सभी प्रकार की विपत्तियों में ईश्वर हमारा रक्षक है

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मनमोहन कुमार आर्य

ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, सर्वरक्षक, दयालु और न्यायकारी है। जो मनुष्य विद्वान होता है वह अज्ञान व अविद्या को पसन्द नहीं करता। उसके सम्पर्क में जो भी अशिक्षित वा अज्ञानी व्यक्ति आता है, वह उसका अज्ञान दूर करने का प्रयास करता है। सृष्टि के आरम्भ काल से ही यह परम्परा रही है कि विद्वान अविद्वानों को ज्ञान देते रहे हैं। इसी प्रकार से बलवान व्यक्ति वह होता है कि जो निर्बलों पर अत्याचार के समय उनकी रक्षा व सहायता करे। इतिहास में ऐसे भी उदाहरण मिलते हैं कि जब कोई राजा या मनुष्य किसी अधार्मिक राजा व व्यक्ति के अत्याचार से पीड़ित हुआ तो वह अपने से अधिक बलशाली व्यक्ति के पास सहायता के लिए पहुंचा और उसे सहायता मिली। नीति ग्रन्थों में भी विधान है कि कमजोर राजा बलवान धार्मिक राजाओं से मैत्री व सन्धि कर लें जिससे दुष्ट व अन्यायकारी राजा उन्हें पीड़ित न कर सकें। ईश्वर धार्मिक स्वभाव सहित सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ एवं सर्वव्यापक सत्ता है। सृष्टि के आरम्भ में अज्ञान को दूर करने के लिए उसने वेदों का ज्ञान दिया था। आज 1.96 अरब वर्ष बाद भी वेद ज्ञान हमें सुलभ है। यह दायित्व हम पर है कि हम वेद ज्ञान से कितना लाभ उठाते हैं। ईश्वर सर्वशक्तिमान और न्यायकारी भी है। अतः वह किसी मनुष्य का किसी मनुष्य पर अत्याचार करना पसन्द नहीं कर सकता। यदि कोई ऐसा करता है तो ईश्वर की सहानुभूति और सहायता पीड़ित मनुष्य के प्रति ही होगी, ऐसा विदित होता है। हमें अन्यायकारियों व दुष्टों के अत्याचार से बचने के लिए स्वयं संगठित होना चाहिये जिससे किसी दुष्ट के अत्याचार करने पर अपने संगठन के द्वारा उसे सबक सिखा सके। अत्याचार से बचने का साधन न हों तो सरकारी पुलिस आदि की सहायता भी ली जा सकती है। यदि निर्बल व अन्य कारणों से उनसे सहायता न मिले तो दुष्टों का स्थान छोड़कर दूर चले जाना चाहिये और अपने ज्ञान व शक्ति को बढ़ाना चाहिये जिससे ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो।

 

एक प्रश्न यह उपस्थित होता है कि ईश्वर कैसे व किस प्रकार से प्राणियों की रक्षा करता है? हम देखते हैं कि लोग अपने स्वाद व भोजन के लिए निर्दोष पशुओं का वध करते व कराते हैं। यह अमानवीय कार्य है। ईश्वर को इसे रोकना चाहिये परन्तु वह ऐसा नहीं करता, ऐसा हम सबका प्रत्यक्ष अनुभव है। ऋषि दयानन्द ने गोकरुणानिधि पुस्तक में ईश्वर द्वारा निरपराध गौओं की गोहत्यारों से रक्षा न करने पर ईश्वर के प्रति कठोर शब्दों का प्रयोग किया है। इस पर भी वह पूर्ण आस्तिक बने रहे। इसका यह अर्थ हुआ कि सर्वशक्तिमान, दयालु व न्यायकारी होने पर भी ईश्वर कुछ परिस्थितियों में निरपराध पशुओं व मनुष्यों की रक्षा नहीं करता है। विचार करने पर प्रतीत होता है कि इसके अनेक कारण हो सकते हैं। हम जानते हैं कि जीवात्मा कर्म करने में स्वतन्त्र और फल भोगने में परतन्त्र है। सम्भवतः इसी कारण ईश्वर हत्यारों को अनुचित रूप से मनुष्यों व पशुओं के प्रति हिंसा करने पर पूर्ण रूप से रोकता नहीं है। मनुष्य जब पहली बार अपने मन में कोई हिंसा आदि का बुरा विचार लाता है तो उसके मन व आत्मा में भय, शंका व लज्जा उत्पन्न होती है। अच्छे विचार लाता है तो मन में प्रसन्नता व उत्साह पैदा होता है। यह प्रेरणा ईश्वर की ओर से ही होती है और यह ईश्वर की सर्वव्यापकता और अस्तित्व का प्रमाण भी है। इस पर भी मनुष्य व हिंसक प्राणी ईश्वर की प्रेरणाओं को अनसुना कर देते हैं तो ईश्वर के पास उन्हें कर्मदण्ड देने का ही उपाय बचता है। वह अपने न्याय विधान के अनुसार इस जन्म व परजन्म में उसके कर्मों के अनुसार दण्ड देकर उसे उन दुःखों को अनुभव कराता है जो उसने दूसरों को दिये हैं। हम कई अस्पतालों व घरों में रूग्ण लोगों को देखते हैं। वह दुःखों से पीड़ित होते हैं। रोगी भी और घर वाले भी कुछ विशेष परिस्थितियों में ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि इसे दुःखों से छुड़ाओं परन्तु वह लम्बे समय तक दुःख भोगता है। इसका कारण यही समझ में आता है कि उसका यह दुःख किसी पूर्वजन्म व पूर्वावधि के किसी पाप कर्म के कारण हो सकता है। ईश्वर के मनुष्यों के अपराध करते समय दण्ड न देने से कई बार हम निराश व दुःखी हो जाते हैं परन्तु ईश्वरीय व्यवस्था को ठीक से न समझने के कारण हमारे भीतर ईश्वर के प्रति भी उपेक्षा का भाव जन्म ले लेता है। वेद और दर्शन आदि किसी शास्त्र व ग्रन्थ में किसी ऋषि या विद्वान ने यह निष्कर्ष नहीं निकाला कि मनुष्यों के पाप कर्म करते समय बीच में ही ईश्वर को कर्ता को रोकना वा दण्ड देना चाहिये। ऋषि दयानन्द ने भी ऐसा नहीं लिखा। इसलिए हमें ईश्वर के प्रति निराशा के विचारों को अपने भीतर नहीं आने देना चाहिये।

 

हम दो दिन पहले एक दुर्घटना में बाल बाल बच गये तो हमने अनुभव किया कि ईश्वर की कृपा से हमारी रक्षा हुई है। हमारे कुछ आर्य विद्वान मित्रों को लगता है व वह इस विचार पर दृण हैं कि किसी दुर्घटना में सुरक्षित बच जाना ईश्वर द्वारा रक्षा किये जाने का प्रमाण नहीं है। हमारा विचार है कि ईश्वर सर्वरक्षक है तो वह सब प्राणियों की सदा सर्वदा रक्षा तो करता ही है। ईश्वर हमारी आत्मा व अन्य सभी मनुष्यों की आत्माओं में भी है। सड़क दुर्घटना में किसी एक व अधिक लोगों की गलती होने पर परमात्मा तत्क्षण उन्हें प्रेरणा कर उन्हें टाल तो सकता ही है। दुर्घटना करने वाला का पदजमदेपवद दुर्घटना करने का व किसी को पीड़ित करने का नहीं होता है। और जो दुर्घटना से ग्रस्त होता है उसकी इच्छा भी दुर्घटना से पीड़ित होने की नहीं होती। अतः सर्वप्रेरक परमात्मा दोनों को प्रेरणा तो कर ही सकता है व वह यथासम्भव बचाव करते भी हैं। मानना व न मानना संबंधित व्यक्तियों पर निर्भर होता है। वाहन के चालक का किसी को दुर्घटना ग्रस्त करने का विचार नहीं होता। उसका घटना के समय प्रारब्ध भी ऐसा हो सकता है कि उस समय उसे कोई शारीरिक कष्ट व असुविधा हो। यदि ऐसे में ईश्वर उस चालक को प्रेरणा कर दें और इससे दुर्घटना होने से बच जाये तो हमें नहीं लगता कि इससे कोई सिद्धान्त हानि होती है। हमें लगता है कि इस प्रकार से अनजाने में होने वाली यह दुर्घटना टल सकती है व अनेक अवसरों पर टला करती है। ऐसा एक नहीं अनेक घटनाओं में होता है। वर्षों पूर्व हम वैदिक साधन आश्रम तपोवन में महात्मा दयानन्द वानप्रस्थी जी का प्रवचन सुन रहे थे। उन्होंने बताया था कि वह अपने साथियों के साथ उत्सव के लिए चन्दा मांगने देहरादून के रायपुर क्षेत्र में एक विश्व प्रसिद्ध चिकित्सा वैज्ञानिक के पास गये थे। उनसे बातचीत हुई तो उन्होंने बताया कि उन्होंने जीवन में चिकित्सा के क्षेत्र में अनेक अनुसंधान किये हैं। आज तक चिकित्सा विज्ञान यह नहीं जान पाया कि एक आदमी सड़क पर ठोकर खाकर गिर जाये तो मर क्यों जाता है ओर एक बच्चा किसी भवन की तीसरी मंजिल से गिरे तो वह बच क्यों व कैसे जाता है। श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी के प्रधानमंत्रीत्व काल में गुजरात में एक भीषण भूकम्प आया था। इसमें प्राण रक्षा के अनेक चमत्कारिक उदाहरण देखे गये थे जिसे देख व सुनकर लोगों को आश्चर्य होता था और भीतर से यह आवाज आती थी कि यह तो ईश्वर का चमत्कार है। उन जैसी परिस्थितियों में मनुष्य का जीवित रहना सम्भव नहीं होता परन्तु अनेक जीवन विपरीत परिस्थितियों में बचे थे।

 

हमारे एक पूर्व मित्र कीर्तिशेष प्रा. अनूप सिंह ने एक बार एक पारिवारिक सत्संग में प्रवचन करते हुए ईश्वर के अस्तित्व को एक उदाहरण से समझाया था। उन्होंने कहा था कि एक नास्तिक पिता का पुत्र आस्तिक था। पुत्र ने एक बार पिता को समझाने के लिए उनके घर की बैठक में लगी अपने दादा दादी के चित्र को उतार कर छुपा दिया। पिता जब आफीस से आये तो दीवार पर चित्र को न देखकर पुत्र से बोले कि चित्र कहां हैं? पुत्र ने कहा कि उसे नहीं पता। कहीं चला गया होगा। इस पर पिता बोले कि आज घर में कौन कौन आया था? पुत्र ने कहा कि कोई नहीं आया। इस पर पिता बोले कि चित्र अपने आप कहीं नहीं जा सकता। उसे अवश्य ही तुमने छुपाया है। इस पर पुत्र बोला कि यदि चित्र अपने आप कहीं आ जा नहीं सकता तो क्या यह सूर्य, चन्द्र व लोक लोकान्तर अपने आप बन सकते हैं और अपनी धुरी पर बिना किसी के घुमाये घूम सकते हैं। यह सब भी तो जड़ हैं। इन्हें भी तो बनाने व घुमाने वाली तथा नियम में रखने वाली कोई ज्ञानी व चेतन सत्ता चाहिये। यह बात पिता को समझ में आ गई और वह आस्तिक बन गये। यह बता कर विद्वान वक्ता श्री अनूपसिंह ने कहा था कि यदि ईश्वर नहीं है और हम उसे मानते हैं तो इससे हमें कोई हानि नहीं होगी। परन्तु यदि ईश्वर है और हम उसे नहीं मानते तो हमें हानि अवश्य हो सकती है। इसलिए दोनों ही स्थितियों में ईश्वर को मानना उचित है। इसके आधार पर हम निष्कर्ष रूप में यह कह सकते हैं कि सड़क आदि दुघर्टनाओं में ईश्वर मनुष्यों की रक्षा करता है। वह रक्षा करता है तो भी और नहीं करता है तो भी, यह मानने में कि हम ईश्वर द्वारा रक्षित हैं और उसने दुर्घटना होने पर हमें बचाया है, इससे किसी प्रकार की सिद्धान्त हानि होने की सम्भावना नहीं है। हमारा अपना विचार है कि ईश्वर दुर्घटनाओं में अपने नियमों आदि के अनुसार सभी मनुष्यों की अवश्य रक्षा करता है। पाठक स्वयं विचार करें और निर्णय करें। उन्हें जो उचित लगे करें क्योंकि इस विषय में वैदिक साहित्य में कहीं ऐसा लिखा नहीं मिलता है कि ईश्वर दुर्घटनाओं में मनुष्यों की रक्षा नहीं करता। हम इतना ही जानते हैं कि ईश्वर सर्वरक्षक है और वह हर पल और हर क्षण हमारी रक्षा करता है। ओ३म् शम्।

 

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