भारतीय शैक्षणिक संस्थानों की बढ़ रही है वैश्विक रेंकिंग

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राजनैतिक दखल से मुक्त होना चाहिए देश के शैक्षणिक संस्थान

लिमटी खरे

देश में शैक्षणिक गतिविधियों का व्यवसायीकरण और बाजारीकरण हो चुका है इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है। जहां देखिए वहां निजि स्तर पर शैक्षणिक संस्थानों की बाढ़ सी आ चुकी है। इंजीनियरिंग, मेडिकल, नर्सिंग प्रशिक्षण संस्थानों को अगर देखा जाए तो सरकारी स्तर पर खुले संस्थानों से कई गुना ज्यादा ये संस्थान नजर आते हैं। इसके बाद भी वैश्विक स्तर पर भारत के ढाई दर्जन से ज्यादा स्थानों पर सुधार दर्ज किया जाना अपने आप में राहत की बात माना जा सकता है।

हाल ही में क्यू एस वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रेंकिंग के लिए वर्ष 2023 हेतु सूची जारी की गई है। इसमें भारतीय विज्ञान संस्थान अर्थात आईआईएससी ने 31 स्थानों की उछाल दर्ज करते हुए यह देश का सर्वश्रेष्ठ संस्थान बन गया है। विश्व के 200 शीर्ष संस्थानों में आईआईएससी ने 155वां स्थान पाया है।

इसके अलावा भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान अर्थात आईआईटी की अगर बात की जाए तो आईआईटी मुंबई ने 172 तो इससे दो पायदान नीचे आईआईटी दिल्ली ने स्थान पाया है। विश्व भर के 1000 संस्थानों में भारत देश के संस्थानों की संख्या कल तक 22 हुआ करती थी जो इस बार बढ़कर 27 हो चुकी है।

वैश्विक स्तर पर मैसाच्युसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नालाजी एक बार फिर लगातार 11वीं बार वैश्विक स्तर पर पहली पायदान पर, कैंब्रिज यूनिवर्सिटी दूसरे और स्टेनफोर्ड यूनिवर्सिटी ने तीसरा स्थान पाया है।

क्यू. एस. वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग  क्वाकरेल्ली सायमोंड्स जिसका शार्ट फार्म क्यू एस है द्वारा प्रकाशित एक वार्षिक प्रकाशन किया जाता है जो विश्वविद्यालयों की रैंकिंग प्रदान करता है। पूर्व में इसे टाइम्स हायर एजुकेशन – क्यू. एस. वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग के नाम से जाना जाता था।

अब आपको बताते हैं कि इसमें किस सूचक पर कितने प्रतिशत नंबर होते हैं। इसमें शैक्षणिक सहकर्मी की समीक्षा पर चालीस फीसदी जिसमें एक आंतरिक वैश्विक शैक्षिक सर्वेक्षण पर आधारित होता है। इसके अलावा संकाय एवं छात्र अनुपात पर बीस फीसदी जिसमें शिक्षा के प्रति प्रतिबद्धता को मापा जाता है। इसी तरह प्रशंसा पत्र के अनुसार संकाय सूचक में अनुसंधान प्रभाव के आधार पर मापा जाकर इसमें भी बीस प्रतिशत अंकनियेक्ता की प्रतिष्ठा में दस फीसदी जिसमें स्नातक नियोक्ताओं के लिए एक सर्वेक्षण कराया जाता है। इसके अलावा अंतर्राष्ट्रीय छात्र और स्टाफ के अनुपात पर पांच पांच फीसदी अंक होेते हैं।

वैसे क्यूएस वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रेंकिंग पर अगर गौर किया जाए तो देश में संकाय और छात्रों का अनुपात मानक आधार के अनुरूप नहीं रहा है। इस रैंकिंग की रेस में शामिल 41 भारतीय विश्वविद्यालयों में से महज 04 ने ही अपनी रेंकिंग को सुधारा है। भारत में अभी और सुधार की गुंजाईश की दरकार है।

देखा जाए तो भारत में पढ़ाई को प्रयोगशाला बना दिया गया है। भारत में आईआईटी और आईआईएम के नाम पर न जाने कितने निजि संस्थान चल रहे हैं। देखा जाए तो इस तरह के मिलते जुलते नामों के पंजीयन पर न केवल प्रतिबंध लगना चाहिए वरन जो पंजीकृत हो चुके हैं उनके नाम बदलने की सिफारिश भी की जाना चाहिए।

इसके अलवा शैक्षणिक संस्थानों में गुणवत्ता के साथ शिक्षा और शोध पर जोर देने की आवश्यकता है। देश में शोध संस्थान बढ़ाना चाहिए। केंद्र और राज्यों को चाहिए कि वे अपने बजट का निश्चित हिस्सा शिक्षा की गुणवत्ता और शोध संस्थानों की स्थापना के लिए आरक्षित करे ताकि विद्यार्थियों को नया माहौल मिल सके। इसके साथ ही शिक्षा के बाजारीकरण और व्यवसायीकरण पर रोक लगाए जाने की भी महती जरूरत महसूस होने लगी है।

देश के शैक्षणिक संस्थानों में इस तरह की शिक्षा प्रणाली को लागू किया जाना चाहिए जो विद्यार्थियों में सिर्फ उपाधि अर्थात डिग्री लेने की प्रवृत्ति पर रोक लगाकर उनमें सीखने की ललक पैदा करे और कौशल विकास के माग्र प्रशस्त हो सकें। इसके अलावा शिक्षा पर होने वाले भारी भरकम खर्च पर नियंत्रण के लिए भी उपाय करना बहुत ही जरूरी है। इसके लिए 1948 में बने राधाकृष्णनन आयोग की तरह वर्तमान परिस्थितियों में एक आयोग का गठन किया जाकर बौद्धिक विकासन्यायमौलिकताअभिव्यक्ति की स्वतंत्रताबौद्धिक दृष्टिकोणसमाज सुधारजीने की कला आदि उद्देश्यों पर आधारित उच्च शिक्षा के उद्देश्यों पर विमर्श कराना चाहिए।

आज ज्ञान के बजाए डिग्री लेने में युवाओं की ज्यादा दिलचस्पी हो रही हैइसका कारण यह है कि बिना डिग्री के कोई भी नौकरी नहीं मिल पाती है भले ही कौशल आपके अंदर कूट कूटकर भरा हो। स्कूल शिक्षा में सुधार की तो जरूरत महसूस हो ही रही है इसके साथ ही उच्च शिक्षा की भूमि को भी उपजाऊ बनाए जाने की बहुत जरूरत है। इस तरह के संस्थान अस्तित्व में आने चाहिए जहां देश के युवा अपनी क्षमता को न केवल पहचान सकें वरन उसका सदुपयोग कैसे हो इस पर भी विचार कर सकें।

इस सबके लिए शैक्षणिक संस्थानों को राजनीति से और राजनैतिक लोगों के चंगुल से मुक्त करने की जरूरत है। आज चुने हुए प्रतिनिधियों के आगे पीछे इन शैक्षणिक संस्थानों में अध्यापन करने घूमते नजर आते हैंजबकि शिक्षा को इस सियासी कीचड़ से मुक्त करने से ही देश में शिक्षा का स्वर्णिम युग वापस लौट सकता है।

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