदला है? क्या देश की आंतरिक और वाह्य सुरक्षा मजबूत हुई है? ढ़ेरों ऐसे सवाल हैं जो आज भी मुंह बाए खड़े हैं। निःसंदेह इन सात दशक में देश ने उल्लेखनीय उन्नति की है। कृषि की उत्पादकता बढ़ी है। उद्योग-धंधों का विस्तार हुआ है। शिक्षा, विज्ञान व संचार के क्षेत्र में अपार उन्नति हुई है। सामाजिक सुरक्षा व सेवाओं का दायरा बढ़ा है। लेकिन सच यह भी है कि देश आज जातिवाद, भाषावाद, क्षेत्रवाद, नक्सलवाद, अलगाववाद, आतंकवाद, भ्रष्टाचार, गरीबी, भूखमरी, बेरोजगारी और लैंगिक असमानता से मुक्त नहीं हो सका है। देश की एक बड़ी आबादी आज भी जीवन की मूलभूत सुविधाओं मसलन रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा व स्वास्थ्य सुविधाओं से वंचित है। सरकार के ही आंकड़े बताते हैं कि देश में 27 करोड़ लोग गरीब हैं। 68 करोड़ लोग ऐसे हैं जो बुनियादी सुविधाओं से महरुम हैं।  आर्थिक विषमता की खाई लगातार चैड़ी होती जा रही है। हाल ही में अंतर्राष्ट्रीय संगठन आॅक्सफैम की एक रिपोर्ट से उद्घाटित हुआ है कि देश में कुल संपदा सृजन का 73 प्रतिशत हिस्सा एक प्रतिशत रईसों के पास है। आय असमानता की यह स्थिति बेहद ही चिंताजनक और डरावना है। आज भी देश में करोड़ों लोग ऐसे भी हैं जिनके पास घर नहीं हैं। 2011 की जनगणना के मुताबिक ऐसे लोगों की तादाद तकरीबन तीन करोड़ के आसपास है। राहतकारी है कि सरकार ने सबको घर उपलब्ध कराने का क्रांतिकारी फैसला किया है। सामजिक और स्वास्थ्य मोर्चे पर स्थिति और भी चिंताजनक है। राष्ट्रीय फैमिली हेल्थ सर्वे की रिपोर्ट में कहा गया है कि अफ्रीका की तुलना में भारत में दोगुने बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। 43 फीसद बच्चे कम वजन के शिकार हैं। दलित समाज के बच्चों के हालात और भी बुरे हैं। कुपोषण के शिकार पांच साल से कम उम्र के चार करोड़ बच्चों का शारीरिक विकास नहीं हो पाया है। अन्य देशों की तुलना में कुपोषण के मामले में भारत की स्थिति चिंताजनक है। शिशु मृत्यु दर की हालात और भी भयावह है। 2015 में देश में पैदा होने वाले प्रति हजार बच्चों पर 37 बच्चों की मृत्यु हुई। जबकि भारत ने 2012 में 2015 तक मृत्यु दर को 30 पर रोकने का लक्ष्य रखा था। मेटरनल माॅर्टेलिटिी रेशियो (एमएमआर) और इंटरनेशनल प्रेग्नेंसी एडवाइजरी सर्विसेज की रिपोर्ट की मानें तो भारत में असुरक्षित गर्भपात से हर दो घंटे में एक स्त्री की जान जाती है। आज की तारीख में गांवों में डाॅक्टरों की कमी की वजह से 90 फीसद गर्भवती महिलाएं स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए झोलाछाप डाॅक्टरों पर निर्भर हैं। महिलाओं पर अत्याचार थमने का नाम नहीं ले रहा है। दूसरी ओर लैंगिंक असमानता जस की तस बनी हुई है। संयुक्त राष्ट्र की ‘द वल्र्डस वीमेन 2015’ की रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में पांच साल से कम उम्र की लड़कियों की मौत इसी उम्र के लड़कों की तुलना में ज्यादा होती है। रिपोर्ट में भारत में लड़कियों की अधिक मौत की वजह परिवार में बेटों को ज्यादा तरजीह देना बताया गया है। हाल ही में अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष ने भारतीय रोजगार बाजार में लैंगिक अंतर को अन्य देशों की तुलना में सबसे अधिक बताते हुए सलाह दी है कि अगर श्रम बल में महिलाओं की संख्या को पुरुषों की संख्या के समान की जाए तो भारत की जीडीपी 27 फीसद तक बढ़ सकती है। आईएएस में महिलाओं का प्रतिनिधित्व महज 14 फीसद है। इसी तरह बैंकों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व केवल 20 फीसद है। बैंकों में क्लर्क स्तर पर 29 तथा अधिकारी स्तर पर 12 फीसद है। आज भी देश के माथे पर से बालश्रम का कलंक मिटा नहीं है। एक अनुमान के मुताबिक देश में इस समय सवा करोड़ से अधिक बाल श्रमिक मौजूद हैं। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग भी स्वीकार चुका है कि उसके पास बालश्रम के हजारों मामले दर्ज हैं। रोजगार के मामले में भी स्थिति संतोषजनक नहीं है। श्रम मंत्रालय की श्रम ब्यूरो द्वारा जारी सर्वेक्षण में कहा गया है कि भारत में बेरोजगारी की दर में लगातार वृद्धि हो रही है। 2016 में बेरोजगारों की संख्या 1.77 करोड़ थी। इस साल यह संख्या 1.78 करोड़ और 2018 में 1.8 करोड़ हो सकती है। शिक्षा के हालात और भी बदतर हैं। अमेरिका की अंतर्राष्ट्रीय रैंकिंग एजेंसी क्वाकर्ली सायमंड्स (क्यूएस) ने शैक्षिक सत्र 2016-17 की अपनी रिपोर्ट में कहा है कि दुनिया की शीर्ष 100 विश्वविद्यालयों की सूची में भारत का एक भी शैक्षिक संस्थान नहीं है। पिछले दिनों एस्पाइरिंग माइंड्स की नेशनल इम्पालयबिलिटी रिपोर्ट में कहा गया कि इंजीनियरिंग डिग्री रखने वाले स्नातकों में कुशलता की कमी है और उनमें से करीब 80 फीसद रोजगार के काबिल नहीं हैं। सीआईआई की इंडिया स्किल रिपोर्ट-2015 बताती है कि भारत में हर साल तकरीबन सवा करोड़ शिक्षित युवा तैयार होते हैं। ये नौजवान रोजगार के लिए सरकारी और प्राइवेट क्षेत्र सभी जगह अपनी किस्मत आजमाते हैं। लेकिन सिर्फ 37 फीसद ही कामयाब हो पाते हैं। यह राहतकारी है कि भारत सरकार ने बेरोजगारों को रोजगार प्रदान करने के लिए स्किल इंडिया के जरिए सन 2022 तक 40 करोड़ लोगों को प्रशिक्षित करने का लक्ष्य रखा है। प्राथमिक शिक्षा की स्थिति और भी दयनीय है। शिक्षा का अधिकार कानून तथा सर्व शिक्षा अभियान जैसी योजनाओं के बावजूद भी लाखों बच्चे स्कूली शिक्षा की परिधि से बाहर हैं। एक रिपोर्ट के मुताबिक सरकारी प्राथमिक स्कूलों में तीसरी कक्षा के केवल 19.3 फीसद बच्चे ही दूसरी कक्षा की किताब पढ़ सके। यही नहीं देश में सरकारी, स्थानीय निकाय और सहायता प्राप्त स्कूलों में शिक्षकों के तकरीबन 45 लाख पद रिक्त हैं। युनेस्कों की रिपोर्ट में सुझाया गया है कि 2015 और इसके बाद की योजनाओं में कुल सरकारी खर्च का 20 फीसद हिस्सा शिक्षा पर खर्च होना चाहिए। लेकिन इस मद में 4 फीसद तक भी ही खर्च नहीं हो पा रहा है। न्यायिक मोर्चे पर भी अपेक्षित सफलता हासिल नहीं हो रही है। शीध्र व सस्ता न्याय की चुनौती बनी हुई है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 31 दिसंबर 2015 तक सर्वोच्च न्यायालय एवं उच्च न्यायालयों सहित देश की सभी अदालतों में 2.64 करोड़ मुकदमें लंबित थे। मुकदमों के निस्तारण में दशकों लग रहा है। पर्यावरण के मोर्चे पर भी हालात संतोषजनक नहीं हैं। दुनिया के सर्वाधिक प्रदुषित शहरों की सूची में देश की राजधानी दिल्ली शीर्ष पर है। देश में सालाना 12 लाख से अधिक लोगों की मौत प्रदुषण से होती है। 2015 में वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में भारत की हिस्सेदारी 6.3 फीसद रही। देश में सड़क हादसे से हर वर्ष लाखों लोग काल के मुंह में जा रहे हैं। एक अध्ययन के मुताबिक देश में सड़क नियम का पालन न होने के कारण पिछले एक दशक में 13 लाख से अधिक लोग सड़क हादसों में मारे गए हैं। दुर्भाग्यपूर्ण यह कि संसद भी अपने उत्तरदायित्वों के प्रति गंभीर नहीं है। संसद के सत्र में लगातार कामकाज के घंटे कम हो रहे हैं। यह स्थिति भारतीय गणतंत्र के लिए शुभ नहीं है।

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