इस सृष्टि को उत्पन्न कर इसका पालन तथा प्रलय करने वाला ईश्वर है

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-मनमोहन कुमार आर्य

आजकल अग्रेजी शिक्षा पद्धति से पढ़े लिखे लोग प्रायः ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते। एक दिलन हम अपने एक वैज्ञानिक मित्र से बातचीत कर रहे थे तो पता चला कि वह न ईश्वर को मानते हैं और न ही पुनर्जन्म के सिद्धान्त को और न ही ईश्वर की कर्मफल व्यवस्था को। उन्होंने यहां तक कहा कि इस पर विचार करना व अध्ययन करना उनकी दृष्टि में समय का सदुपयोग नहीं अपितु अनावश्यक कार्य है। हमने उनके सामने अपने विचार रखे परन्तु वह उन पर विचार करने के लिए सहमत नहीं हुए। हमें लगता है कि नास्तिकता का कारण हमारी वर्तमान की वैदिक शिक्षाओं से रहित अन्य सभी प्रकार की शिक्षा पद्धतियां हैं जिसमें पढ़कर लोग अच्छी नौकरी व व्यवसाय को प्राप्त कर लेते हैं। इससे उनका जीवन भौतिक पदार्थों के उपभोग से युवावस्था व वृद्धावस्था के आरम्भिक वर्षों में सुखपूर्वक व्यतीत होता है। अपनी अविद्या एवं अनुभव पर वह ईश्वर, आत्मा और कर्म फल व्यवस्था आदि को निरर्थक व प्राचीन लोगों का बुद्धि विलास समझते हैं। इस कारण हमें लगा कि हम आज थोड़ी सी चर्चा इसी विषय की कर लेते हैं।

 

आर्यसमाज त्रैतवाद के सिद्धान्त को मानता है। त्रैतवाद का अर्थ संसार में तीन अनादि सत्ताओं का अस्तित्व होना है। यह तीन पदार्थ ईश्वर, जीव व प्रकृति हैं। अनादि होने के कारण यह तीनों सत्तायें अनन्त हैं अर्थात् अन्त को प्राप्त न होने वाली हैं। अन्त उसी पदार्थ का होता है जिसका आदि हो अर्थात् जन्म हुआ हो। यह भी ज्ञातव्य है कि भाव से ही भाव की उत्पत्ति होती है। अभाव से किसी पदार्थ व सत्ता की उत्पत्ति व आविर्भाव नहीं हो सकता। भाव का अभाव भी नहीं हो सकता और न ही अभाव से भाव उत्पन्न हो सकता है। भाव का अर्थ है किसी पदार्थ की सत्ता का होना। जिस पदार्थ की सत्ता किसी भी रूप में क्यों न हो, वह नाश अर्थात् अभाव को प्राप्त नहीं होती। विज्ञान का नियम भी है कि शून्य अर्थात् अभाव से किसी पदार्थ को नहीं बनाया जा सकता। जिस पदार्थ की सत्ता है वह हमेशा रहेगी, उसका रूप बदल सकता है। जल से वाष्प बन कर रूप परिवर्तन होता है परन्तु वाष्प के रूप में भी जल विद्यमान रहता है। हम किसी वस्तु को जलाते हैं तो वह अदृश्य हो जाता है परन्तु ऐसा होने पर भी वह नष्ट या अभाव को प्राप्त नहीं होता अपितु वह छोटे सूक्ष्म कणों वा अणुओं आदि में विसृजित हो जाता है। इसी प्रकार ईश्वर, जीव व प्रकृति यह तीन अनादि सत्तायें हैं। यह कभी उत्पन्न नहीं हुई हैं अपितु सदा से हैं और सदा रहेंगी। इनका कभी नाश व अभाव नहीं होगा।

 

ईश्वर एक ज्ञानस्वरूप, सर्वज्ञ, चेतन, सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान व आनन्दस्वरूप सत्ता है। यह संसार के सभी पदार्थों में सर्वातिसूक्ष्म है। अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण ही यह आंखों से दिखाई नहीं देती। ईश्वर ही नहीं संसार में अनेक ऐसे पदार्थ हैं जो सूक्ष्म हैं और आंखों से दिखाई नहीं देते। जल को गर्म करने पर वह भाप में बदल जाता है। वायु व आकाश में विद्यमान रहने पर भी वह आंखों से दिखाई नहीं देता परन्तु उसका अस्तित्व रहता है। इसी प्रकार से अनेक गैसों के अणु भी आकाश में होते हैं परन्तु आंखों से दिखाई नहीं देते। अतः ईश्वर के दिखाई न देने से ईश्वर का अस्तित्व का न होना सिद्ध नहीं होता। दूसरा कारण यह भी कहा जाता है कि जहां एक वस्तु होती हैं वहां दूसरी वस्तु नहीं रह सकती। यदि संसार में ईश्वर है और वह सर्वव्यापक है तो फिर संसार में जहां जहां ईश्वर है वहां कोई अन्य सत्तावान पदार्थ नहीं रह सकता। ईश्वर व आकाश दो पदार्थ हैं, यह एक साथ एक ही स्थान पर कैसे रह सकते हैं। यह प्रश्न पंडित लेखराम जी ने अजमेर में ऋषि दयानन्द जी से पूछा था और ऋषि जी ने इसका उत्तर भी दिया था। पं. लेखराम जी का प्रश्न था कि कि आकाश और ईश्वर दोनों सत्तायें सर्वव्यापक हैं। अतः यह दोनों सत्तायें एक साथ एक ही स्थान पर कैसे रह सकती हैं? ऋषि दयानन्द जी ने इसका उत्तर देते हुए एक पत्थर उठाकर पं. लेखराम जी को दिखाया और कहा कि जिस प्रकार इसमें अग्नि, मिट्टी और परमात्मा तीनों व्यापक हैं, इसी प्रकार से ईश्वर व आकाश भी परस्पर साथ रह सकते हैं। उन्होंने कहा था कि जो वस्तु जिससे सूक्ष्म होगी वह उस वस्तु में व्यापक हो सकेगी। इस उत्तर को सुनकर पं. लेखराम जी को बड़ा आनन्द हुआ था, ऐसा पंडित जी ने लिखा है। ऋषि ने यह जो उत्तर दिया है, इसका आर्य विद्वानों को स्पष्टीकरण करना चाहिये जिससे वर्तमान के शिक्षित लोग जो पं. लेखराम जी वाली शंका करते हैं उन्हें विस्तार से समझाया जा सके।

 

संसार में ईश्वर है वह इस बात से भी स्पष्ट है कि यह संसार बुद्धिपूर्वक बनाया गया है। इस संसार को जिसने भी रचा है वह ज्ञान का भण्डार है अर्थात् उसमें ज्ञान की पराकाष्ठा है। इसी गुण के कारण उसका नाम सर्वज्ञ कहा जाता है। मनुष्य इस संसार में सूर्य, चन्द्र, पृथिवी, ग्रह, उपग्रह, लोक व लोकान्तर की रचना नहीं कर सकते। इसलिए यह सृष्टि अपौरूषेय है। अपौरूषेय रचनायें वह रचनायें व कार्य होते हैं जिन्हें मनुष्य या मनुष्य समूह मिलकर भीनहीं कर सकते। ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश में लिखा है कि रचना विशेष को देखकर इसके रचयिता का ज्ञान होता है। सूर्य, चन्द्र, पृथिवी व लोक लोकान्तर आदि भी रचना विशेष हैं। पृथिवीस्थ पदार्श अग्नि, जल, वायु, आकाश भी रचना विशेष हैं। यह पदार्थ इनके रचयिता ईश्वर का बोध कराते हैं। यह बोध ही ईश्वर का प्रत्यक्ष ज्ञान भी है। यदि ईश्वर न होता और वह मूल सूक्ष्म त्रिगुणात्मक सत्, रज व तम गुणों वाली प्रकृति से सृष्टि की रचना न करता तो यह ब्रह्माण्ड वा संसार अस्तित्व में कैसे आता? संसार का अस्तित्व इस बात का प्रमाण है कि ईश्वर है और पदार्थों के रचना विशेष आदि गुणों से उसका प्रत्यक्ष ज्ञान होता है। इसी क्रम में हम यह भी विचार कर सकते हैं कि हम जो पदार्थ देखते हैं उनके गुणों से ही उनको जानते व मानते हैं। गुणी गुणों से भिन्न होता है। संसार में पदार्थों के गुणों का ही प्रत्यक्ष अनुभव होता है गुणी का नहीं। इसी प्रकार से संसार में सृष्टि की विशिष्ट रचना व पदार्थों के गुणों को देखकर ही गुणी रचयिता परमात्मा का ज्ञान होता है। ऋषि दयानन्द जी ने सत्यार्थप्रकाश के अन्तर्गत ‘स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाश’ में ईश्वर विषयक अपनी मान्यता को प्रकट किया है। वह लिखते हैं कि जिस ईश्वर के परामात्मादि नाम हैं, जो सच्चिदानन्दादि लक्षणयुक्त है, जिसके गुण, कर्म, स्वभाव पवित्र हैं। जो सर्वज्ञ निराकार, सर्वव्यापक, अजन्मा, अनन्त, सर्वशक्तिमान्, दयालु, न्यायकारी, सब सृष्टि का कर्त्ता, धर्त्ता, हर्त्ता, सब जीवों को कर्मानुसार सत्य न्याय से फलदाता आदि लक्षणयुक्त है, उसी को परमेश्वर वा ईश्वर वह मानते हैं।

 

जीवात्मा के विषय में ऋषि दयानन्द ने लिखा है कि जो इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख और ज्ञानादि गुणयुक्त अल्पज्ञ नित्य है उसी को ‘जीव’ मानता हूं। वह यह भी लिखते हैं कि जीव और ईश्वर स्वरूप और वैधर्म्य से भिन्न (पृथक) और व्याप्य-व्यापक और साधर्म्य से अभिन्न (एक) हैं अर्थात् जैसे आकाश से मूर्तिमान् द्रव्य कभी भिन्न न था, न है, न होगा और कभी एक था, न है, न होगा इसी प्रकार परमेश्वर और जीव को व्याप्य-व्यापक, उपास्य-उपासक और पिता-पुत्र आदि सम्बन्धयुक्त मानता हूं। जीव सत्य, चेतन, आनन्द से रहित, सुख व आनन्द का आकांक्षी, अनादि, अनुत्पन्न, एकदेशी, ससीम, अविनाशी, जन्म-मरण धर्मा, कर्मों का करता व उनका फल भोक्ता, बन्ध व मोक्ष में पड़ने व जाने वाला, ईश्वरीय व्यवस्था से कर्मानुसार अनेक योनियों में जन्म ग्रहण वा धारण करने वाला पदार्थ भी है। जीव के विषयक में हमें यह ज्ञान भी प्रत्यक्ष व निर्भ्रान्त उपलब्ध होता है। हम अनुभव करते हैं कि कोई व्यक्ति इसे अस्वीकार नहीं कर सकता। इसलिए जीव का ईश्वर से पृथक अस्तित्व सिद्ध है जो जड़ प्रकृति से भी पृथक व भिन्न है। यदि कोई शिक्षित बुद्धिजीवी आत्मा को पृथक तत्व व सत्ता स्वीकार नहीं करता और इसे भौतिक जड़ पदार्थों से उत्पन्न व नाशवान मानता है तो उसके अपनी मान्यता के पक्ष में प्रमाण प्रस्तुत करना चाहिये। हम समझते हैं कि ऐसा कोई प्रमाण किसी के पास नहीं है। अतः ऋषि दयानन्द जी की वेदों पर आधारित मान्यता ही सत्य है जिसका उल्लेख हमने आरम्भ में किया है।

 

ऋषि दयानन्द प्रकृति को ईश्वर व जीव से भिन्न तीसरा अनादि व नित्य पदार्थ स्वीकार करते हैं। वह इसे जगत का उपादान कारण मानते हैं। वह कहते हैं कि प्रकृति के नित्य पदार्थ होने से इसके गुण, कर्म व स्वभाव भी नित्य हैं। वह आगे लिखते हैं कि जो संयोग से द्रव्य, गुण व कर्म उत्पन्न होते हैं वे वियोग के पश्चात नहीं रहते परन्तु जिस से प्रथम संयोग होता है वह सामर्थ्य उन में अनादि है और उस से पुनरपि संयोग होगा तथा वियोग भी। इन तीनों को प्रवाह से अनादि होना उन्हें स्वीकार है। उनके अनुसार यह सृष्टि व जगत् प्रवाह से अनादि है अर्थात् इसका कभी आरम्भ नहीं हुआ है। संसार में सृष्टि की उत्पत्ति, पालन व प्रलय का क्रम चलता रहता है और अनन्त काल तक चलता रहेगा। इसका कभी अन्त व समाप्ति नहीं होगी। यह विचार व मान्यता भी ऋषि की सामाजिक व वैज्ञानिक जगत को बहुत बड़ी देन है। ऋषि जी ने यह भी बताया है कि सृष्टि उसको कहते हैं कि जो पृथक द्रव्यों का ज्ञान व युक्तिपूर्वक मेल होकर नाना रूप बनना।

 

अनेक शिक्षित एवं आधुनिक जीवन व्यतीत करने वाले लोग सृष्टि के प्रयोजन को लेकर भी भ्रमित हैं। इसका उत्तर ऋषि ने यह कहकर दिया है कि सृष्टि का प्रयोजन यही है कि जिसमें ईश्वर के सृष्टि निमित्त गुण, कर्म, स्वभाव का साफल्य होना। जैसे किसी ने किसी से पूछा कि नेत्र किस लिये है? उसने कहा देखने के लिये। वैसे ही सृष्टि करने के ईश्वर के सामर्थ्य की सफलता सृष्टि करने में है और जीवों के कर्मों का यथावत् भोग कराना आदि भी। सृष्टि की रचना के प्रयोजन का यह सिद्धान्त भी हमें तर्क व युक्तिपूर्ण लगता है जिसका अन्य कोई समाधान शायद किसी के पास नहीं है।

 

इस लेख में हमने तीन अनादि व नित्य पदार्थों ईश्वर, जीव व प्रकृति पर संक्षिप्त प्रकाश डाला है। सृष्टि का प्रयोजन भी बताया है। मनुष्य जन्म पूर्व जन्म में पाप व पुण्य अथवा शुभ व अशुभ कर्मों के आधार पर होता है। यदि मनुष्य के पुण्य या शुभ कर्म आधे से अधिक होते है ंतो मनुष्य जन्म मिलता है जो कि उभय योनि होती है। उभय योनि वह होती है जिसमें पुण्य-पाप कर्मों के फलों को भोगा जाता है और नये पाप-पुण्य कर्म किये भी जाते हैं। पाप व अशुभ कर्म अधिक होने पर जीवात्मा का मनुष्येतर योनियों पशु, पक्षी आदि में जन्म होता है। मनुष्य के जहां अनेक कर्तव्य हैं वहीं ईश्वर के सर्वाधिक उपकारों के लिए मनुष्य का ईश्वरोपासना करना मुख्य कर्तव्य है। जो नहीं करते वह कृतघ्न होते हैं। यज्ञ आदि श्रेष्ठ कर्म भी सभी मनुष्यों को करने चाहिये जिससे आत्मा व सामाजिक उन्नति होती है। अन्य सभी कर्तव्यों का भी मनुष्यों को पालन करना चाहिये। यदि मनुष्य को सच्चा वैराग्य हो और वह वैदिक रीति से ईश्वरोपासना, यज्ञ एवं योगाभ्यास आदि करता है तो वह मोक्ष की ओर बढ़ता है। ऐसा न करने पर उसकी मोक्ष से दूरी बढ़ती है और वह कर्म फल बन्धनों आदि में फंस कर अपने वर्तमान व भावी जीवन को बिगाड़ लेता है। राम, कृष्ण सहित ऋषि दयानन्द जी का जीवन आदर्श जीवन है। हमें उनका अनुकरण करना चाहिये। उसी में जीवन की सफलता है। जीवन की सफलता के लिए सभी को वेदों के भाष्य व सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ का अध्ययन भी करना चाहिये। इति ओ३म् शम्।

 

 

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