गुर्जर वंश का गौरवशाली इतिहास, अध्याय — 8

गुर्जर कुषाण वंश के प्रारंभिक शासक

पिछले अध्याय में हमने स्पष्ट किया था कि भारतवर्ष में शासन करने वाले कुषाण वंशी शासकों के पूर्वज मूल रूप में भारतीय आर्यों की ही क्षत्रिय शाखा के लोग थे। जो देश , काल व परिस्थिति के अनुसार मध्य एशिया से चलकर भारत पहुंचे । जिन्हें यहाँ के क्षत्रिय समाज के लोगों ने अपने साथ सहज रूप में मिला लिया। मूल रूप में भारतीय आर्यों की ही सन्तान होने और भारतीयता व भारतीय संस्कृति से इनका अनन्य प्रेम होने के कारण इन लोगों को हम विदेशी नहीं मान सकते । कुषाण चीन के यूची एवं तोखरी जाति के थे। मंगोलिया का कोवी प्रदेश कुषाणों का मूल निवास स्थान था।
राहुल सांकृत्यायन जी का मत इस विषय में हमारी शंकाओं का समाधान करता है। वह लिखते हैं कि :– ” कुषाणों को बौद्ध या शैव आदि धर्मों के साथ सम्बध्द देखकर उन्हें भारत में आकर हिंदू संस्कृति और धर्म को ग्रहण करने वाले समझने की गलती इस कारण की जाती है कि हम यह नहीं जानते कि उनका मूल स्थान (तुषार देश तरिम उपत्यका) इससे पहले ही से धर्म और संस्कृति में हिंदू था।”

कुजुलकडफिस

यूची जाति के प्रथम शासक कुजुल कडफिस या कडफिसेस प्रथम था। इन्होंने रोमन सिक्के की नकल करके तांबे का सिक्का जारी किया। भारत में कुषाण वंश के संस्थापक कुजुल कडफिसेस था। भारत में कुषाण या कसाना साम्राज्य के संस्थापक के रूप में कुजुलकडफिस को ही सम्मान प्राप्त हुआ है । इसने दीर्घकाल तक संघर्ष करने के पश्चात सन 25 में सम्राट पद प्राप्त किया और भारत में विधिवत शासन करना आरम्भ किया। चीनी इतिहास लेखकों की साक्षी पर विश्वास किया जाए तो पता चलता है कि कुजलकडफिस का जन्म 30 ई0पू0 में हुआ था ।उसकी मृत्यु 80 वर्ष की अवस्था में सन 50 में हुई थी। जिस समय उसने सम्राट पद प्राप्त किया था ,उस समय उसकी अवस्था 55 वर्ष की थी।
इस गुर्जर सम्राट का एक नाम ‘गुजुर कपिशिया’ भी था । महाभारत कालीन बाह्लीक ( बल्ख ) राज्य की राजसत्ता को छोड़ने के लिए यूनानियों को कुषाणों ने ही अपने पराक्रम से बाध्य किया था। यवन लोगों का भारतवासियों से लम्बे समय से 36 का आंकड़ा चला आ रहा था । मूल रूप में भारतीय होने के उपरान्त भी यवन लोग भारतवासियों के विरुद्ध कार्य करने के लिए जाने जाते थे । इसलिए यूनानियों अथवा यवनों को वहाँ से पराजित कर भगाने का काम उस समय सचमुच बहुत ही सराहनीय कार्य था । जिसका स्वाभाविक प्रभाव भारत के लोगों पर यह पड़ा कि कुषाणों को उन्होंने अपने अनुकूल समझा ।
कुषाणों के द्वारा किए गए इस महान कार्य को भारतवर्ष की जनता ने अपनी स्वीकृति और सहमति प्रदान की।
पंडित भगवत दत्त सत्यश्रवा जी ने अपने ग्रंथ ‘भारतवर्ष का इतिहास’ के पृष्ठ संख्या 151 पर महाभारत के शांति पर्व ( 64 / 13 ) की साक्षी के आधार पर स्पष्ट किया है कि बहुत पुराने दिनों में यवन लोग भारत की उत्तर पश्चिमी सीमा पर रहते थे। कालांतर में वे वहीं से वर्तमान यूनानी या ग्रीस देश को गए । उनकी भाषा संस्कृत से ही निकली है ।आधुनिक भाषा विज्ञानियों ने इनकी स्थिति पूर्णतया नहीं समझी । सम्राट मांधाता के काल में भी यवन विद्यमान थे। महाभारत युद्ध में कशेरुक यवन को श्रीकृष्ण ने मारा था । जिसका उल्लेख सभा पर्व में आता है। युधिष्ठिर के सभा प्रवेश उत्सव में एक यवनाधिपति उपस्थित हुआ था । इसकी भी साक्षी महाभारत के सभा पर्व से ही हमें मिलती है। उसका विरोधी कंपन भी वहीं था। यवन लोग अश्वयुद्ध में बड़े कुशल थे।
इसके बाद हम देखते हैं कि यूनान के शासक सिकन्दर ने भी भारत पर आक्रमण किया । यद्यपि हम अन्य लोगों की भान्ति यवनों को भी मूल आर्यों की ही सन्तान मानते हैं । परन्तु उनके स्वभाव में भारत विरोध संभवत: प्रारम्भ से ही रहा । इसलिए मूल भारतीय संस्कृति के होते हुए भी अपनी ही मातृभूमि के प्रति विरोध का भाव होने से उन्हें तत्कालीन भारतीय समाज के लोगों ने अपना स्वीकार नहीं किया । यह प्रवृत्ति सामान्य रूप से आज भी लोगों में देखी जाती है कि अपने परिवार के ही उस व्यक्ति को लोग त्याग देते हैं जो अपना होकर भी घर परिवार के सम्मान के अनुसार काम नहीं करता है। यही कारण था कि भारतीय धर्म व संस्कृति को मिटाने के लिए कटिबद्ध रहे यवन लोगों ने जब सिकन्दर के नेतृत्व में भारत पर आक्रमण किया तो चाणक्य और चन्द्रगुप्त को भारत की सुरक्षा के लिए विशेष प्रबन्ध करने पड़े । जो लोग यह मानते हैं कि उस समय राष्ट्रीय चेतना का भारतवासियों में अभाव था , उन्हें चन्द्रगुप्त और चाणक्य की सुरक्षा नीति पर विचार करना चाहिए , जो उन्होंने यवनों से भारत को सुरक्षित करने के लिए उस समय अपनाई थी । उससे पता चलता है कि वे लोग यूनानियों को भारत विरोधी ही मानते थे । यवन लोगों की यह भारत विरोधी भावना ही धीरे-धीरे उन्हें हमसे दूर करती चली गई।
ज्ञात रहे कि महाभारत काल से लेकर सिकन्दर और उसके पश्चात कुषाण वंश के आने तक भी यूनानियों की भारत विरोध की यह भावना ज्यों की त्यों चली आ रही थी। यवन राजाओं के बारे में हमें पता चलता है कि अशोक के समय में यवनराज तुषास्फ उसका एक सामन्त था। शालिशूक मौर्य के काल में यवन राज धर्ममीत ने मगध पर आक्रमण किया था। इसके पश्चात पुष्यमित्र के समय में उसके पुत्र वसुमित्र ने सिन्धु तीर पर यवनों को परास्त किया । पुष्यमित्र का याज्ञीक पतंजलि मध्यमिका और साकेत पर भी किसी यवन आक्रमण का पता देता है। इन तथ्यों की जानकारी हमें पंडित भगवत दत्त सत्यश्रवा जी अपनी उपरोक्त पुस्तक के पृष्ठ संख्या 282 पर देते हैं।
कुल मिलाकर इन तथ्यों को यहाँ पर प्रस्तुत करने का हमारा उद्देश्य केवल यह है कि जब कुषाण शासक ने यूनानियों को परास्त कर बाह्लीक प्रान्त से दूर भगाया तो अपने परम्परागत शत्रुओं को इस प्रकार परास्त होते देखकर स्वाभाविक रूप से भारत के लोगों ने कुषाण शासक का अभिनन्दन किया।
यहाँ पर यह शंका करने की भी आवश्यकता नहीं है कि भारत के लोगों में उस समय राष्ट्रवाद की भावना नहीं थी और उस समय की परिस्थितियां ऐसी थीं कि जो भी कोई विदेशी आता था वह जहाँ चाहे अपना कब्जा कर सकता था । भारत के लोग उस ओर से पूर्णतया निरपेक्ष भाव अपनाते थे । इस प्रकार की शंका करने का हमने ऊपर ही समाधान कर दिया है कि जिस देश के लोग सिकन्दर के आक्रमण से सावधान होकर एक सफल रणनीति बना सकते हैं और सिकंदर के बाद के आक्रमणकारियों के विरुद्ध एकजुट होकर उनका मुकाबला कर सकते हैं ,उनके बारे में यह सोचना ही गलत है कि उनमें राष्ट्रवाद की भावना नहीं थी । यूनानियों को परास्त करने के उपररान्त यदि कुषाण शासक का अभिनन्दन हो रहा था तो केवल इसलिए कि वह मूल रूप में हिन्दू होने के कारण भारतीय संस्कृति और परम्परा के लिए संघर्ष करने वाले योद्धा के रूप में भारत से इन लोगों को भगाने का काम कर रहा था।
चीन के ऐतिहासिक ग्रन्थ होऊ हंशु के अनुसार कुषाणों के सरदार कुजुल कड़फिस ने बाह्लीक प्रदेश के दक्षिण में स्थित कपिशा और गंधार राज्यों को जीत लिया । पश्चिमी गान्धार से और आगे पश्चिम की ओर चलने पर हिन्दुकुश पर्वत के साथ का प्रदेश प्राचीन समय में ‘कपिश देश’ कहलाता था। इस देश के उत्तर-पश्चिम में आजकल बदख्शां और बल्ख हैं । जिन्हें प्राचीन काल में कम्बोज और वाह्लीक देश कहते थे। उस समय कपिशा एक बहुत ही प्रतिष्ठित राज्य के रूप में जाना जाता था । कपिशा की विजय से कुषाणों को बहुत अधिक सम्मान प्राप्त हुआ । भारत के तत्कालीन समाज के राष्ट्रवादी लोगों ने उनकी इस ऐतिहासिक जीत पर उनका स्वागत किया । कुजुल कड़फिस ने ‘कपिशा’ को अपने पुरुषार्थ और पराक्रम से खड़े किए जा रहे साम्राज्य की राजधानी बनाने का निर्णय लिया। उसने कुषाण शासक के रूप में यही से उसने अपना पहला सिक्का भी जारी किया था ।
कपिशा के बारे में यह भी एक तथ्य है कि कनिष्क यहाँ पर अपना ग्रीष्म काल व्यतीत करने के लिए आया करता था। यहाँ कुषाण शासकों का गर्मी ऋतु का महल तथा एक सुसज्जित बाज़ार था । कपिशा को शत्रुओं से संरक्षित करने के लिए ऊंची दीवारों से सुरक्षित किया गया था। कुषाण वंश के प्रसिद्ध सम्राट कनिष्क ने अपने शासनकाल ( 78 – 101 ई0 ) में जब कपिशा से अपनी राजधानी पेशावर स्थानान्तरित की तो उस समय तक उसका सम्पूर्ण विश्व की राजनीति में एक महत्वपूर्ण स्थान था । इस नगर की ऐतिहासिकता , प्रसिद्धि और इसके प्रति अपने स्वाभाविक लगाव को प्रदर्शित करने के लिए कनिष्क ने अपनी राजधानी पुरुषपुर (पेशावर ) बनाने के उपरान्त भी ग्रीष्मकालीन राजधानी कपिशा को ही बनाए रखा । ह्वेनसांग के ग्रन्थ सी यू की के अनुसार कनिष्क ने यहाँ पर अपने शत्रु देश चीन को पराजित कर उसके राजकुमारों को कपिशा के महल में बन्धक बना कर रखा था । ह्वेनसांग का चीन को कनिष्क का एक शत्रु देश बताना बहुत महत्वपूर्ण है। स्पष्ट है कि चीन के और कुषाण शासकों के सम्बन्ध अच्छे नहीं थे और चीन के तत्कालीन शासक कुषाण वंश के शासकों के बढ़ते प्रताप और पौरुष से आशंकित और आतंकित रहते थे ।यहाँ से कुषाण कालीन बेग्राम कोष की भी प्राप्ति हुई है।
कुजुलकडफिस के द्वारा जारी किए गए सिक्कों में एक हरमीयस नाम के यूनानी बैक्ट्रियन शासक का नाम भी मिलता है । विद्वानों का मानना है कि वह कुजुल के लम्बे संघर्षों में संभवत: उसका सहायक रहा। यही कारण है कि उसे सम्मान देने के लिए कुजुलकडफिस ने उसे अपने सिक्कों में स्थान दिया।
साम्राज्य का विस्तार होने के पश्चात कुजुलकडफिस की उपाधियां उसके सिक्कों में महरयस , राजतिरजस, देवपुत्रम , महरजस महतस कुषाण , कुजुल – कुश , महरयस , राजतिरजस , यवगुप्त आदि मिलती हैं। इन उपाधियों में कुजुल कुश नाम की उपाधि का विशेष महत्व है । कुश रामचन्द्र जी के पुत्र का नाम भी था और जैसा कि हम कुषाण वंश के प्रारम्भ में ही लिख आए हैं कि हिन्दू कुश से भी इस क्षेत्र का विशेष संबंध था। स्पष्ट है कि कुजुलकडफिस ने अपने आपको भारत के सूर्यवंशी क्षत्रिय शासकों की वंश परंपरा से ही जोड़ा और कुश प्रान्त में या हिन्दूकुश क्षेत्र में रामचंद्र जी के पुत्र कुश के साथ अपना सम्बन्ध स्थापित किया ।

कपिशा को पाकर सम्राट स्वयं भी गौरवान्वित होता था

कुजुल कडफिस के नाम में ‘कडफिस’ का भी एक विशेष महत्व है कुछ विद्वानों ने इसे इस शासक की उपाधि माना है ,जो उसके पौत्र विम कडफिस के समय तक यथावत रही। प्रथम शताब्दी के रोमन विद्वान प्लिनी की पुस्तक ‘नेचुरल हिस्ट्री’ का अनुवाद तैयार करने वाले विद्वान सोलिनुस ने ‘कपिशा’ को काफुसा लिखा है । कडफिस का खरोष्ठी रूप कप्शा इनकी राजधानी के नाम कपिशा के अत्यधिक निकट है। कपिशा या कडफिस को अपने लिए एक उपाधि के रूप में धारण करने से पता चलता है कि कुजुलकडफिस को कपिशा का शासक होने में बहुत ही गौरव की अनुभूति होती थी ।इससे भी पता चलता है कि उसने यूनानियों से कपिशा को प्राप्त कर सचमुच उस समय एक महान कार्य किया था । जिस पर वह स्वयं भी गौरवान्वित होता था। कपिशा पर अपने गौरवपूर्ण शासन को प्रदर्शित करने के लिए ही उसने यह उपाधि धारण की । लेवी के अनुसार ‘कड़फिसेस’ का अर्थ ‘कपिशा मैन’ है।कुजुल और विम के नाम में कडफिस कपिशा से सम्बंधित शब्द हैं, जिसका अर्थ ‘कपिशा का शासक’ हैं । यही कारण कि जब कनिष्क ने पुरुषपुर (पेशावर) को अपनी राजधानी बनाया तो उसने और उसके उत्तराधिकारियो ने परम्परगत कडफिस’ शब्द अपने नाम के साथ प्रयोग करना बन्द कर दिया ।
ऍफ़ डब्ल्यू थॉमस के अनुसार कुजुल वास्तव में गुशुर हैं । कुषाण काल में कुषाणों के राजसी वर्ग के लिए गुशुर शब्द के प्रयोग के उदहारण उपलब्ध हैं । कुजुलकडफिस के शासन काल में ही उसके अधीनस्थ क्षेत्रीय शासक सेनवर्मन के स्वात घाटी अभिलेख में ‘गुशुर’ शब्द का प्रयोग सेना के अधिकारियों के लिए किया गया हैं । ऍफ़ डब्ल्यू थॉमस के मत का समर्थन टी. बरो नामक विद्वान ने किया हैं ।भारत में कुषाण अध्ययन के विशेषज्ञ माने जाने वाले बी एन मुख़र्जी ने भी इस बात का समर्थन किया है कि कुजुल को वास्तव में गुशुर ही पढ़ा जाना चाहिए । विद्वानों की सम्मतियों का निष्कर्ष यही है कि कुजुल गुर्जर है ।

विम कडफिस

कुजुलकडफिस की मृत्यु के पश्चात सम्राट विमकडफिस ने सत्ता संभाली । इनका शासन 50 ई0 से 78 ई0 तक माना जाता है । इनके नाम में लगे विम शब्द को ओएम (ओ३म ) के साथ समन्वित करने का भी कुछ विद्वानों ने प्रयास किया है । विमकडफिस एक महान शासक था । जिसने अपने पिता से प्राप्त अपने साम्राज्य को चारों दिशाओं में विस्तार देने का प्रशंसनीय और सार्थक प्रयास किया । उसने यवन और शक राज्यों का अन्त कर दिया और बनारस तक के विस्तृत उत्तर भारतीय क्षेत्र को अपने साम्राज्य में विलीन करने में सफलता प्राप्त की। उस समय के शकद्वीप अर्थात मध्य एशिया में पड़ने वाले कई शक शासकों या क्षत्रपों को उसने परास्त कर अपने अधीन कर लिया । इस प्रकार शकद्वीप का शासक बनने में वह सफल हुआ।
शासक होकर साम्राज्य विस्तार करना भारत के आर्यों का विशेष गुण था । हमारे ऐसा कहने का अभिप्राय यह कदापि नहीं है कि आर्य लोग सत्तालोलुप होकर दूसरे लोगों पर जबरन अपना शासन थोपते थे और फिर वहाँ से ‘जजिया’ वसूलते थे या वहां के लोगों का नरसंहार कर उनके धन-संपत्ति को लूटना अपना व्यवसाय बनाते थे । इन सबके विपरीत आर्य लोग अपना साम्राज्य विस्तार एक ‘विश्व सरकार’ अर्थात चक्रवर्ती सम्राट के अधीन सम्पूर्ण भूमण्डल के लोगों को एक जैसा न्याय , एक जैसी शिक्षा , एक व्यवस्था और एक जैसी चिकित्सा प्रदान करने के लिए ऐसा करते थे । आज के वैश्विक क्लेश का कारण यह है कि आज संसार में अनेकों प्रकार की शिक्षा प्रणालियां हैं , अनेकों प्रकार की चिकित्सा प्रणालियां हैं , अनेकों प्रकार की व्यवस्थाएं हैं और अनेकों प्रकार से लोग न्याय देने का प्रयास करते हैं । इन विभिन्नताओं से विखण्डनवाद प्रोत्साहित होता है । यदि इन सबकी विभिन्नताओं को आज भी एक चक्रवर्ती सम्राट के अधीन लाकर काम करना आरम्भ कर दिया जाए और ऊपर बैठा हुआ वह चक्रवर्ती सम्राट सबके साथ समान नीति अपनाने लगे तो संसार का सारा क्लेश और कलह शान्त हो जाए ।
हमें अपने शासकों के विजय अभियानों को इसी दृष्टिकोण से देखना चाहिए कि वह ऐसा किसी देश को लूटने और उस ‘लूट के माल’ को अपने घर में भरने के लिए ऐसा नहीं कर रहे थे , बल्कि मानवता की रक्षा के लिए ऐसा करते थे । जिन लोगों ने दानवता का प्रचार प्रसार कर अपने राज्य विस्तार किए , इतिहास उनका गुणगान करने के लिए नहीं बनता है । इतिहास तो मानवता के रक्षक और प्रहरियों के लिए ही बना करता है । क्योंकि उनका उद्देश्य होता है कि उनके ऐसा करने से विषमता और विभिन्नताएं समाप्त होंगी और सब एक केन्द्र से संचालित होकर ‘एक’ के लिए ही अर्थात मानवता के लिए ही कार्य करने वाले बनेंगे ।
आर्य लोग अपना साम्राज्य विस्तार उन – उन क्षेत्रों में किया करते थे जहाँ पर अनार्य संस्कृति को बढ़ाने वाले शासक हुआ करते थे । इन्हीं को वह राक्षस का कहते थे । कहने का अभिप्राय है कि जो ‘एक’ में समन्वित न होकर अनेकता की बात करने वाले लोग होते थे , उनको आर्य लोग अपने अधीन करने का प्रयास करते थे । इसी परम्परा को हमारे शासकों ने अपनाने का सदा प्रयास किया । कुषाण लोग भी इसी परम्परा को आगे बढ़ाते हुए कार्य कर रहे थे । अतः विमकडफिस के विजय अभियानों का प्रयास भी हमें इसी दृष्टिकोण से देखना चाहिए । उसने अपने साम्राज्य विस्तार के लिए जब चीन की ओर आंखें तरेरीं तो वहाँ के शासक च्वांगती को पसीना आ गया। वह उसकी बढ़ती हुई शक्ति से विचलित हो उठा।
यद्यपि विमकडफिस को चीन में कोई विशेष सफलता प्राप्त नहीं हुई , परन्तु उसके उत्तराधिकारी बने कनिष्क ने अवश्य चीन को नानी याद दिला दी थी। जिस पर हम आगे यथा स्थान विचार करेंगे।
लम्बा कोट पहने हुए विमकडफिस के चित्र सहित कुछ सिक्का प्राप्त हुए हैं जिन पर यूनानी लिपि में अंकित है- “महाराजाधिराज विम कडफिसेस”। (ब्रितानी संग्रहालय) विमकडफिस को सिंहासन पर बैठा हुआ दिखाया गया है । मूर्ति के आधार पर स्थित शिलालेख पर विमकडफिस का नाम उत्कीर्णित है। ( मथुरा संग्रहालय )

विमकडफिस के सिक्के

सम्राट विमकडफिस ने अपने गुर्जर कुषाण साम्राज्य का विस्तार अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान तथा पश्चिमोत्तर भारत में किया। स्पष्ट है कि यह सारे क्षेत्र उस समय भारतवर्ष के अन्तर्गत ही आते थे । इसलिए पाठकों से हम फिर निवेदन करेंगे कि आज के इन देशों को उस समय का भारत का एक अंग मानते हुए कुषाण शासकों के शासन को भारत भूमि पर ही स्थित माना जाए । इतिहास का अध्ययन करते समय हमें देश की तत्कालीन भौगोलिक और राजनीतिक परिस्थितियों का मानचित्र अपने मस्तिष्क में अवश्य बनाकर चलना चाहिए । उससे तथ्यों को स्पष्ट करने और स्पष्ट रूप से समझने में बहुत सुविधा अनुभव होती है । इस शासक के बारे में यह भी एक तथ्य और सत्य है कि वह स्वर्ण मुद्रा का प्रचलन करवाने वाला प्रथम कुषाण शासक था। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि उसके राजकोष की स्थिति पहले से अच्छी बन गई थी , तभी उसने अपनी मुद्राओं को सोने की बनाने का प्रयास किया । यद्यपि उसने पहले से प्रचलित ताँबे तथा चाँदी की मुद्राओं को भी पूर्ववत जारी रखा।
सम्राट विम के द्वारा बनाए गए सोने के सिक्कों में एक ओर हवन कुंड और दूसरी ओर भगवान शिव की मूर्ति लगाई गई है , तो किसी में एक और हवन कुंड व दूसरी ओर मुकुट शिरस्त्राणधारी सम्राट की मूर्ति तथा किसी में एक ओर शिव नंदी और दूसरी ओर सम्राट की मूर्ति मिली है । सिक्कों में सम्राट विमकडफिस की उपाधियां मेहरजस , राजाधिरजस ,सर्व लोग , ईश्वरस महीश्वरस , विमकडपियस तथा माहेश्वरस , वसीलेउस वेसिलियोन अर्थात राजाओं का राजा आदि लिखा मिला है।
हमें यहाँ पर यह ध्यान देना चाहिए कि सम्राट विमकडफिस के द्वारा बनाए गए सोने के सिक्कों पर हवनकुण्ड का मिलना और उसमें ईश्वर , महेश्वर जैसे शब्दों का प्रयोग करना या राजाधिराज जैसे शब्द को अपनी लिपि या भाषा शैली में प्रयुक्त करना यह सब के सब भारत की आर्य राजाओं की परम्परा की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करते हैं। जहाँ तक इन शब्दों से किसी नए धर्म का अस्तित्व प्रमाणित होने की बात का प्रश्न है तो हम उस पर यही कहना चाहेंगे कि उस समय भारत में मूर्ति पूजा बुद्ध धर्म के कारण प्रचलित हो चुकी थी । इसलिए यदि उन्होंने अपने सिक्कों में किसी प्रकार की मूर्ति का ही विधान कर दिया है तो इससे उसका वैदिक धर्मानुयायी होने पर प्रश्नचिन्ह नहीं लग जाता । आज भी ऐसे अनेकों लोग हैं जो मूर्तिपूजक होकर भी वैदिक धर्म में आस्था रखते हैं। वेद के सिद्धांतों को सर्वोपरि मानते हैं । यह अलग बात है कि कुछ लोग उन्हें वैदिक सिद्धांतों की व्याख्या गलत करके पढ़ाने और समझाने का या उन्हें भ्रमित करने का प्रयास करते हैं। कहने का अभिप्राय है कि इन तथ्यों पर विचार करते हुए सम्राट विमकडफिस का भारतीय होना और भारतीय धर्म व संस्कृति के प्रति अनुरागी होना दोनों ही स्पष्ट होते हैं।

व्यापारिक सम्बन्ध

कुषाणकालीन विश्व राजनीतिक मानचित्र पर यदि दृष्टिपात करें तो पता चलता है कि चीन में उस समय का हान राजवंश का शासन था । इस राजवंश का  मध्य एशिया और अलेक्जेंड्रिया और पश्चिम में एंटीऑक के बीच व्यापार का केन्द्र रहा। आर्यो के विश्व साम्राज्य के समय भारत के महान शासकों ने सम्पूर्ण भूमण्डल के प्रदेशों ( आर्यों के साम्राज्य के मरने के समय यह प्रदेश ही देश कहे जाने लगे ) के मध्य व्यापार स्थापित करने के लिए कई मार्गों का निर्माण किया था । उनमें एक वह मार्ग भी था जिसे हम चीन के लिए रेशम मार्ग के नाम से इतिहास में जानते हैं। कुषाण चीन, भारत और पश्चिम के बीच जाने के लिए इस रेशम मार्ग को बनाए रखने और संरक्षित करने में सक्षम थे । जिससे होकर रेशम, मसालों, कपड़ा या दवा का व्यापार होता था ।
रेशम मार्ग प्राचीनकाल और मध्यकाल में ऐतिहासिक व्यापारिक-सांस्कृतिक मार्गों का एक समूह था जिसके माध्यम से हमारे देश के लोग  एशिया, यूरोप और अफ्रीका जुड़े हुए थे। इसका सबसे जाना-माना भाग उत्तरी रेशम मार्ग है जो चीन से होकर पश्चिम की ओर पहले मध्य एशिया में और फिर यूरोप में जाता था और जिससे निकलती एक शाखा भारत की ओर जाती थी। रेशम मार्ग का जमीनी हिस्सा 6500 किमी लम्बा था और इसका नाम चीन के रेशम के नाम पर पड़ा जिसका व्यापार इस मार्ग की मुख्य विशेषता थी। इसके माध्यम मध्य एशिया, यूरोप, भारत और ईरान में चीन के हान राजवंश काल में पहुँचना आरम्भ हुआ।
यह मार्ग उस समय भी था जिस समय ईसाइयत और इस्लाम का कहीं दूर – दूर तक नामोनिशान नहीं था। कुषाण कालीन भारत और विश्व में उस समय आर्यों की सभ्यता ही प्रमुख थी। स्पष्ट है कि रेशम मार्ग के निर्माण में आर्यों का विशेष योगदान रहा , परन्तु हमें इतिहास में कुछ इस प्रकार पढ़ाया व समझाया जाता है कि जैसे इस मार्ग से भारत के आर्यों का कोई सम्बन्ध नहीं था। इतिहास के वर्णन से हम स्वयं दिग्भ्रमित होकर ऐसा मान लेते हैं कि जैसे रेशम मार्ग से चीन और दूसरे देशों का ही सम्बन्ध था , हमारे पूर्वजों का इसमें कोई योगदान नहीं था।
रेशम मार्ग का चीन, भारत, मिस्र, ईरान, अरब और प्राचीन रोम की महान सभ्यताओं के विकास पर गहरा प्रभाव पड़ा। वस्तुतः यह सारी सभ्यताएं आर्य सभ्यता का ही उच्छिष्टभोजन मात्र हैं । इस मार्ग के द्वारा व्यापार के अतिरिक्त, ज्ञान, धर्म, संस्कृति, भाषाएँ, विचारधाराएँ, भिक्षु, तीर्थयात्री, सैनिक, घूमन्तु जातियाँ, और बीमारियाँ भी फैलीं। भारत के तक्षशिला में शिक्षा ग्रहण करने के लिए भी दूरस्थ प्रदेशों के लोगों ने इसी मार्ग का प्रयोग किया होगा। इस प्रकार हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि यह मार्ग केवल व्यापारिक मार्ग ही नहीं था , बल्कि भारत की शिक्षा को देश-विदेश में फैलाने का भी एक अच्छा उपयोगी माध्यम था। व्यापारिक दृष्टि से चीन रेशम, चाय और चीनी मिटटी के बर्तन भेजता था, भारत मसाले, हाथीदांत, कपड़े, काली मिर्च और कीमती पत्थर भेजता था और रोम से सोना, चांदी, शीशे की वस्तुएँ, शराब, कालीन और आभूषण आते थे। अधिकतर व्यापारी इसके भागों में एक शहर से दूसरे शहर सामान पहुँचाकर अन्य व्यापारियों को बेच देते थे और इस प्रकार सामान हाथ बदल-बदलकर हजारों मील दूर तक चला जाता था। आरम्भ में रेशम मार्ग पर व्यापारी अधिकतर भारतीय और बैक्ट्रियाई थे, फिर सोग़दाई हुए और मध्यकाल में ईरानी और अरब अधिक थे। रेशम मार्ग से समुदायों के मिश्रण भी पैदा हुए, मसलन तारिम द्रोणी में बैक्ट्रियाई, भारतीय और सोग़दाई लोगों के मिश्रण के प्रमाण मिले हैं।
प्राचीन काल में हमारे व्यापारी प्रकृति के लोग इस मार्ग के आसपास अपने क्षेत्र में आबादियों वैसे ही विकसित कर लेते थे जैसे आजकल व्यापारी वर्ग के लोग विदेशों में अपने मकान खरीद लेते हैं। स्पष्ट है कि व्यापारी लोग ऐसा अपने व्यापार की सुविधा के लिए करते रहे हैं । विदेशों में स्थित अपने आवासीय क्षेत्रों में व्यापारी लोग अपने सामान को रख लेते थे जिसे अगले व्यापारी को वहाँ से लेने में सुविधा भी होती थी। कुषाण वंश शासक विमदेव या विमकडफिस ने इस रेशम मार्ग को फिर से अपने नियंत्रण में लिया।
हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि हमारे पूर्वजों के द्वारा ही चीन को धर्म की दृष्टि मिली थी । कवि की यह पंक्तियां बहुत ही सार्थक हैं :–

यवन को दिया दया का दान
चीन को मिली धर्म की दृष्टि ।
मिला था स्वर्ण भूमि को रतन
शील की सिंहल में भी सृष्टि ।।

बात स्पष्ट है कि हमारे पूर्वज उस समय हाथ पर हाथ रखे नहीं बैठे थे, अपितु सारे संसार का मार्गदर्शन कर रहे थे । जब यह सत्य है कि भारत विश्वगुरु रहा है और उसने सारे संसार का मार्गदर्शन किया है तो हमें इतिहास के लेखन के समय रेशम मार्ग पर तो विचार करना ही चाहिए साथ ही उस समय के हमारे पूर्वजों की सोच और उनके किए गए महान कार्यों पर भी दृष्टिपात कर लेना चाहिए । यूं ही किसी भी चीज को दूसरे विदेशियों को परोसना या उनके हाथों में सौंप देना मूर्खता होगी । अतः यह देखना आवश्यक है कि जिस काल का वर्णन हम कर रहे हैं उस पर हमारे पूर्वजों की क्या छाप थी ?

विमकडफिस के काल का ताँबे का सिक्का

जहाजों द्वारा रोमन साम्राज्य को सोने के सिक्कों के बदले सामान भेजा जाता था तथा यूनानी शराब और दासों का आयात होता था। कलात्मक वस्तुओं का भी सभी दिशाओं से आयात होता था जैसा कि अफ़ग़ानिस्तान के बगराम, जो कि कुषाणों की ग्रीष्मकालीन राजधानी थी, में पाई गई कलाकृतियों की विविधता और गुणवत्ता से संकेत मिलता है।
रोमन इतिहास के अनुसार ट्राजन (98-117 सी.ई.) के दरबार में भारतीय राजाओं द्वारा राजदूतों के हाथों उपहार और यूनानी भाषा में पत्र भेजे गये थे, जिन्हें विम कडफिस अथवा उसके पुत्र कनिष्क द्वारा भेजा गया था। विम के अधिकांश सिक्कों के पृष्ठ भाग में बौद्ध धर्म के प्रमुख अंग त्रिरत्न अथवा हिंदू धर्म के देवता शिव को उनके वाहन नंदी(बैल) के साथ चित्रित किया गया है। कुछ सिक्कों में शिव को एक त्रिशूल के साथ चित्रित किया गया है। अन्य कुषाण शासकों के साथ विमकडफिस का संबंध रबातक शिलालेख में वर्णित है, जिसे कनिष्क ने स्वयम् लिखा था। कनिष्क ने उन राजाओं की सूची बनाई है जिन्होंने उसके समय तक शासन किया: उसके प्रपितामह कुजुल कडफिस, उसके पितामह विम ताक्तू, तथा उसके पिता विमकडफिस तथा कनिष्क स्वयम्।

डॉ राकेश कुमार आर्य

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