
—–विनय कुमार विनायक
ईश्वर तेरे सारे नाम
बारूद-डायनामाइट सा
विस्फोटक हो चुके!
कैसे पुकारुं?
हफियाते-उबासते,
जब कभी निकल पड़ता
तुम्हारा कोई संबोधन तब
हड़बड़ाए ताकता हूं आजू-बाजू
कहीं उसने तो नहीं सुन लिया,
वर्ना मारा जाऊंगा जब झुटपुटे
अंधियारे में गुजरूंगा
उसकी गली से!
हे राम!
तुम्हारे सारे नाम
सराबोर हो चुके हैं
मिसाइली दुर्गंध से!
ब्रह्म; पुरातन भ्रम!
ईश्वर; आज का बवंडर!
अल्लाह; आग सा शोला!
गॉड; पश्चिमी रंगभेदी लार्ड!
क्या कहूं जय श्री राम!
साम्प्रदायिकता की पहचान!
क्या कहूं अल्लाह हो अकबर!
ठहर गया शहर, खुदा की इबादत
के नाम पर बंद हो गया दफ्तर!
जय बजरंग! कुएं में घुल गया भंग,
हर-हर शंकर! हाईली इनफ्लेमेबुल
पेट्रोलियम गैस का टंकर!
हे ईश्वर!
तुम्हारे नाम सा मारक
तुम्हारा एक काम भी, तुमने
क्यों पैदा किया पचास फीसदी
इंसानी गालों में फसादी फसल,
झाड़-झंखाड़ की तरह?
प्रारंभ में कुछ ने तुम्हारे भरोसे
जब छोड़ दिया था उसे उगाकर
बन गए इंसानों में बड़े ऋषि-मुनि!
बाद की पीढ़ी ने जब साफ कर दी,
बन गई सवर्ण जाति चिकनी चुपड़ी!
फिर बांधकर बाएं-दाएं कंधे से
कमर तक कपास की डोर
बन गई जाति अगड़ी!
कुछ ने कुछ हद तक तराशकर
बाएं-दाएं सजाया फसादी फसल,
जब बकरों सा, भुट्टों जैसा,
बनी उसकी अलग पहचान
हिरणों बीच ऊंटों सा!
कुछ ने काट-छांटकर
बनाया पेंच खाती सड़क,
ईसा के इंसानों ने अपनाया
मार्क्स-लेनिन-लिंकन सा
रोबीला-तड़क-भड़क!
हे राम! हे भगवान!
कैसे बचे बिना स्कूल वाले
इन भिन्न-भिन्न स्कूल वालों से।
—–विनय कुमार विनायक